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बेबस भारतीयः केंद्रीकरण की ओर कदम

अधिक केंद्रीकृत शासन व्यवस्था खड़ा करने के भाजपा के प्रयासों ने राज्यों की राजनैतिक और आर्थिक स्वायत्ता को चुनौती दी और क्षेत्रीय एजेंडे को दरकिनार किया.

 केंद्रीकृत शासन व्यवस्था केंद्रीकृत शासन व्यवस्था
aajtak.in
  • नई दिल्ली,
  • 13 नवंबर 2019,
  • अपडेटेड 7:31 PM IST

लुई टिलिन

अपने दूसरे कार्यकाल में मोदी सरकार ने भारत की संघीय व्यवस्था में केंद्रीकरण को गहरा करने के इरादे के संकेत दिए हैं. इस एजेंडे की रूपरेखा पहले कार्यकाल में ही दिखने लगी थी. इसके मुताबिक, केंद्र सरकार की नीतियों के समन्वय, वित्त प्रबंधन और उसके कार्यान्वयन के लिए उन दायरों में भी मजबूत दखल चाहिए, जो संविधान में राज्यों के लिए आरक्षित हैं और उनमें राज्य अग्रणी खिलाड़ी रहे हैं. इसके साथ ही, यह भारत विचार को एक एकल राष्ट्रीय बाजार के रूप में मजबूत करके राज्यों के बीच प्रतिस्पर्धा को बढ़ाने का प्रयास है, जिसमें व्यवसाय, उपभोक्ता और श्रमिक सभी गतिशील हैं. ये 'सहकारी' और 'प्रतिस्पर्धी संघवाद' के केंद्रीय विषय हैं, ‌जिन्हें 2014 में सत्ता में आने के बाद से भाजपा आगे बढ़ा रही है. 

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मोदी सरकार अपने दूसरे कार्यकाल में एक राष्ट्रीय बाजार बनाने और अंतर-राज्य व्यापार (एक देश, एक टैक्स) की बाधाओं को कम करने के प्रयास के साथ श्रम गतिशीलता को प्रोत्साहित कर रही है. उदाहरण के लिए, राशन कार्ड की पोर्टेबिलिटी के माध्यम से एक राष्ट्र, एक राशन कार्ड को भी एक राष्ट्रीय नागरिकता के संकल्प के साथ बढ़ावा दिया गया है. कश्मीर की स्वायत्तता को खत्म करने और हिंदी को राष्ट्रीय भाषा बनाने के मुद्दे को फिर से हवा देने से यह संदेश गया है कि संघवाद के जिस रचनात्मक और लचीले गुणधर्म का उपयोग करते हुए नागरिकता की बहु-स्तरीय

व्यवस्था तैयार की गई थी और जिसने राष्ट्रीय और क्षेत्रीय विविधता को समायोजित किया है, उसे ध्वस्त करने के लिए इसका इस्तेमाल किया जा रहा है.

एक राष्ट्र, एक बाजार का आह्वान कई तरह की नीतियों को साथ लाता है, जैसे कृषि बाजार को एकीकृत करने का इरादा, माल और सेवा कर (जीएसटी) की शुरुआत, राज्यों को अल्पकालिक बिजली आवश्यकताओं की खरीद के लिए एक राष्ट्रीय ग्रिड पर जोर और कई अन्य प्रयास. इन नीतियों में से कई पर काम भाजपा के सत्ता में आने से पहले ही शुरू हो गया था लेकिन राष्ट्रवाद के विचार के तहत इनकी खूब सराहना की जा रही है.

