अक्सर इतने बड़े और ऐतिहासिक चुनावी जनादेशों की व्याख्या के लिए राजनैतिक शब्दावली को कुदरती उपमाओं से शब्द उधार लेकर गढऩा पड़ता है. बिल्कुल प्राकृतिक ताकतों की तरह ऐसे जनादेशों के आने की उम्मीद नहीं की जा सकती और उसकी अभिव्यक्ति अत्यधिक तीव्र होती है. चुनावी लहर यहीं पैदा होती है जो भारी जीत में बदल जाती है. आम तौर पर यह माना जाता है कि ऐसी अनहोनी एक बार ही होती है. एक ही जगह पर लगातार दो बार कुदरत के हमले नहीं होते.
सचमुच यह दुर्लभ है. ऐसा ही दुर्लभ नजारा भाजपा के मामले में उत्तर प्रदेश में देखने को मिला है जहां पार्टी और उसके गठबंधन सहयोगियों ने 2014 में लोकसभा की 80 में से 73 सीटें जीती थीं और इसे करीब 43 फीसदी रिकॉर्ड वोट पड़े थे, जिसे चुनावी पंडितों ने सूनामी की तर्ज पर ''सु-नमो" की संज्ञा दी थी. कई ऐसी ठोस वजहें थी जिससे 2017 में इसका दोहरा पाना असंभव-सा प्रतीत हो रहा था. मसलन—पार्टी के पास मुख्यमंत्री पद का कोई अदद चेहरा नहीं था. राम मंदिर जैसा कोई भावनात्मक ज्वार पैदा करने वाला मुद्दा भी नहीं था. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अथक चुनाव प्रचार के बावजूद दिल्ली और बिहार की करारी शिकस्त के जख्म थे.
यूपी में पार्टी के सामने समाजवादी पार्टी के नौजवान अखिलेश यादव के रूप में कड़ा प्रतिद्वंद्वी था, जिसने खुद को विकास के प्रतीक के रूप में स्थापित करते हुए कांग्रेस के साथ महागठजोड़ कर लिया था. इसके अलावा मायावती की अगुआई में उभरने की आस बांधे बसपा भी एक चुनौती थी. फिर बीजेपी ने नारा दिया, ''अबकी बार, 300 पार्य. यह बात अलग है कि ज्यादातर नेता 260 सीटों से ज्यादा मानकर नहीं चल रहे थे. लेकिन इस नारे के रचयिता पार्टी की राज्य इकाई के अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्य ने 10 मार्च की रात इंडिया टुडे को बताया, ''हमें 280 से 340 के बीच सीटें मिल रही हैं... 280 से तो कम बिल्कुल भी नहीं."
अगली सुबह जब मतों की गिनती शुरू हुई तो बीजेपी की लहर उछल कर तीन अंकों के पार पहुंच गई और उसने विपक्ष को पूरी तरह डुबो दिया. चुनाव-पूर्व भविष्यवाणी भी उसी के साथ डूब गई जिसमें कहा गया था कि भारत के सबसे बड़े सूबे में लोग इस बार अपनी-अपनी जाति-बिरादरी के हिसाब से वोट करेंगे क्योंकि केंद्र और राज्य के चुनाव में मतदाताओं का व्यवहार अलग होता है. एक भी मुसलमान उम्मीदवार खड़ा नहीं करने के बावजूद बीजेपी को अल्पसंख्यकों के प्रभाव वाली 60 फीसदी सीटों पर जीत हासिल हुई.
भगवा लहर ने विरोधियों के गढ़ में ऐसा ज्वार पैदा किया कि गांधी परिवार की सीटों अमेठी और रायबरेली की 10 में से छह सीट बीजेपी ने कब्जा लीं, जबकि मुलायम सिंह यादव के गढ़ इटावा और मैनपुरी की सात में से तीन सीटें उसकी झोली में आ गिरीं. कांग्रेस ने जिन 105 सीटों पर चुनाव लड़ा उनमें से वह केवल 7 पर जीत सकी जो कि 1977 के बाद से उसका सर्वाधिक खराब प्रदर्शन था. उसके उलट बीजेपी के सहयोगी अपना दल ने जिन 11 सीटों पर उम्मीदवार खड़े किए थे, उनमें से 9 सीटें निकाल वह कांग्रेस से आगे हो गया.
