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विधानसभा चुनाव 2017: मोदी का 2022 का दांव

चौंकाने वाली चुनावी कामयाबियों के बाद प्रधानमंत्री मोदी ने नए भारत का नजरिया पेश किया, जिसे साकार करने की काबिलियत ही उन्हें आगे ले जाएगी.

नरेंद्र मोदी नरेंद्र मोदी
राज चेंगप्पा
  • नई दिल्ली,
  • 27 मार्च 2017,
  • अपडेटेड 4:25 PM IST

उत्तर प्रदेश में भाजपा की विशाल जीत के महान क्षण में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बहुत आगे की सोच रहे थे. उनके दिमाग में 2019 का आम चुनाव नहीं था. वे अगली पीढ़ी के बारे में सोच रहे थे.

पांच में से चार राज्यों की सत्ता पर भाजपा के काबिज होने का नतीजा जिस दिन आया, उसके अगले दिन मोदी ने दिल्ली स्थित पार्टी मुख्यालय में अपने उत्साही समर्थकों से कहा, ''मैं पांच राज्यों के चुनाव परिणामों को नए भारत की बुनियाद के रूप में देख रहा हूं—एक ऐसा नया भारत जो 35 साल से कम उम्र के 65 फीसदी युवाओं और जागरूक महिला समूहों का भारत होगा. एक ऐसा नया भारत जहां गरीब आदमी कुछ मांगने की बजाए कुछ करने के अवसर की राह देख रहा होगा." इसे उनके अगले चुनावी प्रचार के नारे के बतौर न देखा जाए, इसके लिए आगे उन्होंने अपनी बात साफ  की, ''मैं चुनावी गणित के हिसाब से नहीं जीता हूं. मेरा लक्ष्य 2022 है, 2019 नहीं, 2022 में भारत की आजादी के 75 साल पूरे हो जाएंगे. हमारे पास भारत को बदलने में योगदान देने के लिए सिर्फ पांच साल शेष हैं."

जो लोग मोदी के करीब रहकर काम कर चुके हैं, वे कहते हैं कि उनके कहे का एक मतलब ही नहीं होता बल्कि वे वही करते हैं, जो उनकी मंशा होती है. वे दुनिया के कुछ ऐसे नेताओं में शुमार हैं जो सोशल मीडिया के महारथी हैं, तो वे अपनी वेबसाइट पर अधिकतर बातें कहते और करते हैं.

उसी दिन प्रधानमंत्री की वेबसाइट पर एक नया ऐप अपलोड हुआ जिसमें लोगों से संकल्प लेने को कहा गया जिस पर स्पष्ट रूप से मार्टिन लूथर किंग जूनियर के ''आइ हैव ए ड्रीम" (मेरा एक सपना है) वाले मशहूर भाषण की छाया थी. उस ऐप में लोगों से आह्वान किया गया है कि वे श्नए भारत्य का हिस्सा बनें जिसे ''भारत के सभी और हर आदमी की ताकत से बल मिलेगा, एक ऐसा भारत जो नवाचार संचालित होगा, कठोर मेहनत और सृजनात्मकता से आगे बढ़ेगा, एक ऐसा भारत जहां शांति, एकता और भाईचारा होगा और जो भ्रष्टाचार, आतंकवाद, काले धन और गंदगी से मुक्त होगा." यह सब कुछ 2022 तक किया जाना है जब भारत आजादी के 75 साल पूरे करेगा.

इस ऐप पर आप अगर ''टेक द प्लेज" (संकल्प लें) का बटन दबाते हैं तो यह आपको एक ऐसे पेज पर ले जाता है जिसका हैशटैग है आइऐमन्यूइंडिया और उस पर निम्न संकल्प लिखे हैं जिन पर सही का निशान लगाना हैरू भ्रष्टाचार-मुक्त भारत के पक्ष में खड़ा होना, स्वच्छ भारत की दिशा में काम करना, कैशलेस लेनदेन को बढ़ावा देना, मादक पदार्थ मुक्त भारत को सुनिश्चित करना, महिलाओं की अगुआई वाले विकास को प्रोत्साहित करना, प्रकृति और प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण, विकलांगताओं वाले लोगों को सहयोग, शांति, एकता और सद्भावना के लिए काम करना तथा रोजगार सृजक बनना न कि रोजगार तलाशने वाला.

