Advertisement

आखिर क्यों बढ़ गया है गांवों में गुलदारों का हमला

उत्तराखंड में मौत का सबब बन चुके गुलदारों को मार गिराने से खतरा टला नहीं है, क्योंकि तेंदुए अब मेहमान नहीं, इनसानी बस्तियों के स्थायी बाशिंदे बन गए हैं.

aajtak.in
  • नई दिल्ली,
  • 14 अक्टूबर 2014,
  • अपडेटेड 3:29 PM IST

उत्तराखंड का पुराना मर्ज एक बार फिर उभर आया है. पहाड़ों की शान समझे जाने वाले गुलदार (तेंदुए की एक प्रजाति) गांवों का रुख कर रहे हैं. इस बार उनकी मंजिल बकरियां और पहाड़ी कुत्ते नहीं हैं. वे तो बेहद आसान और सुस्त शिकार यानी इनसान की गर्दन पर किसी भी वक्त दांत गड़ाने की फिराक में हैं. इसीलिए तो पिथौरागढ़ जिले के डीडीहाट इलाके में 6 अक्तूबर को जब शिकारी लखपत रावत की बंदूक चली और नरभक्षी गुलदार की छाती छलनी हो गई, तो लोग शिकारी के जयकारे लगाने लगे.

इससे ठीक दो दिन पहले मशहूर शिकारी जॉय हुकिल ने रावत के साथ मिलकर इस गुलदार की जोड़ीदार मादा को ठिकाने लगाया था. 28 सितंबर को पड़ोसी जिले पौड़ी गढ़वाल में एक अन्य नरभक्षी गुलदार को मारने के बाद हुकिल अगले शिकार के लिए पिथौरागढ़ पहुंचे थे. आखिर जाते क्यों नहीं, इन दोनों जिलो में ये नरभक्षी गुलदार 15-15 से ज्यादा लोगों को अपना निशाना बना चुके थे. जानवर और इनसान का संघर्ष उत्तराखंड के घने जंगलों से उतरकर गांवों में चला आया है.

अगर गैर आधिकारिक आंकड़ों पर गौर करें तो उत्तराखंड में 2000 से 2014 के बीच करीब 400 लोग गुलदार या किसी दूसरे जंगली जानवर के हमले में मारे गए. वहीं घायलों का आंकड़ा एक हजार के पार है. उत्तराखंड ही क्या, देश के अलग-अलग इलाकों में तेंदुए और इनसान का संघर्ष बढ़ रहा है. अभी ज्यादा दिन नहीं हुए जब उत्तर प्रदेश के मेरठ शहर में इसलिए अघोषित कफ्र्यू जैसे हालात पैदा हो गए थे, क्योंकि एक तेंदुआ शहर में घूमने लगा और पूरी पुलिस फोर्स उसके पीछे हो ली.

वह दुकानों में घुसा, बैंक एटीएम के सीसीटीवी कैमरे में कैद हुआ, जिला अस्पताल के इमरजेंसी वार्ड में घूमा और फिर अस्पताल की जाली तोड़कर ओझल हो गया. मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में कलियासोत बांध के पास के इलाकों में तेंदुए अक्सर चहलकदमी करते दिख जाते हैं. और देश की औद्योगिक राजधानी मुंबई तो जैसे तेंदुए और इनसान के शहरी संघर्ष की सबसे बड़ी हल्दीघाटी बन गई है. महाराष्ट्र के कई शहर इस संकट से जूझ रहे हैं. इस संघर्ष में देश भर में 2011 में 358, 2012 में 331 और 2013 में 327 तेंदुए बेमौत मारे गए. आंकड़ों का यह दूसरा पहलू इसलिए आपकी नजर है ताकि पता चले कि यहां पीड़ित पक्ष की पहचान करना कठिन है.

