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विजय माल्याः साख दो टके की लो कर्ज लखटकिया

सार्वजनिक क्षेत्र के वे बैंक भी बड़े कसूरवार हैं जो विजय माल्या पर भारी बकाया चढ़ते जाने के बावजूद खुले हाथ कर्ज देते रहे. किंगफिशर के मामले में बैंक शायद कभी अपने बकाए की वसूली न कर पाएं क्योंकि कंपनी के पास कोई संपत्ति बची ही नहीं है.

एम.जी. अरुण
  • नई दिल्ली,
  • 18 मार्च 2016,
  • अपडेटेड 3:43 PM IST

सार्वजनिक क्षेत्र के यूनियन बैंक ऑफ इंडिया ने सितंबर 2014 में अपने कोलकाता मुख्यालय में निदेशक मंडल की आपात बैठक बुलाई. बैठक का एजेंडा थाः राज्यसभा सदस्य और युनाइटेड स्प्रिट्स के तत्कालीन चेयरमैन विजय माल्या को एक “इरादतन बकाएदार” घोषित करना, यानी वह जो हैसियत होने के बावजूद कर्ज वापस नहीं लौटाता, या फिर जो कर्ज पर ली गई रकम को उसके मूल मकसद से किसी दूसरी मद में इस्तेमाल करता है. माल्या को बैंक के 430 करोड़ रु. लौटाने थे. बैंक का यह कदम अहम था क्योंकि पहली बार कोई सरकारी बैंक माल्या के खिलाफ कड़ी कार्रवाई कर रहा था. इससे माल्या के लिए भारत में किसी भी भावी परियोजना के लिए धन उगाहना मुश्किल हो सकता था. शायद उसी वक्त माल्या के दिन डूबने शुरू हो गए थे जिनके सिर पर सरकारी बैंकों का करीब 7,000 करोड़ रु. का बकाया चढ़ गया था.

लेकिन तब ऐसा नहीं हुआ. माल्या ने उस फैसले को कलकत्ता हाइकोर्ट में चुनौती दी. कोर्ट ने बैंक के कदम को तकनीकी आधार पर खारिज कर दिया. भारतीय रिजर्व बैंक के दिशा-निर्देश के अनुसार किसी इरादतन बकाएदार पर फैसला करने के लिए तीन सदस्यीय शिकायत निवारण समिति बनानी चाहिए थी, जबकि बैंक की समिति में चार सदस्य थे.

लेकिन माल्या की किस्मत का खेल ज्यादा दिन तक नहीं चला. नवंबर 2015 में भारतीय स्टेट बैंक ने, जिसका माल्या पर सबसे ज्यादा 1,600 करोड़ रु. बकाया था,  माल्या और उनकी दो कंपनियों-अब बंद हो चुकी किंगफिशर एयरलाइंस (केएफए) और उसकी होल्डिंग कंपनी यूनाइटेड ब्रुवरीज होल्डिंग्स को इरादतन बकाएदार घोषित कर दिया. देश के सबसे बड़े बैंक से मानो इस इशारे का इंतजार कर रहे बाकी बैंकों के लिए भी अब हद पूरी हो चुकी थी.

मार्च में भारतीय स्टेट बैंक ने 16 अन्य बैंकों को साथ लेकर कर्नाटक हाइकोर्ट में यह अपील दाखिल कर दी कि इस व्यवसायी को गिरफ्तार कर लिया जाए और उनका पासपोर्ट जब्त कर लिया जाए. इस बीच कर्ज रिकवरी ट्रिब्यूनल ने ब्रिटिश शराब कंपनी डिएजियो से कहा कि वह माल्या को कंपनी से अलग होने के एवज में 515 करोड़ रु. का पैकेज तब तक न दे, जब तक  उनके खिलाफ मामले का फैसला न हो जाए. इस मामले की सुनवाई 28 मार्च को होने वाली है.