उनके आलोचक ऐसे दावों को यह कहकर खारिज करते हैं कि मोदी एक बार फिर लोगों को सपने बेच रहे हैं और यह महज जुबानी जमा खर्च है जिसके सहारे वे ''अच्छे दिनों" के वादे को 2022 तक धकेल रहे हैं. इनमें हालांकि सबसे कटु आलोचक भी यह बात स्वीकार करेंगे कि भारत के राजनैतिक परिदृश्य पर मोदी अब एक प्रभुत्वकारी शख्सियत के रूप में उभर कर आ चुके हैं इसलिए वे जो भी संकल्प लेंगे, उसे गंभीरता से लिया जाना होगा. हाल के वर्षों में कुछ ही नेता रहे हैं जिन्हें मोदी जैसी भारी चुनावी कामयाबी मिली हो—2014 में विशाल बहुमत पाने के बाद देश के सबसे ज्यादा आबादी वाले राज्य उत्तर प्रदेश में अपने कार्यकाल के बीचोबीच एक धमाकेदार विजय हासिल करना मार्के की बात है.

वे हालांकि जनता के बड़े हिस्से को संबोधित कर रहे थे लेकिन उनके दिमाग में यह बात बनी हुई थी कि उत्तर प्रदेश की चुनावी कामयाबी इस बात की मांग करती है कि उससे उपजी नई चुनौतियों पर उन्हें ध्यान देना होगा. उनकी जीत की बधाई देने वाले आला नौकरशाहों को मोदी ने होली के अगले दिन कहा, ''हमारी वचनबद्धता अब और बड़ी हो गई है क्योंकि उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड श्रेष्ठ प्रशासित राज्यों में नहीं आते हैं. हमें इसमें फर्क डालना होगा और यह सभी के लिए एक चुनौती है." प्रधानमंत्री इस बात से पर्याप्त अवगत थे कि लोगों की बढ़ती आकांक्षाओं के मद्देनजर उन्हें देश भर में प्रदर्शन करना होगा. जैसा कि एक अधिकारी ने कहा, ''अब तक जितनी भी घोषणाएं की गई हैं, उनके हिसाब से हमारा एजेंडा काफी व्यापक है. इस पर ठीक से अमल करना होगा. हालिया चुनावी जीत हमें और ज्यादा वचनबद्धता से ऐसा कर पाने में सक्षम बनाएगी."

मोदी को अच्छे से जानने वाले बताते हैं कि महाराष्ट्र और ओडिशा के स्थानीय चुनावों में मिली जीत के बाद भी उनकी प्रतिक्रिया ऐसी ही शांत थी. उन्होंने एक सहयोगी से कथित रूप से कहा था, ''मेरा सारा जोर और शिद्दत इस देश के विकास पर है, न कि ऐसी चुनावी जीतों पर." एक बड़े अधिकारी बताते हैं कि ऐसा नहीं है कि विधानसभा चुनाव में मिली जीत के बहाने प्रधानमंत्री आर्थिक सुधार के कुछ साहसिक फैसले लेने वाले हैं. उन्होंने कहा, ''उनके लिए सुधार रोजमर्रा चलने वाली एक प्रक्रिया है. लेकिन विधानसभा चुनाव, खासकर उत्तर प्रदेश में मिली जीत ने उन्हें आश्वस्त कर दिया है कि वे सही रास्ते पर हैं. अब वे 100 फीसदी आश्वस्त हो चुके हैं कि उन्हें ज्यादा से ज्यादा गरीबों के हक में खड़ा रहना है."