जब गिनती का कांटा थमा, जो आखिरी आंकड़ा था तो भाजपा के रणनीतिकार भी लंबी सांसें भर रहे थे. 403 में से कुल 325 सीटें बीजेपी और उसके सहयोगियों के नाम हो चुकी थीं. यह राज्य में पार्टी का अब तक का सबसे अच्छा प्रदर्शन रहा जिसने लखनऊ की सत्ता से उसके 14 साल के वनवास का अंत किया, तो सपा (47 सीट) और बसपा (19 सीट) जैसी क्षेत्रीय पार्टियों को सियासी रूप से हाशिए पर डाल दिया.
उत्तर प्रदेश में 2014 के प्रदर्शन ने यदि एनडीए की मजबूत नींव रखी थी, तो इस बार के विधानसभा चुनाव में मिले भारी जनादेश ने प्रधानमंत्री मोदी को उनकी अगली चुनौती यानी 2019 के लोकसभा चुनाव के पार जाकर सोचने का अदम्य साहस दिया है. नतीजों के फौरन बाद मीडिया से मुखातिब भाजपा अध्यक्ष अमित शाह भगवा जैकेट और पटका डाले मंद-मंद ऐसे मुस्करा रहे थे मानो अग्निपरीक्षा से पार होकर निकले हैं. वे बोले, ''आजादी के बाद की सबसे बड़ी विजय है, जनता और मोदी के नेतृत्व की जीत है. मोदी आजादी के बाद के सबसे लोकप्रिय नेता बनकर उभरे हैं."
बीजेपी मुख्यालय में 12 मार्च को मोदी ने भी अपने संबोधन में नए भारत के लिए श्विजन 2022" की रूपरेखा सामने रखी. यूपी की यह जीत सिर्फ चुनाव में बने माहौल भर का नतीजा नहीं था, बल्कि केंद्र की सत्ता में ढाई साल के शासन के बावजूद मोदी की बढ़ रही लोकप्रियता और अमित शाह की सांगठनिक कुशलता का जबरदस्त सम्मिश्रण है. यह जीत दो साल की योजनाबद्ध रणनीति, सांगठनिक मशीनरी को चाक-चौबंद करना और आखिर में एक सशक्त प्रचार का मिलाजुला नतीजा है.
शाह कहते हैं, ''यह जीत राजनीति से जातिवाद, तुष्टीकरण और परिवारवाद के अंत की शुरुआत है, जहां जनता ने विकास की राजनीति को स्वीकारा है. कोई कुशासन, गुंडागर्दी और भ्रष्टाचार को ढंकने के लिए 100 किलोमीटर का एक्सप्रेसवे बनवा कर जनता को मूर्ख नहीं बना सकता." शाह को उम्मीद है कि यह लहर वे यूपी के बाहर भी ले जा सकेंगे. भाजपा अध्यक्ष शाह के भरोसे की बड़ी वजह ब्रांड मोदी है जो विरोधियों को अपनी हर चाल से चैंकाने का माद्दा रखते हैं और उसका नमूना देख विपक्ष विचलित हो उठता है.
मुद्दों और एजेंडों पर भारी ब्रांड मोदी बीजेपी के एक समर्थक ने नतीजों के दिन 11 मार्च को एक ट्वीट किया था जो बताता है कि पार्टी आखिर यूपी की लहर के बारे में क्या सोचती है. ट्वीट था—''मोदी बीजेपी से बड़े हैं. मोदी राम मंदिर से बड़े हैं. मोदी आधुनिक भारत के नए राम हैं." पार्टी ने 1991 में कल्याण सिंह के कट्टर हिंदुत्व के एजेंडे की सवारी करते हुए 425 में से 221 सीटें जीती थीं जब अयोध्या में राम मंदिर बनवाने का वादा किया गया था. लेकिन उसके बाद के चुनावों में पार्टी अपना प्रदर्शन कभी आगे की ओर नहीं बढ़ा पाई और 2012 में तो वह अपने सबसे निचले स्तर (47 सीट) पर पहुंच गई. लेकिन भाजपा ने अपनी विचारधारा को पेश करने का ढर्रा अब बदल लिया है.
