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अर्थात्: जीत की हार

सत्ता में आने के बाद मोदी ने अलग तरह के राजनैतिक गवर्नेंस गढ़ने की कोशिश की है जो 2014 की उम्मीदों से मेल नहीं खाती.

अंशुमान तिवारी
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  • 13 नवंबर 2015,
  • अपडेटेड 6:04 PM IST

भा रतीय जनता पार्टी (बीजेपी) ने 2014 के जनादेश की क्या सही व्याख्या की है या इसे इस तरह से भी पूछा जा सकता है कि क्या उन्होंने कोई व्याख्या की भी है या नहीं? बिहार के जनादेश की रोशनी में यह सवाल अटपटा जरूर है लेकिन इसके जवाब में ही बिहार में बीजेपी की जबरदस्त हार का मर्म छिपा है, क्योंकि यदि खुद नरेंद्र मोदी ने 2014 के जनादेश को उसकी चेतना और संभावना में पूरी तरह नहीं समझा तो यह मानने में कोई हर्ज नहीं है कि बीजेपी दिल्ली के जनादेश का संदेश भी नहीं पढ़ पाई और बिहार के संदेश को समझने में भी गफलत ही होगी.

राजनैतिक दल और विश्लेषक चुनाव नतीजों के सबसे बड़े पारंपरिक ग्राहक होते हैं, क्योंकि उनके दैनिक संवादों और रणनीतियों की बुनियाद राजनैतिक संदेशों पर निर्भर होती है. बिहार के नतीजों को भी बीजेपी के कमजोर होने और नीतीश के गैर-बीजेपी राजनीति की धुरी बनने के तौर पर पढ़ा गया है. ठीक इसी तरह 2014 का जनादेश दक्षिणपंथी पार्टी के पहली बार पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आने या प्रेसिडेंशियल चुनाव की तर्ज पर मोदी के प्रचार की सफलता के तौर पर देखा गया था. अलबत्ता 2014 में चुनावी राजनीति की मुख्यधारा में दो नए वर्ग जोश, उत्सुकता और उम्मीद के साथ सक्रिय हुए थे. एक थे ग्लोबल निवेशक और उद्यमी, जिनके लिए भारत एक उभरती हुई अर्थव्यवस्था है और जिन्हें सुधारों के बीस साल बाद भारत में आर्थिक बदलावों की अगली पीढ़ी का इंतजार है. दूसरे हैं, युवा और शिक्षित प्रौढ़ जिनके लिए राजनीति का मतलब दरअसल गवर्नेंस है. इन दो वर्गों के लिए मोदी सरकार का मतलब ठीक वैसा नहीं था जैसा कि इससे पहले होने वाले चुनावों में रहा है.

नरेंद्र मोदी के पक्ष में 2014 के जनादेश के तीन मतलब थे जो शायद इससे पहले कभी किसी भी जनादेश को लेकर इतने स्पष्ट नहीं रहे. सरकार के सोलह माह बीतने और दिल्ली व बिहार के नतीजों के बाद उन मायनों को समझना जरूरी हो गया है जिनके कारण 2014 के एक साल के भीतर ही दो बड़े चुनावों में बीजेपी को दो टूक इनकार झेलना पड़ा है.

पहलाः केंद्रीय राजनीति के फलक से लगभग अनुपस्थित रहे नरेंद्र मोदी इस चुनाव में नेता नहीं बल्कि सीईओ की तरह सामने आए थे. चुनाव के दौरान मोदी मिथकीय हो चले थे. लोग उन्हें दो टूक और बेबाक राजनेता मान रहे थे, जिसे दिल्ली छाप राजनीति की टकसाल में नहीं गढ़ा गया है और जिसे किसी तरह की बेसिर-पैर बातों से नफरत है. अलबत्ता मोदी के सत्ता में आने के कुछ ही माह के भीतर यह दिखने लगा कि उनके साध्वी, योगी, साक्षी कुछ भी बोल सकते हैं, कितनी भी घृणा उगल सकते हैं. नरेंद्र मोदी की बेबाक, गंभीर और ताकतवर नेता होने की छवि को सबसे ज्यादा नुक्सान इन बयानबहादुरों ने पहुंचाया और इनके बयानों के बदले मोदी के मौन ने उन्हें  या तो कमजोर नेता साबित किया या फिर साजिश कथाओं को मजबूत किया.

