
बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि स्वामित्व के मुकदमे के फैसले का वक्त करीब आ गया है. इसकी निर्णायक सुनवाई के लिए 40 दिनों की अदालती कार्यवाही में विवादों की वजह से रुकावटें पैदा होती रहीं. बिल्कुल आखिरी दिन सुप्रीम कोर्ट के इर्द-गिर्द अफवाह फैल गई कि सुन्नी वक्फ बोर्ड जमीन पर दावा छोड़ रहा है. इससे पहले बोर्ड ने वकील के जरिए अपने दावे के पक्ष में जोरदार दलीलें दी थीं. अचानक इस ऐलान से भौंहें तन गईं, क्योंकि यह वक्फ बोर्ड अध्यक्ष के खिलाफ तीन एफआइआर के बाद आया था.
शुरुआती रिपोर्टों से पता चला कि यह कदम एकतरफा और बिना शर्त उठाया गया था. अब यह साफ हो गया है कि यह प्रस्ताव सुप्रीम कोर्ट की नियुक्त की गई मध्यस्थता प्रक्रिया के तहत तैयार किया गया था. इस प्रस्ताव को कुछ निश्चित शर्तों के साथ उत्तर प्रदेश सुन्नी वक्फ बोर्ड के अलावा हिंदू महासभा, अखिल भारतीय श्री राम जन्मभूमि पुनरुद्धार समिति और निर्मोही अखाड़े का (आधिकारिक) समर्थन हासिल था. कोई भी मुस्लिम पक्ष इस पहल का हिस्सा नहीं था.
असल में, अपुष्ट रिपोर्टें तो ये भी हैं कि वक्फ बोर्ड भी इस प्रस्ताव को लेकर बंट गया है. वीएचपी के नियंत्रण में काम कर रहे राम जन्मभूमि न्यास और भगवान राम के शिशु रूप 'रामलला' के प्रतिनिधियों से भी सलाह नहीं ली गई. अन्य मुस्लिम संगठनों के वकीलों ने इस प्रस्ताव को खारिज करने में जरा वक्त नहीं लिया. अलबत्ता मंदिर आंदोलन के किस्म-किस्म के समर्थक राम मंदिर के निर्माण के हक में मुसलमानों के समर्थन का ऐलान करते हुए निकल पड़े.
संक्षेप में वही कहानी
इस विवाद के मूल में अयोध्या के बिल्कुल भीतर स्थित 0.313 एकड़ जमीन का एक टुकड़ा है, जिसे आसानी से आज भारत में रियल एस्टेट का सबसे विवादित टुकड़ा कहा जा सकता है. हिंदू इसे राम का जन्मस्थान मानते हैं. माना जाता है कि करीब 500 साल पहले (1528 में) मुगल बादशाह बाबर के सेनापति मीर बाकी ने राम मंदिर को तोड़कर मस्जिद बनाई थी, जिसे बाबरी मस्जिद कहा जाता है.
दिसंबर 1949 में इस 'जन्मस्थान' पर अचानक राम और सीता की मूर्तियां प्रकट हो गईं. हिंदू दावा करते हैं कि यह एक चमत्कार था और इसे सबूत के तौर पर पेश करते हैं कि यह सचमुच राम का जन्मस्थान था. लेकिन तब अयोध्या के पुलिस थाने में एक एफआइआर दर्ज की गई, जो कहती है कि अनधिकृत घुस आए कुछ लोगों ने उस मस्जिद में मूर्तियां स्थापित कर दीं.
हिंदू महासभा के गोपाल सिंह विशारद ने जनवरी 1950 में वाद मुकदमा दायर किया और बेरोकटोक पूजा-उपासना करने तथा मूर्तियां हटाने के खिलाफ स्थायी आदेश की मांग की. निर्मोही अखाड़े ने 1959 में केस दायर किया और पूरी मस्जिद सौंपने की मांग की. वहीं, सुन्नी वक्फ बोर्ड ने 1961 में केस कर मस्जिद पर अधिकार का दावा किया. ये मुकदमे (और कुछ अन्य) पिछले 50 साल के दौरान अदालतों की भूलभुलैया में चक्कर लगाते रहे.