इस बार ब्रांड मोदी को इस तरीके से पेश किया गया जिसने जाति की जंग को वर्ग की जंग में बदल डाला और सुशासन के वादे ने मजहबी कार्ड को मात दे दी. खुद भाजपा का हिंदुत्व का एजेंडा पीछे किसी कोने में चला गया. नोटबंदी का मुद्दा अमीर-गरीब का नया वर्ग पैदा करने वाला साबित हुआ और मोदी ने अपने संबोधनों में लगातार गरीबों की बात की. पार्टी का चुनावी नारा ''न गुंडाराज, न भ्रष्टाचार" का स्टिकर 10,000 वाहनों के पीछे चिपकाया गया था.
इसके जरिए भाजपा ने सपा और बसपा, दोनों पर एक साथ हमला बोला था. पार्टी के घोषणापत्र में अपराध और भ्रष्टाचार को समाप्त करने का संकल्प लिया गया, एंटी-रोमियो दस्ता बनाने की बात की गई, किसानों की कर्ज माफी का वादा किया गया, हर जिले में ऐंटी-माफिया स्क्वाड बनाने का वादा किया गया और पैरोल पर बाहर घूम रहे अपराधियों को जेल में डालने की बात भी लिखी गई थी.
मोदी को एक ऐसे मसीहा के रूप में दिखाया गया जो भ्रष्टाचार और काले धन के खिलाफ अभियान की अगुआई कर रहा था. एक ऐसा गरीब-हितैषी प्रधानमंत्री जिसने उज्ज्वला योजना के तहत गरीबों को रसोई गैस दी और जनधन योजना के तहत बैंकों में खाते खुलवाए और शिल्पकारों व छोटे उद्यमियों के लिए सस्ते कर्ज की व्यवस्था की. उज्ज्वला तो मोदी की मनरेगा जैसी योजना बन गई. बीजेपी का चुनाव प्रचार इसलिए मतदाताओं को छू गया क्योंकि उसकी योजनाओं के क्रियान्वयन का रिकॉर्ड अखिलेश यादव की योजनाओं के मुकाबले बेहतर था. मसलन, गरीब औरतों को एलपीजी कनेक्शन दिए जाने संबंधी राष्ट्रव्यापी प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना का 60 फीसदी हिस्सा यूपी में मंजूर किया गया, जिसकी शुरुआत यूपी के पूर्वांचल क्षेत्र बलिया से की गई. कुल 52 लाख गरीबों को सूबे में रसोई गैस कनेक्शन सहजता से मिल गए.
मौर्य कहते हैं, ''नोटबंदी ने बीजेपी के पक्ष में सतह के नीचे चल रहे समर्थन को लहर में तब्दील कर दिया. इसने पीएम मोदी को गरीबों के दिलों में बसा दिया कि वे ही एक ऐसे शख्स हैं जो भ्रष्टाचारियों से लड़ सकते हैं." अर्थशास्त्री और राजनैतिक विश्लेषक सुरजीत भल्ला इस पर अलग राय रखते हैं, ''केवल जुमलेबाजी से वोट नहीं मिलते, न ही नकारात्मक प्रचार से. मोदी के कुछ कार्यक्रमों से उम्मीद जगी थी जो तमाम शासकों के किए सुशासन के खोखले वादों से उलट रही."
पार्टी ने अपना प्रचार अभियान ब्रांड मोदी के इर्द-गिर्द गढ़ा और मोदी ने 23 रैलियां कीं, जबकि आखिरी दो चरणों के चुनाव के वक्त वे तीन दिन तक अपने संसदीय क्षेत्र वाराणसी में डेरा डालकर बैठ गए. मुख्य रणनीतिकार शाह लगातार मोदी के संपर्क में बने रहे और विभिन्न नेताओं द्वारा जनसभाओं में मिल रही प्रतिक्रियाओं से उन्हें अवगत कराते रहे. प्रचार के आखिरी दौर में दोनों ने पार्टी की हालात का दैनिक जायजा लिया और उसी हिसाब से प्रचार के स्वर को बनाए रखा.