जिन्हें इस बात की चिंता है कि मोदी अब अचानक मध्यमार्ग से वामपंथ की ओर झुक सकते हैं और लोकलुभावनवाद में फंस सकते हैं, उनका भय भी निराधार हो सकता है. मोदी ने जिस नए भारत की बात कही है, उसका खाका अब भी सामने आना बाकी है लेकिन एक साफ  समझदारी है कि प्रधानमंत्री अब सब्सिडी और रेवडिय़ों वाली संस्कृति से दूर जा रहे हैं. यही उनके अपनाए जाने वाले नए सुधारों का सबसे पुष्ट संकेत है.

इसके अलावा युवाओं से यह कहना कि वे रोजगार मांगने की बजाए रोजगार पैदा करें, एक और संकेत है. वे चाहते हैं कि यह देश सरकारी नौकरियों पर निर्भरता वाली संस्कृति से दूर हटे और वे जाति तथा समुदायों पर आधारित आरक्षण की व्यवस्था को समाप्त करने की ओर बढऩा चाह रहे हैं. अपने विजय संबोधन में मोदी ने कहा था, ''इस देश के गरीबों ने अब ऐसे नेताओं को पसंद करने की मानसिकता त्याग दी है जो उन्हें कुछ देता हो. इसकी बजाए गरीब आदमी कठोर मेहनत से तरक्की करना चाह रहा है. वह कह रहा है कि मेरे लिए अवसर पैदा करो, मैं मेहनत से उसे पाल-पोस कर बड़ा कर दूंगा."

पार्टी के कार्यकर्ताओं और अफसरों के साथ अपने संवाद के दौरान मोदी पंडित दीनदयाल उपाध्याय की कही एक बात को गिनवाना नहीं भूलते. भाजपा आरएसएस नेता रहे उपाध्याय की 100वीं जयंती मना रही है. उपाध्याय एक उदाहरण देते थे कि अगर कोई व्यक्ति जिसे तैराकी न आती हो, कुएं में गिर जाए, तो सांत्वना के शब्द किसी काम के नहीं होंगे. इसकी बजाए किसी को उसे खींच कर बाहर निकालना होगा. इसकी एक शर्त यह है कि कुएं में गिरा व्यक्ति खुद को बचाने के लिए खूब जान लगाए. अपनी ताकत का पूरा इस्तेमाल करे. मोदी मानते हैं कि सरकार की भूमिका निराशा के कुएं में डूबते हुए गरीब आदमी को सहारा देकर बाहर निकालने तक है लेकिन ऐसा करने में सरकार को यह भी सुनिश्चित करना होगा कि जिस व्यक्ति की मदद की जा रही है, वह पूरी तरह निर्भर होने की बजाए खुद अपनी मदद के लिए मेहनत कर रहा है या नहीं.

आरंभ में यह सुनिश्चित करने के लिए कि सब्सिडी और रियायतें सही लोगों तक पहुंच पा रही हैं या नहीं, प्रधानमंत्री ने जनधन-आधार-मोबाइल यानी जैम की तिकड़ी का सहारा लिया है. जनधन के तहत खोले गए 25 करोड़ बैंक खातों, बायोमीट्रिक पहचान और मोबाइल फोन के माध्यम से प्रधानमंत्री ने गरीबों को दी जाने वाली सब्सिडी और लाभों के मामले में एक छोटी सी क्रांति की है. प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण (डीबीटी) प्रणाली ने सुनिश्चित किया है कि सब्सिडी सीधे लाभार्थी के बैंक खाते में भेजी जाए ताकि इससे रिसाव और भ्रष्टाचार खत्म हो सके. डीबीटी के तहत अब तक 84 योजनाओं और कार्यक्रमों में 32 करोड़ से ज्यादा लाभार्थियों को डेढ़ लाख करोड़ रु. से ज्यादा की धनराशि हस्तांतरित की जा चुकी है.