एक अन्य घटनाक्रम में प्रवर्तन निदेशालय ने भी आइडीबीआइ से केएफए द्वारा लिए गए  900 करोड़ रु. के कर्ज में सीबीआइ की जांच के आधार पर माल्या के खिलाफ मनी-लॉन्डरिंग का मामला दर्ज कर लिया. कई सारी एजेंसियों की जांच और कोर्ट की कड़ी निगहबानी से घबराए माल्या 2 मार्च को देश से बाहर चले गए.

मिलीभगत का मामला?
हालांकि कई लोगों को माल्या की काल्पनिक उड़ानों के लिए धन उपलब्ध कराने में बैंकों की भूमिका बड़ी परेशान करने वाली लगती है. पूंजी बाजार पर नियंत्रण रखने वाली सेबी के पूर्व निदेशक और बैंकर रहे जे.एन. गुप्ता कहते हैं, “ऐसा कैसे हुआ कि बैंक केएफए की खामियों को भांपने में एकदम नाकाम रहे? यह एयरलाइन कंपनी एक समय में बाजार हिस्सेदारी और लोड फैक्टर, दोनों ही मामलों में काफी अच्छी चल रही थी लेकिन उसके बाद वह एक बियर कंपनी की तरह काम करने लगी.”

एक एयरलाइन कंपनी किसी बियर कंपनी की तरह तड़क-भड़क से काम नहीं कर सकती जिसके लिए ब्रान्ड प्रमोशन और एडवर्टाइजिंग काफी अहमियत रखते हैं. शायद माल्या के धंधे को चौपट करने वाली सबसे बड़ी वजह एयर डेकन का सौदा था जिसे उन्होंने अंतरराष्ट्रीय उड़ानों के लाइसेंस के लिए खरीदा था. भारतीय नियमों के मुताबिक सिर्फ उन्हीं विमान कंपनियों को विदेश के लिए उड़ानें संचालित करने की इजाजत है जो घरेलू सेवाओं में पांच साल पूरे कर चुकी हों. इसे कम किराए वाली किंगफिशर रेड का नाम दिया गया. आखिरकार, कुल मिलाकर 8,200 करोड़ के नुक्सान, और वेतन व हवाई अड्डों के बकाए के साथ इस एयरलाइन को 2012 में बंद कर दिया गया.

इसी के चलते माल्या पर एक आरोप यह है कि उन्होंने अपनी बाकी कंपनियों का काफी धन एयरलाइन के धंधे में लगा दिया. माल्या की युनाइटेड स्पिरिट्स में 2014 में नियंत्रक हिस्सेदारी अख्तियार कर लेने वाली कंपनी डिएजियो के ऑडिटरों ने पाया कि माल्या ने कथित तौर पर उसके 7,200 करोड़ रु. एयरलाइन की तरफ मोड़ दिए जो फिर आगे किसी और मद में डाल दिए गए. इसके अलावा ग्रुप की कंपनी युनाइटेड ब्रुवरीज से भी कथित तौर पर 1,300 करोड़ रु. बेइमानी से इधर-उधर करने की जांच उनके खिलाफ चल रही है.

एक और आरोप यह भी है कि माल्या लगातार व्यवस्था को नाक चिढ़ाने वाला काम कर रहे थे. एक तरफ तो उनकी एयरलाइन बंद हो रही थी, उनके स्टाफ को वेतन नहीं मिल रहा था और उनकी देनदारियां ब्याज के साथ मिलाकर 9,000 करोड़ रु. हो गई थीं, पर उनकी शानोशौकत में कोई फर्क नहीं पड़ा. एक समय माल्या को कर्ज देने वाले लेकिन समय पर समूची रकम वसूल कर लेने वाले एक सरकारी बैंक के पूर्व चेयरमैन का सवाल था, “ऐसा कैसे हो सकता है कि आप इतनी बड़ी रकम के देनदार हों और खुद ऐसी तड़क-भड़क के साथ जीवन बिता रहे हों कि लोगों को लगे कि आप पैसा उड़ा रहे हैं?”