संगठन की मजबूती बना मूलमंत्र लोकसभा चुनाव में प्रभारी के तौर पर सूबे की कमान संभाल चुके शाह को संगठन की कमजोरियां बखूबी मालूम थीं. उन्हें एहसास था कि मोदी सरकार की योजनाओं को जमीन तक पहुंचाना है तो पहले संगठन को दुरुस्त करना होगा. राम मंदिर की लहर थमने के बाद पार्टी के ओबीसी नेता सपा और बसपा में चले गए थे. मायावती ने दलितों और अगड़ों का जो गठजोड़ बनाया था, उसने बीजेपी के सवर्ण आधार में भी सेंध लगा ली थी. पार्टी की मुख्य रणनीति ने जनवरी 2016 में आकार लिया, जब अमित शाह ने चुनाव के सिलसिले में यूपी को छह क्षेत्रों में बांट दिया—पश्चिमी यूपी, ब्रज, अवध, कानपुर-बुंदेलखंड, गोरखपुर और काशी.
जनवरी की बैठक में ही उन्होंने 40 बिंदुओं का एक एजेंडा प्रदेश के संगठन महासचिव सुनील बंसल को सौंपा और चुनाव तक इसे अलग-अलग भागों में बांटकर अमल करने का निर्देश दिया. शाह ने एक ही मंत्र दिया, ''बूथ जीता, चुनाव जीता." इस मंत्र के आधार पर बूथ कमेटियों का गठन शुरू हुआ. बीजेपी का बूथ कमेटी मॉडल अब पार्टी की देशव्यापी चुनाव रणनीति में केंद्रीय अहमियत अख्तियार कर चुका है. इसे मोदी ने 1990 के दशक में गुजरात में विकसित किया था. गुजरात में बीजेपी के संगठन सचिव के तौर पर मोदी ने देखा कि कांग्रेस की सबसे कमजोर कड़ी उसका बदहाल बूथ प्रबंधन थी. मोदी ने इस काम के लिए बीजेपी के जमीनी कार्यकर्ताओं को जोड़ा, जिनमें से ज्यादातर आरएसएस से लिए गए थे. 2002 में जब शाह ने गुजरात में मोदी के सिपहसालार की जिम्मेदारी संभाली, तब उन्होंने इस खास मॉडल को और विकसित किया.
शाह के निर्देश पर यूपी के संगठन महासचिव सुनील बंसल और पार्टी के उत्तर प्रदेश प्रभारी ओम प्रकाश माथुर ने साथ सलाह-मशविरा करके 1,47,401 बूथों में से 1,28,000 पर बूथ कमेटी गठित कर दी. जबकि मुस्लिम बहुल इलाके में करीब 10 फीसदी बूथों तक पार्टी अभी भी नहीं पहुंच पाई है. लोकसभा चुनाव तक पार्टी महज 34,000 बूथ तक ही पहुंच रखती थी. लेकिन नई गठित कमेटियों में सामाजिक समीकरण का खास ध्यान रखा गया. सभी बड़ी जातियों की नुमांइदगी के साथ-साथ हरेक में कम से कम पांच महिलाओं का होना अनिवार्य था.
जून में बूथ कमेटियों को संगठित करने के बाद पार्टी ने 10-15 बूथों की देखरेख के लिए सेक्टर स्तर की पार्टी कमेटियां गठित कीं (ब्लॉक कमेटियों ने 100 से ज्यादा बूथों की देखरेख की). बूथों पर ही बीजेपी ने 13.50 लाख कार्यकर्ताओं की फौज खड़ी कर ली जिसका नाम, पता, नंबर समेत पूरा डाटा प्रदेश कार्यालय में मौजूद था. जिला स्तर के संगठन के लिए बीजेपी ने 2015 में राज्य को 91 पार्टी जिलों में बांटा था. इन जिला निकायों के अध्यक्ष के पद भी जल्दी ही भर दिए गए थे. बूथ कमेटियों ने 2015 में एक और बिल्कुल सटीक धावा बोला, जिसमें माथुर और बंसल ने अहम भूमिका अदा की. पार्टी ने 2015 के जिला पंचायत चुनाव लड़े.