इसका सबसे ज्वलंत उदाहरण देश में एलपीजी सिलिंडरों का वितरण है. करीब डेढ़ करोड़ लोग ऐसे थे जिन्होंने सब्सिडी छोडऩे की प्रधानमंत्री की अपील को सुना और माना. इससे अपने आप 1,800 करोड़ रु. की सालाना बचत होने लगी. इसके बाद डीबीटी प्रणाली के तहत सरकार ने 3.4 करोड़ फर्जी कनेक्शन खत्म करवाए, जिससे बचत में भारी इजाफा हुआ.
प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना के तहत सरकार ने गरीबी रेखा से नीचे जीने वाले डेढ़ करोड़ परिवारों को गैस कनेक्शन दिए, जिसमें इंस्टॉलेशन की लागत माफ की गई और पहला सिलिंडर मुक्रत दिया गया. उत्तर प्रदेश में भारी संख्या में बीपीएल परिवारों को इसका लाभ मिला जिसके कारण अधिकतर महिलाओं ने चुनाव में भाजपा को वोट दिया.

मोदी का 2022 तक नए भारत का सपना इस बात पर टिका है कि उन्होंने 100 से ज्यादा जो योजनाएं लागू की हैं उनमें वे कैसा प्रदर्शन करते हैं. नीति आयोग के सीईओ अमिताभ कांत बताते हैं कि मोदी ने इनपुट और आउटपुट की बजाए सारा ध्यान नतीजों पर देना शुरू कर दिया है. प्रधानमंत्री हर तिमाही नीति आयोग की बैठक की अध्यक्षता करते हैं, जहां वे सभी योजनाओं की समीक्षा करते हैं और जहां कहीं कमी होती है, वहां समाधान भी सुझाते हैं. अमिताभ कांत कहते हैं, ''उनकी विशाल दृष्टि के अलावा लगातार नवाचार करते रहने की उनकी सामथ्र्य और कड़े फैसले लेने की उनकी इच्छाशक्ति उन्हें छोटे-छोटे विवरणों में ले जाती है और विकास में छलांग लगाने के लिए वे प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल की बात करते हैं."

इसके बावजूद मोदी को अगर सबसे ज्यादा किसी ने झटका दिया है तो वह नौकरशाही है, साथ ही कैबिनेट के कुछ लोग हैं. अब बड़े कार्यक्रमों के लिए मोदी को उच्चस्तरीय प्रोफेशनलों की मदद लेनी होगी. यूपीए सरकार ने आधार कार्ड के क्रियान्वयन के लिए नंदन नीलेकणि को रखा था और उस कार्यक्रम की कामयाबी सामने है. मोदी को अपने नए भारत की दृष्टि सामने रखनी चाहिए और क्रियान्वयन के ठोस लक्ष्य तय करने चाहिए.

इससे ज्यादा अहम हालांकि यह सवाल है कि इन योजनाओं से कितने रोजगार पैदा होंगे, ताकि बेरोजगारी का संकट खत्म हो जिसने स्वस्थ वृद्धि दर के बावजूद अर्थव्यवस्था पर असर डाला है. अग्रणी अर्थशास्त्री राजीव कुमार कहते हैं कि प्रधानमंत्री को तीन कमियां दूर करनी चाहिए. इस सूची में सबसे ऊपर हालिया केंद्रीय बजट में दर्ज किफायती आवास मुहैया कराने पर दिया जाने वाला जोर है. केंद्र को इसके लिए निजी और सरकारी ऑपरेटरों के साथ मिलकर बोली की प्रक्रिया में तेजी लानी होगी, लागत कम करनी होगी और गुणवत्तापूर्ण निर्माण को सुनिश्चित करना होगा. यह लक्ष्य महत्वाकांक्षी है क्योंकि 2019 तक 10 करोड़ किफायती मकान बनाए जाने का लक्ष्य है. अगर इसका आधा भी पूरा हो सका तो इससे भारी संख्या में रोजगार पैदा होंगे और लोगों के सिर पर छत मिलने का संतोष मिलेगा, वह अलग है.