कई मौकों पर शांतिपूर्ण समझौते की पेशकश की गई. हालांकि दोनों पक्षों ने जोर देकर कहा कि उनके लिए अपने दावों को छोडऩा असंभव है. मुसलमान दलील देते हैं कि शरीयत मस्जिद के लिए समर्पित जमीन के टुकड़े की फितरत बदलने की इजाजत नहीं देती. हिंदू पूरी मजबूती से कहते हैं कि वे भगवान राम के शिशु रूप 'रामलला' की नुमाइंदगी करते हैं और जमीन पर दावा छोडऩे के लिए वे अधिकृत नहीं हैं. पक्षों के अडिग रवैये के बावजूद सुप्रीम कोर्ट ने इस साल शुरुआत में मध्यस्थता का निर्देश दिया. तब अदालत की पीठ ने कहा था, ''हम जख्म भरने की संभावना पर विचार कर रहे हैं.''
मध्यस्थता गोपनीय प्रक्रिया है जिसमें एक तटस्थ तीसरा पक्ष सभी पक्षकारों को एक सर्वमान्य समाधान पर पहुंचने में मदद करता है. अदालत के निर्देश पर मध्यस्थता में हुआ ऐसा समझौता अदालत के आदेश के तौर पर लागू किया जा सकता है. इस मामले में अदालत ने जोर देकर कहा कि ''मध्यस्थता की कार्यवाही और उसमें मध्यस्थों के विचारों सहित किसी भी पक्ष के विचार गोपनीय रखे जाएंगे.''
मध्यस्थता से समाधान की कोशिशें 29 जुलाई को नाकाम हो गईं. सुप्रीम कोर्ट में लंबित अपीलों पर सुनवाई 6 अगस्त को शुरू हुई. 25 सुनवाइयों के बाद निर्मोही अखाड़े और वक्फ बोर्ड ने अदालत से मध्यस्थता दोबारा शुरू करने की इजाजत मांगी. अदालत राजी हो गई. कोर्ट में दलीलें भी साथ-साथ चलती रहीं. वक्फ बोर्ड का प्रस्ताव इन वार्ताओं के बाद आया. मगर यह बहुत परेशान करने वाले कुछ सवाल उठाता है.
अदालत के सामने हिंदू और मुस्लिम पक्षों की नुमाइंदगी दर्जन भर से ज्यादा पक्षकार कर रहे थे. उन सभी के बीच सहमति के बगैर कोई 'समझौता' मुमकिन नहीं था और बातचीत का ताजा दौर सभी पक्षों की सम्मति के बगैर चलाया गया. यही नहीं, प्रस्ताव का लीक होना कोर्ट के गोपनीयता के आदेश का उल्लंघन है. इससे कुछ हासिल नहीं हुआ—खासी कटुता पैदा हुई, सो अलग. अनुमान लगाया जा सकता है कि क्या ये कदम मुस्लिम पक्ष को समझौते के हक में झुकने का इशारा करने की गरज से उठाए गए थे.
आगे क्या?
सुन्नी वक्फ बोर्ड सुप्रीम कोर्ट में पूरे मुस्लिम समुदाय की नुमाइंदगी नहीं करता और जमीन पर दावा छोडऩे का उसका प्रस्ताव पूरे समुदाय के विचारों की नुमाइंदगी नहीं करता. बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि मामला अब तार्किक निष्कर्ष की तरफ बढ़ रहा है—निर्णायक अदालती फैसला 17 नवंबर को मौजूदा प्रधान न्यायाधीश के रिटायर होने से पहले आने की उम्मीद है.
अयोध्या विवाद भारत की सेक्युलर संस्थाओं और धार्मिक संस्कृति के मिलन बिंदु पर स्थित है. न्यायिक फैसला चाहे जिसके पक्ष में जाए, इससे सामाजिक खलबली की आशंका है. तो भी, अब यही अकेला संभव नतीजा है. मंच तैयार है; भारत अपने जनमानस में उथल-पुथल के उस क्षण का इंतजार कर रहा है.
प्रांजल किशोर वकील हैं और दिल्ली में रहते हैं
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