गलती यकीनन बैंकों की भी थी. अर्थव्यवस्था के उच्च विकास वाले दौर में सरकारी बैंक कर्ज देते रहने के मूड में थे. वे बड़ी परियोजनाओं को ऋण दे रहे थे लेकिन ज्यादातर मामलों में इन व्यवसायों के नफे-नुक्सान का आकलन ही नहीं कर रहे थे. उनके पास ऐसी तमाम परियोजनाओं का मूल्यांकन करने के लिए न तो लोग थे और न ही इच्छा. नतीजतन कई कर्ज डूबते गए. एक बैंकर का कहना था, “एसबीआइ कैप्स या आइसीआइसीआइ बैंक सरीखे बहुत कम ही संगठन थे जो किसी परियोजना के विस्तार में जाकर उसकी कर्ज-उपयुक्तता का आकलन कर सकते थे. कर्ज देने का काम कर्ज लेने वाले की साख के आधार पर बहुत कम ही किया जाता था.”

कॉर्पोरेट एडवाइजरी फर्म आइकैन इन्वेस्टमेंट एडवाइजर्स के चेयरमैन अनिल सिंघवी कहते हैं, “अगर 2006 के बाद से कई साल के लिए आपकी विकास दर बहुत अच्छी रही तो ऐसी धन की आसान उपलब्धता की वजह से था. हालांकि यह धन “बैंकर्स” का नहीं, “साहूकारों” का था क्योंकि वे बैंकर होते तो यह भी जानते कि अपने धन की वसूली कैसे की जाती है. ऐसा क्यों है कि निजी क्षेत्र में एनपीए शून्य के बराबर है? क्या उनके पास बाहर से दबाव नहीं होता?”

इसी व्यवस्था में उस न्यायिक प्रणाली को भी जोड़ दीजिए जो खुदरा कर्जदारों पर तो बहुत सख्त है लेकिन वे बड़े कॉर्पोरेट को छुट्टा घूमने की इजाजत देती रहती है. उपरोक्त बैंकर का कहना था, “खुदरा कर्जदारों के मामले में तो क्रेडिट इन्फॉर्मेशन ब्यूरो ऑफ इंडिया व्यक्तिगत कर्जदारों के कर्ज की स्थिति का पूरा हिसाब रखता है और बैंकों को किसी व्यक्ति की साख के बारे में पहले ही आगाह कर देता है.”

व्यवस्था में खामियां
इससे गंभीर सवाल खड़े होते हैं. क्या ऐसा है कि बैंकों ने मालिकों की तरफ से की जा रही गड़बड़ियों पर आंखें जान-बूझकर बंद कर रखी हैं? क्या ऐसे व्यवसायियों के खिलाफ कार्रवाई करने में वे जान-बूझकर ढिलाई बरत रहे थे? जब 2010 में माल्या ने अपनी एयरलाइन को धन उपलब्ध कराने के लिए कर्जदारों के एक समूह से चर्चा शुरू की तो बैंकरों की इस मसले पर राय बंटी हुई थी. हालांकि बहुमत से फैसला यही हुआ कि उनसे 1,500 करोड़ रु. व्यक्तिगत गारंटी लेने के बाद नए सिरे से धन उपलब्ध करा दिया जाए. कर्जदारों ने उनकी संपत्तियों की सूची भी हासिल की. इस तरह माल्या ने कुल 1,500 करोड़ रु. मूल्य के शेयरों, रियल एस्टेट, और अन्य परिसंपत्तियों का विवरण दे दिया.
गुप्ता कहते हैं, “बैंकर्स को उस मौके पर फैसला लेना था और उन्होंने फैसला कर्ज देने का किया. अब देखें तो यह एक खराब फैसला था.” अब यह तो नई जांच से ही पता चल पाएगा कि क्या उन्होंने किसी बाहरी दबाव में यह फैसला किया या बकाएदार के साथ उनकी कोई सांठगांठ थी. एसबीआइ ने यह स्पष्ट किया है कि उसने केएफए से कर्ज वापसी के लिए सभी उपलब्ध संसाधनों का इस्तेमाल किया और इस मामले में उसकी तरफ से कोई ढिलाई नहीं रही.