पार्टी के चुनाव चिन्ह पर पंचायत चुनाव नहीं होते लेकिन इसके पीछे सोच थी—गांवों में पार्टी का झंडा-बैनर लेकर लोग निकलेंगे तो उसे भाजपा से जुडऩे का एहसास होगा. यह रणनीति सटीक बैठी और पार्टी ने 3,121 में से 562 सीटें जीतीं. जमीनी स्तर पर पार्टी मशीनरी की बुरी हालत को देखते हुए यह औसत से बेहतर प्रदर्शन ही था. अलबत्ता इन चुनावों ने जो किया, वह यह कि पार्टी के लिए जमीनी स्तर का नेतृत्व खड़ा कर दिया. फिर शाह ने पार्टी के इतिहास में पहली बार बूथ समितियों की क्षेत्रीय बैठकें आयोजित की. इन बैठकों में उन्होंने सदस्यों को बताया कि मतदाताओं का दिल किस तरह जीतना है और मतदान के दिन आने वाली संगठनात्मक चुनौतियों को कैसे संभालना है. क्षेत्रवार बूथ बैठकों के बाद विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों में भी ऐसी ही बैठकें आयोजित की गईं. नवंबर आते-आते पार्टी मशीनरी नई ऊर्जा से भर चुकी थी. जल्दी ही महिला बैठकें, युवा बैठकें, ओबीसी बैठकें और अनुसूचित जाति सम्मेलन सरीखे विभिन्न कार्यक्रम एक के बाद एक तेजी से आयोजित किए गए.
पिछड़े वोटों की लामबंदी पर जोर बिहार की चुनावी हार का जख्म सहला रही बीजेपी ने यूपी में सामाजिक आधार को तवज्जो दी. शाह ने अप्रैल में वीएचपी के पूर्व नेता और फूलपुर से सांसद केशव प्रसाद मौर्य को राज्य पार्टी अध्यक्ष के तौर पर नियुक्त कर बड़ा मास्टर स्ट्रोक लगाया. मौर्य की खूबी यह है कि उनकी छवि कट्टर हिंदुवादी नेता की है और वे साथ-साथ ओबीसी समाज में प्रभाव वाली जाति के हैं. पूर्वांचल में कमजोर रही पार्टी को मजबूती देने का भी यह उम्दा दांव था. नवंबर में पार्टी ने तकरीबन 200 ओबीसी सभाएं आयोजित कीं जिनमें से हरेक में दो निर्वाचन क्षेत्र शामिल थे. जिला स्तरीय युवा बैठकों की जिम्मेदारी बीजेपी युवा मोर्चा ने संभाली, तो सभी जिलों में महिला सभाएं करने का काम बीजेपी महिला मोर्चे ने किया.
दलित स्वाभिमान कार्यक्रम भी आयोजित किए गए. इनका असर इस हकीकत में दिखाई दिया कि पार्टी ने दलितों के लिए आरक्षित कुल 83 सीटों में से 72 सीटें जीतीं. बंसल कहते हैं, ''जब अखिलेश और शिवपाल यादव की लड़ाई चल रही थी, हम अपनी रणनीति को कारगर बना रहे थे. हमारी पार्टी बैठकों में 90 फीसदी लोगों ने हिस्सा लिया और इनमें कार्यकर्ताओं और नेताओं के बीच लगभग मुकम्मल रिश्ता कायम हुआ. आज हमारा नेटवर्क इतना मजबूत है कि कोई भी निर्देश एक घंटे के अंदर बूथ तक पहुंचाया जा सकता है."
शाह ने बीएसपी, एसपी और कांग्रेस के अहम ओबीसी नेताओं के दलबदल को भी अंजाम दिया. यह अक्तूबर में शुरू हुआ जब उत्तर प्रदेश विधानसभा में बसपा के नेता स्वामी प्रसाद मौर्य भाजपा में शामिल हुए. उसके बाद बसपा से आने वालों में बृजेश पाठक अगले थे, जिन्होंने ब्राह्मणों को दलितों और ओबीसी से जोडऩे के लिए बनाई गई मायावती की भाईचारा समितियों की अगुआई की थी. इसके बाद तो इन तीनों पार्टियों से दलबदल की झड़ी ही लग गई. मौजूदा विधायकों सहित अलग-अलग कद और हैसियत के 80 से ज्यादा नेता बीजेपी में शामिल हुए और उसके जाति आधार को पुख्ता किया. सबसे आखिर में शामिल होने वालों में एसपी से राजा महेंद्र अरिदमन सिंह और कांग्रेस से रीता बहुगुणा जोशी थीं, जिन्होंने जनवरी 2016 में पाला बदला.