उत्तराखंड में आफत
लेकिन जिसके सिर पर तेंदुए की आफत टूटती है, उसके जख्मों को आंकड़ों का यह संतुलन भर नहीं सकता. 28 सितंबर के दिन को याद करते हुए पौड़ी गढ़वाल के मलेथा गांव की 14 वर्षीया रीना कहती हैं, “12-14 औरतों के साथ मैं और मेरी मां महेश्वरी देवी घास काट रहे थे. अचानक गुलदार ने मां पर हमला कर दिया. हल्ला किया तो गुलदार भाग गया, लेकिन मां की गर्दन में गड़ चुके उसके दांत जानलेवा साबित हुए.” यह मादा गुलदार इससे पहले 22 सितंबर को भी गांव में 36 वर्षीया गुड्डी देवी की हत्या कर चुकी थी.

तब लोगों ने देखा था कि मादा अकेली नहीं है, बल्कि उसके दो शावक भी हैं. 1,700 मीटर की ऊंचाई पर चीड़, बांज और बुरांस के पेड़ों से घिरे गांव के लोग 60 किमी दूर जिला मुख्यालय पौड़ी में जिलाधिकारी का घेराव करने पहुंच गए. लोगों ने मांग रख दी कि गांव को जीरो लेपर्ड जोन घोषित किया जाए. जीरो लेपर्ड जोन यानी गांव में एक भी तेंदुआ न हो. हालांकि सरकारी आदेश में लिखा गया, “केवल नरभक्षी गुलदार ही मारा जाए.”

(ग्रामीण युवकों के साथ शिकारी जॉय हुकिल)

यही आदेश 28 सितंबर को गुलदार के दूसरे हमले के बाद काम आया. शिकारी हुकिल ने आनन-फानन में गुलदार के शिकार वाली जगह पर मचान लगाया. उन्हें भरोसा था कि अपना अधूरा शिकार ढूंढने मादा गुलदार जरूर वापस आएगी. वे घंटों दम साधे बैठे रहे. दिन ढल गया. शिकारी और चैकन्ना हो गया. उसे पता था कि प्राकृतिक शिकारी दिन ढले एक चक्कर लगाने जरूर आएगा. पौने सात बजे गुलदार आई और हुकिल ने सही निशाना लगा दिया. मादा गुलदार ढेर हो गई.

लेकिन लोगों को डर है कि अभी और भी नरभक्षी गुलदार हो सकते हैं. इसलिए जिलाधिकारी चंद्रशेखर भट्ट ने भरोसा दिलाया, “जब तक स्थिति सामान्य नहीं हो जाती, फॉरेस्ट रेंजर और वन विभाग की टीम गांव में ही मौजूद रहेगी.” लेकिन इस तरह के वादे पहले भी किए गए हैं. पौड़ी के चार गांव के लोगों ने पिछले लोकसभा चुनाव में मतदान का बहिष्कार तक कर दिया था. ये लोग खंदोड़ा गांव के कक्षा नौ के छात्र विकास धस्माना की गुलदार के हमले में मौत का विरोध कर रहे थे.

लेकिन वन विभाग की जंग लगी बंदूकें अब ऐसे वन रक्षकों के कंधे पर हैं जिन्हें अब तक बंदूक चलाने की ट्रेनिंग ही नहीं मिली है. इस तथ्य पर जिला वन अधिकारी राजमणि पांडे कहते हैं, “ट्रेनिंग नहीं तो क्या हुआ, गुलदार आएगा तो वे बंदूक चला देंगे.” यहां यह बात जान लेने में भी हर्ज नहीं है कि गश्त के समय ये बंदूकें लोड नहीं रहतीं. गांव में किसी दूसरे गुलदार को पकडऩे के लिए तीन पिंजरे जरूर रखे हैं. लेकिन कोई गुलदार इन पिंजरों के करीब नहीं फटक रहा. वक्त के साथ शर्मीला गुलदार भी शातिल हो गया है.