यह तो खास नहीं!
माल्या बैंकरों के साथ किसी मिलीभगत से साफ इनकार करते हैं. हाल ही में एक खुले पत्र में उन्होंने कहा कि केएफए को एसबीआइ कैपिटल मार्केट्स और प्रख्यात अंतरराष्ट्रीय उड्डयन सलाहकारों के मजबूत बिजनेस प्लान के आकलन के आधार पर ही शुरू किया गया था. लेकिन तमाम प्रयासों के बावजूद आर्थिक वजहों और सरकारी नीतियों के कारण वह नाकाम रहा. उन्होंने कहा, “किंगफिशर एयरलाइन और बाहरी कारकों से वित्तीय दबाव की असलियत एसबीआइ ने 31 जनवरी, 2012 को रिजर्व बैंक को भेजे पत्र में साफ कर दिया था.”
उन्होंने यह भी कहा है कि वे कोई अकेले बकाएदार नहीं हैं और किसी भी दूसरे बड़े बकाएदार के बारे में कोई खुलासा नहीं किया गया है. उन्होंने बताया कि वे बैंकों के फैसले को कोर्ट में चुनौती दे चुके हैं.

सुप्रीम कोर्ट ने 16 फरवरी, 2016 को भारतीय रिजर्व बैंक को निर्देश दिया था कि वह छह हफ्ते में सीलबंद लिफाफे में उन कंपनियों का विवरण उपलब्ध कराए जिन्होंने 500 करोड़ रु. से ज्यादा के कर्ज की अदायगी में चूक की है. इन बकाएदारों में भूषण स्टील, भारती शिपयार्ड, विनसम डायमंड्स ऐंड ज्वेलर्स और एस्सार स्टील तक शामिल हैं. वित्त वर्ष की पहली छमाही में भारतीय बैंकिंग प्रणाली में कुल डूबत कर्ज 6 से 7 लाख करोड़ रु. मूल्य का बताया जाता है. लेकिन माल्या के विपरीत बाकी तमाम कंपनियां खुद को बचाए हुए हैं. माना जाता है कि माल्या के लिए उनकी व्यक्तिगत गारंटियां घाटे का सौदा रही हैं जिनके बिना उनके लिए धन उगाहना मुश्किल था लेकिन जिनकी बदौलत अब बैंक उनके पीछे जा सकते हैं. कुछ लोगों का कहना है कि बैंकों को झांसे में भी रखा गया होगा कि किंगफिशर में सब कुछ सही है. माल्या ने यह तय कर रखा था कि उनके निदेशक मंडल में बड़े व भरोसेमंद लोग रहें-चाहे वे सेबी के पूर्व प्रमुख जी.एन. बाजपेयी हों, टेनिस खिलाड़ी विजय अमृतराज, रिटायर्ड आइएएस अफसर पीयूष मांकड़ हों या रिडीफ.कॉम के संस्थापक दीवान अरुण नंदा.
 
कुछ बैंक पहले ही पड़ताल के दायरे में हैं. प्रवर्तन निदेशालय का कहना है कि मनी लॉन्डरिंग के मामले में केएफए को 900 करोड़ देने वाले आइडीबीआइ बैंक ने कर्ज के बदले में बंधक रखी गई जमानत को नहीं छुड़ाया. निदेशालय के अधिकारियों को पता चला है कि उसमें से 300 करोड़ की रकम को ब्रिटेन में ले जाया गया और बाकी 600 करोड़ रु. को देश के बाकी हिस्सों में. इसके लिए माल्या, केएफए के तत्कालीन वित्त प्रमुख ए. रघुनाथन और ऋण को पास करने वाले आइडीबीआइ बैंक के अधिकारी जांच के घेरे में हैं.