सामाजिक समीकरण का गुलदस्ता बीजेपी के बदले सामाजिक समीकरण का अंदाजा एक वाकये से लगाया जा सकता है. संगठन महासचिव बनने के बाद बंसल पार्टी के एक कार्यक्रम में गए थे. उसी कार्यक्रम में वे छह महीने बाद फिर गए. दोनों समारोह की दो तस्वीरें एक कार्यकर्ता ने फेसबुक पर डालीं और लिखा—बदलती भाजपा. बंसल इसका मतलब नहीं समझ पाए. उन्होंने उस कार्यकर्ता को फोन किया तो जवाब सुनकर वे भी आश्चर्यचकित रह गए. उस कार्यकर्ता ने बताया कि पहले वाली फोटो में मंच पर मौजूद चेहरों में ज्यादातर ऊंची जातियों के हैं, जबकि दूसरी में ओबीसी-दलित चेहरों की संख्या बराबर थी. कार्यकर्ता ने कहा कि यही बदलाव है.
दरअसल, बंसल ने भाजपा के शहरी और सवर्ण वादी पार्टी होने के मिथक को तोडऩे की अहम पहल की. उन्होंने शाह से संगठन में पदाधिकारियों की संख्या बढ़ाने की सहमति ली और प्रदेश से लेकर जिले तक 1,000 दलित-पिछड़ों को पदाधिकारी बनाया. इससे अचानक बीजेपी का स्वरूप ही बदल गया. हर जिले में 10 दलित-पिछड़े चेहरों को पदाधिकारी बनाना अनिवार्य कर दिया गया. बंसल कहते हैं, ''प्रतिनिधित्व मिलने से भाजपा मेरा संगठन है का एहसास लोगों में बढ़ा." बीजेपी ने चुनावी दृष्टिकोण से जातियों के उस समूह को बाहर ही रखा जिसे सपा-बसपा अपना मानकर रणनीति बनाती हैं. इनमें 20 फीसदी मुसलमान, 10 फीसदी यादव, 10 फीसदी जाटव शामिल हैं.
वे यह पहले से ही मानकर चल रहे थे कि हरेक निर्वाचन क्षेत्र में वोटों का एक निश्चित प्रतिशत—मुस्लिम, यादव और जाटव—वे गंवा चुके हैं. उन्होंने बाकी जातियों को एकजुट और मजबूत करने पर काम किया. टिकटों के बंटवारे में पार्टी ने पहले उम्मीदवारों के पैनल कई स्तर के फीडबैक पर तैयार किए. लेकिन टिकटों का बंटवारा विशुद्ध रूप से जातिगत समीकरण के आधार पर हुआ.
पार्टी ने विधानसभावार तीन बड़ी जातियां और फिर जिलावार तीन बड़ी जातियों को छांटा. इसके बाद जिले में किस-किस जाति को टिकट देना है, यह तय करके पैनल में से उम्मीदवार तय किए गए. बीजेपी ने हर जिले में ब्राह्मण-ठाकुर, ओबीसी, दलित का समीकरण बनाया. बीजेपी ने कुल 123 पिछड़ों को टिकट दिया जिसमें महज 8 यादव थे. दलितों में सुरक्षित सीट पर बीजेपी ने 85 में से 20 पर जाटव और बाकी सीटों पर गैर जाटव चेहरे उतार दलित वोट बैंक को दरका दिया. बीजेपी ने यह संदेश देने की कोशिश की कि सपा-बसपा का खेल यादववाद-मुस्लिमवाद-जाटववाद तक ही सीमित रहता है, जबकि बीजेपी बाकियों का ध्यान रख रही है.
मौर्य और कुर्मी सरीखी ज्यादा बड़ी जातियों को जहां टिकटों के बंटवारे में खासी नुमाइंदगी दी गई, वहीं विश्वकर्मा, बेलदार, गौड़, बघेल और अरिहवार सरीखी बनिस्बतन छोटी जातियों को भी उनका हिस्सा मिला. इस रणनीति ने उत्तर प्रदेश विधानसभा में यादवों को तकरीबन हाशिये पर धकेल देने में जबरदस्त भूमिका अदा की. इस बार केवल 18 यादव चुने गए, जिसमें से छह बीजेपी से चुनकर आए हैं.
