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वीपी सिंह से वाजपेयी तक, अयोध्या पर हर सियासी पहल रही नाकाम

अयोध्या विवाद के समझौते की पहली कोशिश वीपी सिंह के समय में हुई, दोनों पक्षकारों से बातचीत के सिलसिले भी शुरू हो गए. लेकिन सियासत ने ऐसी करवट ली कि जो समझौते का ऑर्डिनेंस लाया जा रहा था उसे वापस ले लिया गया. इसके बाद अयोध्या विवाद के समाधान की दूसरी पहल तत्कालीन प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के दौर में शुरू हुई और ये समाधान के करीब थी. लेकिन दुर्भाग्य था कि उनकी सरकार चली गई. उसके बाद नरसिम्हा राव ने प्रयास किया लेकिन फिर भी अंतिम हल तक नहीं पहुंचा जा सका

अटल बिहारी वाजपेयी, वीपी सिंह, लालकृष्ण आडवाणी अटल बिहारी वाजपेयी, वीपी सिंह, लालकृष्ण आडवाणी
कुबूल अहमद
  • नई दिल्ली,
  • 05 दिसंबर 2017,
  • अपडेटेड 8:48 AM IST

अयोध्या का एक सच ये भी है कि यहां की आब-ओ-हवा सियासत के साथ करवट बदलती है. वो चाहे 30 साल पहले जोर पकड़ता मंदिर निर्माण आंदोलन हो या 25 साल पहले का बाबरी विध्वंस. धर्म की नगरी में सियासत की गूंज हर घटना के साथ अलग सुनाई देती है. पिछले 25 साल में ही अयोध्या को लेकर सुर्खियां इतनी बदल चुकी हैं, कि अब अदालती दांवपेच से बेहतर सुलह समझौता ही लगता है. काश कि कोई फॉर्मूला सियासत ही सुझा देती.

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मस्जिद-मंदिर और हिंदू-मुस्लिम पक्ष

अव्वल तो सहमति होती, तो ये विवाद इतने उलझे हुए मुकाम तक पहुंचता ही नहीं. अगर धर्म और विश्वास के आधार पर ऐसी दावेदारियां न होतीं, तो ऐसा नहीं था कि अयोध्या का विवाद सुलझता नहीं. इसके लिए पहल श्री श्री रविशंकर और मुगल वंशज प्रिंस याकूब के साथ पहली बार नहीं हो रही है, बल्कि बाबरी मस्जिद ढहाए जाने के पहले से ही ऐसी कोशिशें शुरू हुईं. लेकिन नकामयाब रहीं.

पहली कोशिश वीपी सिंह के समय में हुई, दोनों पक्षकारों से बातचीत के सिलसिले भी शुरू हो गए. लेकिन सियासत ने ऐसी करवट ली कि जो समझौते का ऑर्डिनेंस लाया जा रहा था उसे वापस ले लिया गया. इसके बाद अयोध्या विवाद के समाधान की दूसरी पहल तत्कालीन प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के दौर में शुरू हुई और ये समाधान के करीब थी. लेकिन दुर्भाग्य था कि उनकी सरकार चली गई. उसके बाद नरसिम्हा राव ने प्रयास किया लेकिन फिर भी अंतिम हल तक नहीं पहुंचा जा सका. इसके बाद सरकार के स्तर पर दोबारा समझौते के लिए कोई प्रयास नहीं हुआ.

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नरसिम्हा चाहकर भी नहीं रोक पाए बाबरी ध्वंस

बाबरी मस्जिद के ध्वंस और अपने पूरे कार्यकाल पर नरसिम्हा राव ने किताब भी लिखी, जिसके मुताबिक वो चाहते हुए भी इस घटना को रोक नहीं पाए और ये बात उन्हें देर तक कचोटती रही. शायद इसी पश्चाताप में उन्होंने विवाद के निपटारे की पहल भी की, लेकिन तब तक सबकुछ बदल चुका था. धर्म का लिहाज और राजनीति का एजेंडा सबकुछ.

मगर अटल बिहारी वाजयेपी के सत्ता में आने के बाद ये मामला एक बार फिर सुगबुगाने लगा. मामले की गंभीरता को समझते हुए वाजपेयी ने प्रधानमंत्री कार्यालय में अयोध्या विभाग का गठन किया और वरिष्ठ अधिकारी शत्रुघ्न सिंह को दोनों पक्षों से बातचीत के लिए नियुक्त किया.

वाजपेयी सरकार में भी मंदिर को लेकर कोई एजेंडा नहीं

वाजपेयी की अगुवाई में गठबंधन ही सही, बीजेपी की बहुमत वाली पहली सरकार केन्द्र में बनी थी. लेकिन राम मंदिर उसके राजनीतिक एजेंडे पर नहीं था. यहां तक कि 2002 में जब यूपी चुनाव के लिए घोषणा पत्र जारी करने की बात आई, तो बीजेपी ने राम मंदिर के निर्माण को उसमें शामिल करने से इनकार कर दिया.

वाजपेयी की अनदेखी और VHP का नारा

वाजपेयी की अनदेखी से विश्व हिंदू परिषद जैसे संगठनों में सरकार के प्रति नाराजगी बढ़ने लगी.  इसी के बाद वीएचपी ने 15 मार्च से अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण करने की घोषणा कर दी. इसी कारसेवा में हजारों कार्यकर्ता अयोध्या में इकट्ठा हुए. इसी हुजूम से गुजरात लौट रहे कारसेवकों से भरी बोगी गोधरा में जलाई गई. उसके बाद का इतिहास आज भी हिंदुस्तान के दामन पर एक काला धब्बा है.

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अटल बिहारी वाजपेयी ने 2003 में कांची पीठ के शंकराचार्य के जरिए भी अयोध्या विवाद सुलझाने की कोशिश की थी. तब दोनों पक्षों से मिलकर जयेंद्र सरस्वती ने भी भरोसा दिलाया था, मसले का हल महीने भर में निकाल लिया जाएगा, लेकिन ऐसा तब भी कुछ नहीं हुआ.

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