
आज यदि बालासाहब ठाकरे जिंदा होते तो बड़े खुश होते. अपने मुखपत्र सामना में जरूर लिखते कि 'महाराष्ट्र को नया सम्मान, सचिन तेंडुलकर भारत रत्न' शायद वे ये भी जोड़ना नहीं भूलते कि सचिन पहले महाराष्ट्र रत्न हैं, इसे कभी भूलना नहीं चाहिए. और हां, सचिन की तारीफ करते समय बालासाहब यह भी भूल गए होते कि दो साल पहले इसी सचिन को 'मुंबई सबकी' कहने पर उन्होंने जमकर लताड़ा था. अब ये संजोग की बात ही है कि बालासाहब के निधन की बरसी के महज एक दिन पहले ही सचिन रिटायर हुए और उन्हें भारत रत्न देने का ऐलान भी किया गया.
बालासाहब का व्यक्तित्व कुछ ऐसा ही था. विरोध करते तो ऐसे कि जैसे उससे बड़ा कोई दुश्मन नहीं और तारीफ करते तो ऐसे कि जैसे उससे बड़ा कोई मित्र नहीं. उनकी इसी शैली की मार शरद पवार से लेकर आम पत्रकारों तक को भी पड़ी. लेकिन उनकी यही छवी महाराष्ट्र में उन तमाम लोगों को उनके साथ जोड़ने में कामयाब रही.
बालासाहब किस मामले पर क्या कहेंगे और क्या स्टैंड लेंगे, इसकी भविष्यवाणी करना बेहद मुश्किल था. उनकी इसी इन्क्रेडिबल इमेज के कायल थे शिव सैनिक. बाल ठाकरे एनडीए में बीजेपी के करीबी साथी थे, अटल बिहारी वाजपेयी से उनकी पुरानी दोस्ती थी. लेकिन प्रधानमंत्री वाजपेयी का भरी सभा में मजाक उड़ाना भी उनके लिए बहुत आसान-सा काम था.
संजय दत्त के खिलाफ शिवसैनिकों ने उग्र आंदोलन किया, उसे असली 'खलनायक' तक बता दिया. उसी को जेल से छुडवाकर बाल ठाकरे ने कहा कि अगर संजय दत्त को दोषी पाया गया तो सजा दो, मगर तब तक तकलीफ मत दो. इस ठाकरेनीति को भी कोई समझ नहीं पाया. उनके साथ खड़े लोगों ने भी कभी इस पर आपत्ति नहीं जताई.
महाराष्ट्र की राजनीति में शरद पवार उनके सबसे बड़े दुश्मन थे. रैलियों में जब पवार की बात निकलती तो बालासाहब की जुबान हमेशा फिसलती, बावजूद इसके उनकी व्यक्तिगत दोस्ती में कभी अंतर नहीं आया. और ये बात आम जनता भी अच्छे से जानती थी. शरद पवार को जुबानी शिकार बनाने वाले भी यही थे और अगर पवार प्रधानमंत्री बनते हैं तो शिवसेना समर्थन देगी, ये कहने वाले भी बालासाहब थे. पत्रकार और उनके दफ्तरों पर हमला करवाने वाले बालासाहब ये भूल जाते थे कि वो भी एक संपादक हैं. इसके बावजूद सबसे ज्यादा खबर देने वाले बालासाहब ही रहे.
कथनी और करनी में इतना बड़ा अंतर खुलेआम लेकिन लाखों के दिलों पर राज करने वाला दूसरा कोई नेता मैंने अबतक नहीं देखा. किसी ने सही कहा था कि शिवसेना जैसी पार्टी केवल बालासाहब ही चला सकते हैं. कभी मराठीवाद कभी हिंदुत्व, कभी कांग्रेस को समर्थन तो कभी शरद पवार की वाहवाही. हर मोड़ पर नया रास्ता अपना लेने, नई भूमिका में सामने आने के बावजूद कैडर पर सख्त पकड़ रखने की कसरत बालासाहब ही कर पाए.
बालासाहब ठाकरे ने भीड़ की नब्ज पहचानी. उनका ये मिजाज उन्हें सबसे लोकप्रिय नेता तो बना गया, लेकिन अपने बलबूते कभी सत्ता तक नहीं पहुंचा पाया. हालांकि बिना सत्ता के भी अपनी बात मनवाने की ताकत उनके पास थी और इसी के बूते उनके नेतृत्व में पार्टी ने 45 साल का रास्ता नापा.
पत्नि का निधन, बड़े बेटे बिंदुमाधव की कार हादसे में मौत, दूसरे बेटे जयदेव के साथ मनमुटाव और चहेते भतीजे राज ठाकरे की बगावत. ये सारे व्यक्तिगत आघात सहकर भी शिवसेना चीफ के नाते उनका और आम शिव सैनिक का नाता हमेशा अटूट रहा. बाल ठाकरे के निधन के एक साल बाद अब शिव सेना को यदि सबसे बड़ी कमी खल रही है तो शिवसेना की 'न्युसन्स वेल्यू' की.
वैसे बालासाहब के आखिरी सालों में उद्धव ठाकरे ही सारे फैसले ले रहे थे, लेकिन बालासाहब के पास वीटो का अधिकार रहता और वो कभी-कभार उसका इस्तेमाल भी करते. अब सारा दारोमदार उद्धव ठाकरे पर है. वो अपनी शैली से पार्टी चला रहे हैं. पार्टी का कैडर मुंबई, पुणे या नासिक जैसे शहरी इलाकों में हिल गया है, लेकिन महाराष्ट्र के मराठवाडा विदर्भ के ग्रामीण इलाकों में अब भी मजबूत है और पार्टी से जुड़ा हुआ है.
बालासाहब के तैयार किए हुए नेताओं की पीढ़ी अब पार्टी छोड़ चुकी है या दरकिनार कर दी गई है. मनोहर जोशी बालासाहब की पीढ़ी की पार्टी में अंतिम थे. जोशी अधिकृत रूप से रिटायर ना होते हुए भी रिटायर हैं. उद्धव अब भी अपनी जमीन तलाश रहे हैं. उन्होंने अपनी पीढ़ी तैयार की है और अब पार्टी में कम से कम उन्हें चुनौत्ी देने वाला नहीं है. पर फिर भी बाहर उनके सामने कई चुनौतियां हैं.
भले ही वो अपने पिता जैसी राजनीति नहीं कर पाये, लेकिन राजनीति वो अपने पिता से ही सीखे हैं. पिता का करिश्मा और 'न्युसन्स वेल्यू' उद्धव ठाकरे के पास है, ये उन्हें पता है. उद्धव अपनी छवि की पार्टी तैयार कर रहे हैं, लेकिन इसके बावजूद पार्टी चलाने के लिए उन्हें पिता की छवि शिवसेना के साथ जोड़कर रखनी होगी. इस परस्पर विरोधी भूमिकाओं को वे कैसे निभा पाते हैं, ये बड़ा दिलचस्प होगा.
उन्होंने अपने बेटे आदित्य को बहुत जल्द अखाड़े में लाने की कोशिश की है. ऐसा लगता है की फिलहाल वो और पार्टी दोनों एक दूसरे को टटोल रहे हैं. शिवाजी पार्क में बालासाहब की बरसी पर बनाए स्मृतिस्थल पर आम जनता से लेकर मान्यवरों तक माथा टेककर जायेंगे, लेकिन जब तक ‘बाल ठाकरे' इन पांच अक्षरों का जादू वे महसूस नहीं करेंगे, तब तक 'शिवसेना' का जादू असरदार नहीं होगा, इस बात में तो कोई आशंका नहीं है.