राजीव कुमार बहुब्रांड रीटेल में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की भी हिमायत करते हैं, जो रोजगारों को बढ़ा सकता है. उनका तीसरा नुस्खा निवेश के सुस्त माहौल को सुधारना है और उत्पादन को प्रोत्साहन देना है. इसके लिए प्रधानमंत्री को सरकारी बैंकों के एनपीए से निबटना होगा. मोदी ने अब तक वित्तीय घाटे के चलते इन बैंकों में पूंजी नहीं लगाई है और उन्हें यह भी चिंता है कि ऐसा करने से मोटे असामी बच जाएंगे. अमिताभ कांत मानते हैं कि मुद्रा योजना, जिसने अब तक 2 करोड़ से ज्यादा छोटे उद्यमियों को सस्ते कर्ज दिलवाने का काम किया है, ग्रामीण और अनौपचारिक क्षेत्रों को प्रोत्साहन देगी और रोजगार पैदा करेगी. केंद्र श्रम सघन क्षेत्र कपड़ा पर भी जोर दे रहा है. यहां उसने बड़े सुधारों की घोषणा की है. मोदी को किसानों के बढ़ते संकट से भी निबटना होगा.

देश को भ्रष्टाचार से मुक्त कराने के काम में मोदी को काफी सराहना मिली है. ऐसा लगता है कि नोटबंदी के सैलाब से वे आसानी से पार पा गए हैं, बावजूद इसके कि गरीब तबके के लोगों को काफी दिक्कतें उठानी पड़ी थीं और अर्थव्यवस्था को भी इसकी चोट पहुंची थी. गरीबों ने मोदी में अपनी आस्था जताई है, तो ऐसा इसलिए है क्योंकि वे मानते हैं कि आखिरकार अमीरों को अपने किए का परिणाम भुगतना पड़ा है. अपने बचे हुए कार्यकाल में मोदी को बिग डेटा एनालिटिक्स का इस्तेमाल करते हुए संदिग्ध वित्तीय लेनदेन का पता करना पड़ेगा और यह तय करना होगा कि नए सिरे से काला धन भारी मात्रा में पैदा न होने पाए. उन्हें ऐसा करते वक्त यह भी देखना होगा कि इस काम में लगाए गए कर अधिकारियों को कर आतंक फैलाने की छूट न मिलने पाए. बेशक, कुछ समय बाद उन्हें नोटबंदी के वास्तविक लाभ भी गिनाने पड़ेंगे, जिससे अभी सरकार बचती नजर आ रही है.

शांति, एकता और सद्भावना की मोदी की पुकार प्रशंसनीय है. अब तक मोदी मंदिर, समान आचार संहिता और धारा 370 की समाप्ति के हिंदुत्ववादी एजेंडे के चक्कर में नहीं पड़े हैं. इसकी बजाए उन्होंने विकास के मुद्दों पर खुद को केंद्रित रखा है जिसके आधार पर उन्होंने 2014 का चुनाव जीता था. उन्होंने काफी तेजी से अपना काम सीखा है. जब उनके ऊपर राहुल गांधी ने ''सूटबूट की सरकार" चलाने का आरोप लगाया था, तब उन्होंने काफी तेजी से गरीब ''हितैषी और किसान-हितैषी्य छवि अख्तियार कर ली, जिससे कांग्रेस और वामदलों की जमीन ही मानो छिन गई. फिर उन्होंने नोटबंदी करके आम आदमी पार्टी से उसका भ्रष्टाचार का मुद्दा छीन लिया.

ऐसा करते वक्त उन्होंने एक व्यापक सामाजिक प्रयोग को भी अंजाम दिया, जिसने व्यापक गरीबों को अल्पसंख्यक अमीरों के खिलाफ खड़ा कर दिया. नया भारत बनाने की मोदी की पुकार को युवाओं और महिलाओं को अपनी ओर करने के एक चालाक दांव के रूप में देखा जा रहा है, ताकि 2019 करीब आते-आते वे अपना सामाजिक आधार चैड़ा कर सकें. हाल ही में उन्होंने जो चुनावी कामयाबियां हासिल की हैं, उसके चलते विश्लेषकों ने उनकी तुलना इंदिरा गांधी और जवाहरलाल नेहरू से करनी शुरू कर दी है.