(मारे गए गुलदार के साथ ग्रामीण)
गुलदार को मारा मोबाइल
गुलदार से वही बच पाते हैं जिनकी किस्मत बुलंद होती है. ऐसी ही किस्मत देवप्रयाग विकासखंड के किनखोला गांव के 19 वर्षीय दीपक कुमार की थी. दीपक वाकया सुनाते हैं, “मैं गांव के पास टिमरी तोक के जंगलों में बकरी चराने गया था. अचानक गुलदार ने हमला कर दिया. मुझे कुछ समझ नहीं आया और मैंने अपना मोबाइल फेंककर गुलदार को मार दिया. शायद इससे गुलदार का ध्यान बंट गया और मैं शोर मचाते हुए भाग गया. हालांकि गुलदार ने दो बकरियां मार दीं, लेकिन जान तो बच गई.”

इसी तरह 24 अगस्त को रेंसोली गांव का 12 साल का अभिषेक भी गुलदार के झपट्टे से बच निकला था. घटना से उसके माता-पिता इतने डर गए कि बच्चे को स्थायी रूप से उसकी ननिहाल भेज दिया. अभिषेक की मां सुनीता देवी गहरी सांस लेती हैं, “हम किस्मत का बार-बार इम्तिहान नहीं ले सकते. बच्चा सुरक्षित रहे, पढ़-लिख तो बाद में भी जाएगा.”

इसी तरह आपको हौसले की वे कहानियां भी मिल जाएंगी जहां कोई महिला अपनी दरांती से गुलदार को मार गिरा देती है. लेकिन कहानियां जहां भी सुनने को मिलेंगी, उसमें संयोग और हौसला होगा, प्रशासन की ओर से दी गई ट्रेनिंग या कोई सुनियोजित पहल नहीं होगी. और गुलदार जिस कदर लोगों की जिंदगी के करीब आ गए हैं, उसमें लोगों को नए किस्म से जिंदगी जीने के तरीके भी सीखने होंगे.

बदल रहा है तेंदुओं का मिजाज
हौसला बढ़ाने वाले इन वाकयों के बावजूद यह सवाल अपनी जगह बना हुआ है कि तेंदुए के हमले आखिर बढ़ क्यों रहे हैं. इस बाबत पहली राय देखिए शिकारी हुकिल की जो सात साल से उत्तराखंड में तेंदुए मार रहे हैं. वे कहते हैं, “मैंने जो 15 गुलदार मारे हैं उनमें से आधे पूरी तरह स्वस्थ थे और उनके नरभक्षी होने की कोई अतिरिक्त वजह नहीं थी.”

फिर वे याद दिलाते हैं कि उत्तराखंड के गांवों में बड़े पैमाने पर पलायन हुआ है और खेती-बाड़ी भी कम हो गई है. ऐसे में तेंदुए जंगल में न रहकर गांवों के आसपास ही बस गए हैं. 80 फीसदी गुलदार भोजन के लिए मवेशियों पर निर्भर हैं. यानी आदमी ने अगर तेंदुओं का प्राकृतिक आवास बदल दिया है तो तेंदुओं ने भी नए आवास के हिसाब से खुद को ढाल लिया है. वैसे भी बिल्ली प्रजाति के जंतुओं में तेंदुए को सबसे बड़ा छलावा माना जाता है.

गुलदार/तेंदुओं के इस बदले स्वभाव पर वाइल्ड लाइफ सोसाइटी, इंडिया से जुड़ी पर्यावरणविद् विद्या अथरेया के नेतृत्व में 2013 में महाराष्ट्र में एक विस्तृत सर्वेक्षण किया गया. अहमदनगर जिले की अकोले तहसील में किए गए इस सर्वेक्षण में 179 वर्ग किमी के इलाके में 40 कैमरे फिट किए गए. इन कैमरों ने एक महीने के भीतर तेंदुओं की 81 उपस्थिति दर्ज कीं. इससे पता चला कि इलाके में पांच नर और छह मादा तेंदुआ स्थायी रूप से रह रहे हैं.