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हाल के महीनों में, सरकार ने एक राष्ट्र, एक राशन कार्ड योजना शुरू करने के लिए अलग से संकल्प जताया है, जिसके तहत लाभार्थी किसी भी सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत राशन की किसी भी दुकान से अपना राशन ले सकेंगे, जिसके वे पात्र हैं. सरकार ने एकल राष्ट्रीय नदी जल विवाद न्यायाधिकरण बनाने के लिए कानून पेश किया है. वह सरकार के गठन के लिए सभी स्तरों पर होने वाले चुनावों की समय सारिणी को सुव्यवस्थित करने के अपने प्रस्ताव (एक राष्ट्र, एक चुनाव) के साथ भी आगे बढऩा चाहेगी. इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर एक साथ होने वाले चुनावों का परिणाम भी एक जैसा ही हो. फिर भी वे राजनैतिक बहस का राष्ट्रीयकरण करने में मदद करेंगे और चुनावों में मतदान के दौरान राज्य-विशिष्ट मुद्दों की बजाए राष्ट्रीय मुद्दों पर लोगों का ध्यान केंद्रित करेंगे.

एक राष्ट्रवाद का विमर्श, जो इस साल के लोकसभा चुनावों के बाद बढ़ गया है, प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी के पहले कार्यकाल में देखे गए राजनैतिक राष्ट्रीयकरण का एक अन्य रूप है. उस कार्यकाल में केंद्र सरकार ने केंद्र प्रायोजित सरकारी योजनाओं को लगातार केंद्र सरकार की संपत्ति के रूप में दर्शाना जारी रखा. इसके अलावा, केंद्र द्वारा आधार और प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण पर जोर देने का परिणाम रहा कि कल्याणकारी लाभ योजनाओं की वितरण एजेंसी के रूप में राज्य सरकारों की बजाए, केंद्र सरकार ही नजर आई. 1989 और 2014 के बीच राजनैतिक क्षेत्रीयकरण के युग में प्रचलित एक तर्क के साथ श्रेय का यह केंद्रीकृत दावा खत्म हो गया. इससे पहले के समय में, राज्य सरकारें केंद्र प्रायोजित योजनाओं के श्रेय में हिस्सेदारी पाने में अधिक सक्षम थीं. केंद्र प्रायोजित योजनाएं केंद्र सरकार द्वारा डिजाइन की जाती थीं लेकिन आमतौर पर राज्य सरकारें भी इसमें अपने हिस्से का फंड देती थीं और उन योजनाओं के कार्यान्वयन की जिम्मेदारी भी राज्य सरकारें उठाती थीं.

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राष्ट्रीय नीति को समन्वित करने और व्यापार और वाणिज्य के लिए अंतर-राज्य बाधाओं को तोडऩे के कई प्रयासों का लंबा इतिहास है. 2014 में केंद्र में भाजपा के सत्ता में आने से पहले ही जीएसटी, आधार, राष्ट्रीय ग्रिड जैसी नीतियों को आगे बढ़ाया जा रहा था. राष्ट्रीय समन्वय के ऐसे प्रयासों के पीछे मजबूत तर्क हैं. उदाहरण के लिए, कई राज्यों ने राशन कार्ड पोर्टेबिलिटी के साथ कुछ समय के लिए प्रयोग किया है ताकि राशन कार्ड-धारकों को आसपास खरीदारी करने की अनुमति मिल सके और जिससे राशन दुकानों के प्रदर्शन में सुधार हो सके. एक राष्ट्रीय योजना बनाने से उन प्रवासी मजदूरों के अधिकारों को संबोधित करने की क्षमता है जो अपने गृह राज्यों के बाहर अपने अधिकारों का उपयोग करने के लिए संघर्ष करते हैं.

हालांकि, एक राष्ट्रवाद के एजेंडे के हिस्से के रूप में एक साथ इन नीतियों को प्रस्तुत किया जाना भारत के संघीय संतुलन से जुड़ी चुनौतियों के बारे में चिंताएं पैदा करता है.

क्षेत्रीय दलों में द्रमुक एक-राष्ट्र नीतियों का सबसे मुखर आलोचक रहा है. उसने एक राष्ट्र, एक राशन कार्ड योजना का भी विरोध किया है. द्रमुक अध्यक्ष एम.के. स्टालिन कहते हैं, ''सार्वजनिक वितरण राज्य सरकारों का मौलिक अधिकार है. केंद्रीय खाद्य मंत्री को यह समझ नहीं आता कि इस अधिकार का उल्लंघन होता है, तो क्या होगा. यह समझा जाना चाहिए कि केंद्र इस तरह की पहल को लागू करके अपना प्रभुत्व स्थापित करने की कोशिश कर रहा है.'' 