सवाल उठता है कि भारत के नेताओं की पांत में मोदी आज कहां खड़े हैं? राजनैतिक विश्लेषक योगेंद्र यादव मानते हैं कि मोदी ने इतना तो तय कर दिया है कि राष्ट्रीय राजनीति में भाजपा अब सबसे ताकतवर पार्टी बन चुकी है. ताकतवर से उनका मतलब है वैधता के साथ मिली ताकत—आज मोदी के पास लोकप्रिय जनादेश की बर्बर ताकत है. नेतृत्व के मामले में यादव कहते हैं कि मोदी अब इंदिरा गांधी की जगह लेने को तैयार हैं. प्रधानमंत्री ने अपने हिस्से की कहानी को ढंग से बेचा है और लोगों को इस बात से राजी कर लिया है कि वे राष्ट्रीय हित के साथ खड़े हैं और उन टुच्ची लड़ाइयों से काफी ऊपर हैं, जिनमें दूसरी पार्टियां उलझी पड़ी हैं.

नेहरू मेमोरियल क्वयूजियम और लाइब्रेरी के निदेशक शक्ति सिन्हा, जो अटल बिहारी वाजपेयी के निजी सचिव रह चुके हैं, मानते हैं कि मोदी कोई यथास्थितिवादी नेता नहीं हैं बल्कि परिवर्तनकारी शख्सियत हैं. वाजपेयी से उलट मोदी प्रशासन पर तेज पकड़ में यकीन रखते हैं. दृष्टि के मामले में सिन्हा मानते हैं कि मोदी इंदिरा की बजाए नेहरू के ज्यादा करीब हैं. नेहरू ने अगर आधुनिक भारत का सपना देखा था तो चुनावी कामयाबियों से लबरेज मोदी नए भारत का अपना सपना सामने रख रहे हैं. वे एक महत्वाकांक्षी देश के साथ अपनी ताल बैठा रहे हैं और अपने को ज्यादा से ज्यादा स्वीकार्य बना रहे हैं.

मोदी जाति और समुदाय की रूढिय़ों को भी तोडऩे की कोशिश कर रहे हैं और नेताओं के चयन के मामले में वे कड़े फैसले लेने के इच्छुक हैं. पंजाबी मूल के बावजूद उन्होंने मनोहरलाल खट्टर को हरियाणा का मुख्यमंत्री बना दिया. मराठा चंगुल से बचते हुए उन्होंने देवेंद्र फडऩवीस को महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री बना दिया. एक गैर-आदिवासी नेता रघुबर दास को उन्होंने झारखंड का मुख्यमंत्री बनाया. बावजूद इसके आरएसएस के साथ मोदी के रिश्ते सहज हैं—तकरीबन एक साझीदारी के जैसा रिश्ता है जिसमें वे यह सुनिश्चित करते हैं कि उनके फैसलों को संघ काट न सके. उनके आलोचक कहते हैं कि मोदी अपने मूल में अब भी हिंदुत्व के दर्शन से बंधे हुए हैं और चेतावनी देते हैं कि सही वक्त आने पर वे उसे लागू करेंगे. जब विभाजनकारी सांप्रदायिक मुद्दे उभरते हैं, उस वक्त वे मोदी की चुप्पी की ओर इशारा करते हैं. उन्हें यह भी डर है कि बहुत ज्यादा ताकत मोदी को तानाशाह बना देगी.

तो, क्या मोदी भारत के नए दूरदर्शी नेता के रूप में उभर रहे हैं जो नेहरू और इंदिरा की तरह वर्षों इस देश पर राज करते रहेंगे या फिर वे आगे भी धोखा देते रहेंगे? हारवर्ड के मनोवैज्ञानिक हावर्ड गार्डनर ने अपनी प्रसिद्ध किताब लीडिंग माइंड्सः ऐन एनाटॉमी ऑफ  लीडरशिप में लिखा है कि नेता उन कहानियों से खुद को जोड़ते हैं, जो किसी समाज की जीवन की समझ के केंद्र में होती हैं. गार्डनर कहते हैं कि एक कामयाब आख्यान इस बात पर निर्भर करता है कि ''नेता के अपने क्रियाकलाप और जीवन उस कहानी के भावों को प्रतिबिंबित कर रहे हैं या नहीं." उसके बाद वे नेता की कामयाबी के केंद्र में पांच गुण गिनाते हैः किसी कहानी को गढ़कर उसे आश्वस्तकारी ढंग से सुनाने की क्षमता; खुद की जिंदगी में उस कहानी को उतारने की क्षमता; अपने श्रोताओं की गहरी समझ; एक सहयोगात्मक संगठन निर्मित करने और बनाए रखने के लिए जरूरी ऊर्जा; और लगातार तकनीकी विशेषज्ञता का दोहन करने के लिए जरूरी कौशल.