मुख्य प्रचारकों की साफ-साफ भूमिकाएं मुकर्रर की गईं. मोदी, शाह, मौर्य, योगी आदित्यनाथ, केंद्रीय मंत्री राजनाथ सिंह और उमा भारती मुख्य प्रचारक थे. दोनों पूर्व मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह और भारती को राजपूत और लोध वोट जुटाने की सलाह के साथ लाया गया. साथ ही उन्होंने निगहबान की भूमिका भी निभाई और रणनीति में भी योगदान दिया. मौर्य गैर-यादव ओबीसी वोटों के लिए बीजेपी का चेहरा थे, जबकि आदित्यनाथ हिंदुत्व के प्रतीक थे. बीजेपी के प्रदेश महासचिव स्वतंत्र देव सिंह, केंद्रीय वित्त राज्यमंत्री संतोष गंगवार के साथ एनडीए की घटक और अपना दल की नेता अनुप्रिया पटेल ने कुर्मी वोटों पर ध्यान जमाया.
बिहार से लिया सबक2015 की बिहार की चुनावी हार, खासकर आरजेडी-जेडी (यू) का चोट पहुंचाने वाला ''बिहारी बनाम बाहरी" का नारा उत्तर प्रदेश की योजना बनाते वक्त पार्टी नेतृत्व के सिर पर तलवार की तरह लटक रहा था. इसीलिए बिहार के उलट, जहां उसने सुशील मोदी सरीखे स्थानीय नेताओं को दरकिनार कर दिया था, उत्तर प्रदेश में पार्टी ने बाहरियों को जगह नहीं दी. एक नेता कहते हैं, ''बाहर से आए लोग गंभीरता से संगठन का काम नहीं करते." इसलिए पार्टी ने सिर्फ 35 वरिष्ठ केंद्रीय नेताओं को निगरानी का जिम्मा सौंपा था. जबकि प्रचार में केंद्रीय नेताओं के बाद 189 राज्य के नेता छांटे गए थे जिन्हें तहसीलों-गांवों में नुक्कड़ सभा करने में लगाया गया था. सांसदों को भी जिम्मेदारी देते हुए पार्टी ने यह भी तय कर दिया था कि हर सांसद को कम से कम तीन सीटें जिताकर लानी है. पोस्टरों पर मोदी-शाह के बराबर राजनाथ, उमा भारती, कलराज मिश्र और केशव मौर्य को जगह दी गई थी.
शाह और उनके सिपाहसालारों ने एक भी चीज किस्मत के भरोसे नहीं छोड़ी. विशेष समितियों ने चुनाव आचार संहिता के उल्लंघनों की निगरानी की. समिति ने पूरी 100 शिकायतें दर्ज करवाईं, जिनमें से ज्यादातर एसपी के खिलाफ थीं. मिसाल के लिए, राज्य सरकार को सरकारी एंबुलेंस सेवा से ''समाजवादी" शब्द हटाने को मजबूर किया गया. शाह के दाहिने हाथ बंसल ने कार्यक्रम समन्वय, चुनाव प्रबंधन, प्रचार, मीडिया और सोशल मीडिया सरीखी तकरीबन दर्जन भर समितियों का काम विकेंद्रित कर दिया. मिसाल के लिए, दौरों का काम देख रही समिति ने सात चरणों के पूरे चुनाव में बीजेपी के चुनाव प्रचारकों की सभाएं रणनीतिक ढंग से तय कीं.
प्रधानमंत्री की 23 में से बड़ी तादाद में जनसभाएं गोरखपुर और आगरा सरीखे बड़े शहरों में नहीं बल्कि मिर्जापुर, देवरिया, मऊ और गोंडा सरीखे जिला मुख्यालयों पर आयोजित की गईं, ताकि ग्रामीण मतदातों और किसानों को खींचा जा सके. शाह ने युवा और उभरते हुए पार्टी नेताओं को ताकतवर बनाने पर ध्यान दिया. पार्टी के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ जब राज्य के कोने-कोने में मोदी के विकास के संदेश को पहुंचाने के लिए आयोजित चार परिवर्तन यात्राओं के दौरान इन नेताओं ने विशाल जनसभाओं को संबोधित किया.
माथुर, बंसल और पार्टी महासचिव शिवप्रकाश ने नेपथ्य में रणनीति तय करने का काम किया, तो स्टार प्रचारक मोदी और शाह ने चुनावी मुद्दों को हवा दी. मोदी ने राष्ट्रीय मुद्दों पर ध्यान केंद्रित किया और जनाकांक्षा का कार्ड खेला. भगवा जमात की कोशिशों ने एक ऐसे चुनावी फैसले को अंजाम दिया जिसके असर की पड़ताल आने वाले कई सालों तक की जाएगी.