कुछ लोगों ने तो रिजर्व बैंक की इस नीति पर ही सवाल उठाए हैं कि जमानत के अभाव में किसी कर्ज को खारिज न किया जाए. कई लोग यह सवाल भी उठा रहे हैं कि कैसे माल्या किंगफिशर ब्रान्ड को 3,500 करोड़ रु. के लिए रेहन रखने में कामयाब हो गए जबकि कंपनी कानून इस बात की इजाजत नहीं देता. एसबीआइ और केएफए के बीच 10 अगस्त, 2010 के दृष्टि बंधन करार के तहत अगर केएफए कर्ज की अदायगी करने में नाकाम रहती है तो एसबीआइ को तमाम ट्रेडमार्क और साख का स्वामित्व मिल जाना था, जिसमें फ्लाई किंगफिशर, फ्लाइंग मॉडल्स, फ्लाई द गुड टाइम्स, फनलाइनर व किंगफिशर शामिल हैं. कंसल्टिंग कंपनी थॉर्नटन ने तो 2009 में किंगफिशर ट्रेडमार्क को भी 4,111 करोड़ रु. मूल्य का आंका था. लेकिन अब तो उसका मूल्य नगण्य है.

ऐसे में बैंकों के मूल धन की वापसी की क्या संभावनाएं हैं? अब तक रेहन रखे गए शेयरों व अन्य प्रतिभूतियों को बेचकर वे 1,200 करोड़ रु. जुटा पाए हैं. इसके अलावा कर्नाटक हाइकोर्ट में 1,250 करोड़ रु. और जमा हैं. वर्ष 2013 में जब कुछ बैंकों ने बकाए के लिए माल्या से संपर्क किया, जो उस समय 6,493 करोड़ रु. मूल्य के थे, तो माल्या ने उनसे कहा था कि इसका काफी कुछ डिएजियो से सौदे के बाद चुकता हो जाएगा क्योंकि ब्रिटिश कंपनी युनाइटेड ब्रुवरीज होल्डिंग्स और यूएसएल की बाकी कंपनियों में 5,000 करोड़ रु. मूल्य के शेयर हासिल करने वाली थी. यह सौदा 2013 में हो तो गया लेकिन 2,400 करोड़ रु. के बहुत कम मूल्य पर. फिर जब बैंक इस दलील के साथ कोर्ट में चले गए कि यह सौदा उस सहमति के अनुरूप नहीं है, तो हाइकोर्ट ने सौदे पर रोक लगा दी. मामला अब सुप्रीम कोर्ट में है.

बैंकिंग व्यवस्था की तरफ भी कई उंगलियां उठ रही हैं. बैंकों को एनपीए का ऐलान और पहले कर देना चाहिए था, उन्हें 2010 में केएफए के कर्ज की पुनर्संरचना नहीं करनी चाहिए थी, जब उन्होंने 1,355 करोड़ रु. के कर्ज को केएफए के शेयर के बाजार मूल्य के 61.6 फीसदी प्रीमियम पर इम्यूनिटी में तब्दील कर दिया था और आरबीआइ को इस तरह की पुनर्संरचना की इजाजत नहीं देनी चाहिए थी. मनी लॉन्डरिंग की जांच या किसी भी  आपराधिक मामले के चलते बकाएदार को सजा तो हो सकती है लेकिन बैंकों के बकाए धन की वापसी नहीं हो सकती.

किंगफिशर के मामले में बैंक शायद कभी अपने बकाए की वसूली न कर पाएं क्योंकि कंपनी के पास कोई संपत्ति बची ही नहीं है. दूसरा विकल्प माल्या की निजी परिसंपत्तियों को वसूलने का हो सकता है लेकिन उसमें कानूनी अड़चनें भी होंगी.

माल्या प्रकरण सरकार, नियामकों और बैंकिंग व्यवस्था के लिए आंखें खोलने वाला है. लेकिन इस बार भी अगर व्यवस्था की सफाई नहीं हो पाती है, दोषी लोग सजा नहीं पाते हैं और बकाए की वसूली नहीं हो पाती है तो यह महज तंत्र को परास्त करने वाले एक और धोखेबाज व्यवसायी का मामला बनकर रह जाएगा.

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