मोदी में ये सब गुण हैं और इनसे कहीं ज्यादा भी है. उन्होंने 2014 में बड़ी सफलता से एक आख्यान गढ़ा कि वे ही हैं जो इस देश को आर्थिक बदहाली से निकाल सकते हैं. गुजरात में तीन बार मुख्यमंत्री रहने को उन्होंने विकास का मॉडल कहकर बेचा. उनकी अपनी जिंदगी एक चायवाले से मामूली शुरुआत का उदाहरण थी, जिसके बाद उन्होंने परिवार छोड़ दिया और आरएसएस के सांगठनिक कामों के प्रति खुद को समर्पित कर दिया. तबसे लेकर अब तक उन्होंने जबरदस्त ऊर्जा का मुजाहिरा किया है और अपने काम को करने में प्रौद्योगिकी का सक्षमकारी प्रयोग किया है (वे ऐसा अपनी चुनावी रैलियों में करते रहे, याद करें उनके अपने 3डी होलोग्राम).

गार्डनर तीन किस्म के नेताओं की बात करते हैं जहां ऐसे गुण निरंतर पाए जाते हैः दृष्टा, नवाचारी और सामान्य. सामान्य नेता वे होते हैं जो शायद ही कभी यथास्थिति को चुनौती दे पाते हैं और वे अपने सदस्यों को ही सशक्त करके संतुष्ट बने रहते हैं ताकि अग्रगति जारी रह सके. वे नवाचारी नेताओं के बारे में कहते हैं कि ये ऐसे नेता हैं जो किसी पुराने आख्यान को उठाकर उसे नया मोड़ देते हैं और उसके सहारे समाज को बदलते हैं. इनके उलट दृष्टा नेता दुर्लभ होते हैं. गार्डनर के मुताबिक, दृष्टा वह है जो ''किसी मौजूदा आख्यान से खुद को जोडऩे या हालिया और सुदूर अतीत के किसी पुराने आख्यान में नई जान फूंकने से संतुष्ट नहीं होता. यह शख्स वास्तव में एक नया आख्यान गढ़ता है, जिससे बहुत से लोग पहले से परिचित नहीं होते और वह इस कहानी को संप्रेषित कर पाने में आंशिक कामयाबी हासिल कर लेता है."

इस कसौटी पर देखें तो मोदी ने वाकई अपना एक आख्यान गढ़ा है और वे एक दृष्टा कहलाने की दहलीज पर खड़े नजर आते हैं. इसके बावजूद भारत की जनता से इसकी पुष्टि तभी होगी जब वे भारी बहुमत से 2019 का चुनाव जीत लेंगे. विपक्ष अगर ऐसा नहीं चाहता है तो उसे काफी गहरे पैठना होगा और पता करना होगा कि मोदी ने जो योजनाएं शुरू की हैं, उनके प्रदर्शन का असली हाल क्या है. मोदी के प्रदर्शन की एक आलोचनात्मक और तथ्यात्मक समीक्षा ही उनकी विश्वसनीयता को चोट पहुंचा सकती है. चुनाव जीतने के लिए जाति और सांप्रदायिक हेरफेर पर वक्त खर्च करने से कहीं ज्यादा जरूरी यह काम है. अगर उन्हें मोदी को हटाना है, तो उन्हें विकास का अपना एक विशिष्ट आख्यान सामने लेकर आना होगा और लोगों की उसमें आस्था जगानी होगी. फिलहाल तो मोदी को रोक पाना नामुमकिन है.

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