घनी आबादी वाली अकोले तहसील में तेंदुओं का जनसंख्या घनत्व राजाजी नेशनल पार्क में तेंदुओं के घनत्व से ज्यादा पाया गया. खास बात यह है कि अध्ययन वाले इलाके में तेंदुओं ने एक भी इनसान पर हमला नहीं किया. अध्ययन में बताया गया कि हमारी जानकारी के बाहर तेंदुए गांवों के आसपास और गन्ने के खेतों में स्थायी रूप से अपना घर बना चुके हैं.

वे यहां के जीवन के अभ्यस्त हो चुके हैं. अध्ययन में आइडीकॉलर लगे एक तेंदुए का बड़ा दिलचस्प व्यवहार सामने आया. अथरेया ने बताया, “यह तेंदुआ रोज रात को एक घर के पास आता था और कुछ देर रुकने के बाद चला जाता था. हालांकि घर वालों को यह कभी पता नहीं चला कि कोई तेंदुआ उनके घर के इतने करीब रहता है.”

 यह शातिर विडाल इतने आहिस्ते से इनसानी दुनिया में भले ही घुल-मिल गया हो, लेकिन सरकारें और आम आदमी अब भी इसके बारे में बहुत सजग नहीं हैं. हाल यह है कि बाघों के संरक्षण के नाम पर करोड़ों रु. खर्च करने वाली सरकारों ने आज तक तेंदुओं की आबादी की गणना नहीं कराई है. वाइल्ड लाइफ प्रोटेक्शन सोसाइटी ऑफ इंडिया के मुताबिक देश में तेंदुओं की आबादी 7,000 से 10,000 के बीच है.

बेर-केर का संग
वाइल्ड लाइफ कंजर्वेशन सोसाइटी, इंडिया के सीनियर डायरेक्टर डॉ. अशरफ इन नए तथ्यों की रोशनी में कहते हैं, “जो बात महाराष्ट्र में साबित हो चुकी है, वह उत्तराखंड के लिए भी सही हो सकती है.” इनसान जब अपने पर्यावास में बदलाव करता है, तो जानवर भी खुद को उसी हिसाब से बदलते हैं. गंगा के मैदानों को जब खेतों में बदला गया तो हिरण और दूसरे शाकाहारी जीव मिट गए, लेकिन नीलगाय ने खुद को इसके हिसाब से ढाल लिया. इसी तरह बड़ी बिल्लियों में तेंदुए ने बदले हुए पर्यावास में जीना सीख लिया.

वे अब गांवों के पास ही रहते हैं और मवेशी उनका भोजन हैं. ऐसे में इनसानों पर भी हमले हो जाएं तो बहुत आश्चर्य की बात नहीं. तेंदुए के हमले को लेकर वे कहते हैं, “देश में सड़क दुर्घटनाओं में हर साल लाखों लोग मारे जाते हैं, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि लोग हर दुर्घटना के बाद ड्राइवर की हत्या कर दें या गाडिय़ों में आग लगा दें या देश में ट्रैफिक बंद कर दिया जाए.” वे याद दिलाते हैं कि यहां मृत्यु का तुरंत मुआवजा और वाहनों का बीमा जैसी सुविधा है. ऐसे में जानवर के हमले में लोगों की मौत के मामले में भी बीमा और तत्काल समुचित मुआवजे की सुविधा हो. यानी सावधानी के अलावा कोई चारा नहीं है.

ऐसे हालात में उत्तराखंड हो या मुंबई, हमें यह देखना होगा कि इन खूंखार जंगली बिल्लियों को हमने ही अपने बहुत करीब आने के लिए मजबूर किया है. जैसे उन्होंने मनुष्य के दबदबे में जीना सीख लिया है, वैसे ही हमें भी उनके खौफ में रहना सीखना होगा. यह खूबसूरत मौत अदृश्य प्रेत की तरह अब इनसानी बस्तियों का हिस्सा है.

Read more!
Advertisement

RECOMMENDED

Advertisement