दूसराः बाजार, रोजगार और निवेश के लिए मोदी मुक्त बाजार के मसीहा बनकर उभरे जो उस गुजरात की जमीन से उठा है जहां निजी उद्यमिता की दंत कथाएं हैं. उनसे बड़े निजीकरण, ग्लोबल मुक्त बाजार का नेतृत्व, क्रांतिकारी सुधारों की अपेक्षा थी, क्योंकि भारत के पिछले दो दशक के रोजगार और ग्रोथ निजी निवेश से निकले हैं, सरकारी स्कीमबाजी से नहीं. मोदी सरकार ने पिछले सोलह माह में कांग्रेस की तरह स्कीमों की झड़ी लगा दी, नई सरकारी कंपनियां पैदा कीं और मुक्त बाजार की सभी कोशिशों को चलता कर दिया. मोदी का यह चेहरा एक आर्थिक उदारवादी की उम्मीदों के लिए बिल्कुल नया है.

तीसराः मोदी की जीत भ्रष्टाचार, पुरानी तर्ज की गवर्नेंस और हर तरह की अपारदर्शिता की हार थी. इसलिए ये अपेक्षाएं जायज थीं कि मोदी सार्वजनिक जीवन में पारदर्शिता बहाल करेंगे. वे जटिल सरकारी भ्रष्टाचार और कंपनी-नेता गठजोड़ों के खिलाफ ठीक उसी तरह का अभियान शुरू करेंगे जैसा चीन में शी जिनपिंग कर रहे हैं. चुनाव सुधार, राजनैतिक दलों में पारदर्शिता, विजिलेंस, लोकपाल जैसी तमाम उम्मीदें मोदी की जीत के साथ अंखुआ गईं थीं, क्योंकि मोदी दिल्ली की सियासत के पुराने खिलाड़ी नहीं थे. सोलह माह बाद ये अपेक्षाएं चोटिल पड़ी हैं और सियासत व सरकार हस्बेमामूल उसी ढर्रे पर है.

यदि आप दिल्ली व बिहार में बीजेपी की बदहाली को करीब से देखें तो आपको इन तीन कारणों की छाप मिल जाएगी. इन नतीजों में महज, क्षेत्रीय पार्टियों का स्वीकार नहीं बल्कि उम्मीदों के शिखर पर बैठी मोदी सरकार का इनकार भी इसलिए छिपा है, क्योंकि मोदी ने खुद 2014 के जनादेश को नहीं समझा. जनता उन्हें एक ठोस सुधारक के तौर पर चुनकर लाई थी न कि ऐसे नेता के तौर पर जो राष्ट्रीय गवर्नेंस में बदलाव की अपेक्षाओं को स्थागित करते हुए राज्यों के चुनाव लड़ने निकल पड़े और राज्यों के जनादेशों के लिए अपनी साख को दांव पर लगा दे.

दरअसल, सत्ता में आने के बाद मोदी ने अलग तरह के राजनैतिक गवर्नेंस गढ़ने की कोशिश की है जो 2014 की उम्मीदों के खिलाफ है. विकेंद्रित गवर्नेंस की अपेक्षाओं के बदले मोदी ने ऐसी गवर्नेंस बनाई जो मंत्रियों तक को स्वाधीनता नहीं देती. यह केंद्रीकरण सत्ता से संगठन तक आया और चुनावी राजनीति में ज्यादा मुखर हो गया, जब मोदी और अमित शाह अपनी ही पार्टी में उन राजनैतिक आकांक्षाओं को रौंदने लगे जो बीजेपी की बड़ी जीत के बाद राज्यों में अंखुआ रही थीं. चुनाव के नतीजे बताते हैं कि इन आकांक्षाओं की आह बीजेपी को ले डूबी है.

उम्मीद है कि बीजेपी और मोदी 2014 की तरह बिहार के जनादेश को पढ़ने की गलती नहीं करेंगे जो केंद्रीकृत राजनैतिक गवर्नेंस के खिलाफ है जबकि यह उन सुधारों के हक में है जिनकी उम्मीद 2014 में संजोई गई थी. दिल्ली व बिहार हार कर मोदी बड़ी राजनैतिक पूंजी गंवा चुके हैं. अब उन्हें गवर्नेंस और आर्थिक पूंजी पर ध्यान देना होगा. उनकी राजनैतिक वापसी का रास्ता साहसी और सुधारक गवर्नेंस के उसी दरवाजे से निकलेगा जहां से मोदी ने केंद्रीय राजनीति के मंच पर कदम रखा था.

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