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सार्वजनिक वितरण प्रणाली के कार्यान्वयन में राज्य सरकारों को दरकिनार किए जाने की आशंका की संवेदनशीलता, ऐसे कदम के चुनावी निहितार्थ भी मालूम होते हैं. लोकनीति-सीएसडीएस के नेशनल इलेक्शन स्टडी 2019 के आंकड़े बदलते तरीकों में एक अंतर्दृष्टि प्रदान करते हैं. इसमें बताया गया है कि अलग-अलग नीतियों के लिए मतदाता केंद्र या राज्य सरकारों को मानते हैं. यानी वे राज्य और केंद्र की जिम्मेदारियों में फर्क करते हैं. राजेश्वरी देशपांडे, के.के. कैलाश के साथ मैंने भी इस डेटा का विश्लेषण किया है और इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि मतदाता अभी भी पीडीएस का श्रेय अपनी राज्य सरकारों को देते हैं. यह शोधपत्र प्रकाशित होने वाला है. इसके विपरीत, मतदाताओं में मनरेगा या आयुष्मान भारत जैसी योजनाओं का श्रेय राज्य सरकारों की बजाए केंद्र सरकार को अधिक देने की संभावना दिखती है. इस प्रकार एक राष्ट्रीय राशन कार्ड योजना शायद एक नीतिगत दायरे में राज्यों को चुनौती देगी जिसमें वे अग्रणी खिलाड़ी रहे हैं.

इसके साथ ही, केंद्र सरकार पिछले वित्त आयोग द्वारा शुरू किए गए अधिक से अधिक राजकोषीय विकेंद्रीकरण के रास्ते में रोड़े अटकाने और यहां तक कि उससे पलटते हुए केंद्र और राज्यों के बीच राजकोषीय संबंधों को फिर से संतुलित करने का प्रयास कर रही है. इससे इस धारणा को बल मिला है कि राज्यों की राजनैतिक और आर्थिक स्वायत्तता, दोनों में ही केंद्रीकरण की दिशा में कदम बढ़ाए जा रहे हैं.

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संघवाद को लेकर भाजपा का दृष्टिकोण हिंदुत्व के केंद्र में गढ़ी गई वैचारिक परिभाषा पर आधारित है. फिर भी, राष्ट्रीय शक्ति के रूप में अपने बड़े उदय के कारण भाजपा ने खुद को संघवाद में ढाल लिया. इंदिरा गांधी के कार्यकाल के बाद के चरणों के दौरान भाजपा ने तर्क दिया था कि निरंकुश व्यवस्था को रोकने के लिए एक मजबूत केंद्र के साथ-साथ मजबूत राज्यों की भी आवश्यकता है. 2014 से पहले के दो दशकों में यह राज्य स्तर पर थी और भाजपा ने विशिष्ट राज्य-स्तरीय राजनैतिक और आर्थिक एजेंडा तैयार करके अपने आधार का विकास और विस्तार किया.

मोदी सरकार को दूसरा कार्यकाल 2019 के चुनावों में हर प्रदेश और हर जाति के हिंदू मतदाताओं के भाजपा के पीछे मजबूती से खड़े हो जाने के कारण मिला है. यह इस आधार पर है कि हाल के दशकों में संघवाद के लिए अपने दृष्टिकोण से दूर होते हुए यह एक राष्ट्रवाद के अधिक सशक्त एजेंडे के साथ आगे बढ़ रही है. यह एजेंडा भारत के राज्यों की राजनैतिक और आर्थिक स्वायत्तता को चुनौती देता है, जबकि संघवाद की नीति और राजनीति को आकार देने वाले नए विचारों का नागरिकता की बहुस्तरीय संकल्पना से जुड़े महत्वपूर्ण निहितार्थ भी हैं. 

लुई टिलिन किंग्स कॉलेज लंदन में पॉलिटिक्स की रीडर हैं.

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