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हलफनामाः राजोआना पर नरमी और आतंकवाद की राजनीति

राजोआना सिख कट्टरपंथियों का आदर्श बन चुका है. अकाल तख्त उसे जिंदा शहीद करार दे चुका है. 2012 में उसकी फांसी की तारीख तय हो गई लेकिन केंद्र की मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने इस पर रोक लगा दी.

बलवंत सिंह राजोआना बलवंत सिंह राजोआना
मनीष दीक्षित
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  • 07 अक्टूबर 2019,
  • अपडेटेड 7:37 PM IST

मौत पर राजनीति कोई नई बात नहीं है और नेताओं की सोच इस मसले पर एक जैसी होती है चाहे पार्टी कोई भी हो. ताजा मामला सामने आया है पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री बेअंत सिंह के हत्यारे बलवंत सिंह राजोआना की सजा घटाने का. कांग्रेस के नेता बेअंत सिंह 1992 से 1995 तक पंजाब के मुख्यमंत्री रहे. उनके कार्यकाल में पंजाब में सिख आतंकवाद खत्म करने की दिशा में महत्वपूर्ण काम हुआ. सिख आतंकियों ने ही 31 अगस्त 1995 को बम विस्फोट से उनकी हत्या कर दी थी. हत्या में मानव बम का इस्तेमाल किया गया था. मानव बम का नाम था दिलावर सिंह और उसके नाकाम रहने पर ये काम जिसे करना था वो शख्स था बलवंत सिंह राजोआना. मानव बम फटा और बेअंत सिंह समेत करीब डेढ़ दर्जन लोगों की जान चली गई. दिलावर भी मारा गया लेकिन राजोआना समेत कई आतंकियों की गिरफ्तारी हुई. राजोआना पर टाडा कानून के तहत मुकदमा चला. राजोआना ने अपने बचाव में कोई वकील नहीं लिया और न ही निचली अदालत से फांसी की सजा के खिलाफ कोई अपील की. इसके बावजूद उसे फांसी पर नहीं चढ़ाया गया.

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राजोआना सिख कट्टरपंथियों का आदर्श बन चुका है. अकाल तख्त उसे जिंदा शहीद करार दे चुका है. 2012 में उसकी फांसी की तारीख तय हो गई लेकिन केंद्र की मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने इस पर रोक लगा दी. यही नहीं अकाली-भाजपा की प्रकाश सिंह बादल के नेतृत्व वाली पंजाब सरकार ने कोर्ट के फैसले के खिलाफ ऊंची अदालत में अपील कर दी. राजोआना को फांसी नहीं हुई. बादल भी कहते रहे कि सरकार राजोआना को फांसी देने के पक्ष में नहीं है. पंजाब के मौजूदा मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह भी बात घुमाकर कह रहे हैं कि वे 2012 में ही कह चुके थे कि वे फांसी की सजा के खिलाफ हैं. इसके बाद सितंबर 2019 में केंद्र की नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली भाजपा सरकार ने राजोआना की फांसी की सजा को घटाकर उम्रकैद में तब्दील कर दिया.  

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राजोआना की इस कहानी से ये तो तय हो गया है कि कट्टरपंथ के मसले पर भाजपा, कांग्रेस और अकाली एक ही धरातल पर खड़े हुए हैं. बाकी दल खुद को अलग न मानें वे भी अवसर आएगा तो इन्हीं के साथ दिखेंगे. पंजाब की आबादी में सिखों की हिस्सेदारी आधी से काफी ज्यादा है. राजनीतिक दल ऐसा सोच रहे हैं कि कट्टरपंथियों पर नरमी से पेश आएंगे तो पंजाब समेत देशभर में सिखों के प्रिय हो जाएंगे. भाजपा और एनडीए की कट्टरपंथियों पर नरमी की वजह समझ में आती है कि ये स्वभाव से ही धर्म की राजनीति करती आ रही हैं. लेकिन कांग्रेस जिसने धर्मनिरपेक्षता का झंडा उठाया हुआ है अपनी ही पार्टी के मुख्यमंत्री की हत्या में सजा पाए शख्स पर लगातार नरमी बरत रही है जो साबित करता है कि वो सिर्फ वोटों की राजनीति कर रही है. राजोआना की जगह अगर कोई मुस्लिम आतंकवादी होता तो भी कांग्रेस और भाजपा एक ही धरातल पर खड़े नजर आते. इनके लिए उस शहीद की शहादत का कानूनी तौर पर भी मोल नहीं है जो आतंकवाद के खिलाफ लड़ता रहा और इसी की भेंट चढ़ गया. टाडा जैसे मुकदमे में सजा कम करने का ये विरला उदाहरण है. पंजाब के लाखों लोगों ने आतंकवाद की त्रासदी झेली है. न जाने कितने बेकसूर लोग आतंकियों का निशाना बने हैं.

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देश में हाल के कुछ सालों में फांसी वैसे भी काफी चुन-चुनकर दी जाती है और उसमें भी टाइमिंग का ध्यान रखा जाता है. 2017 के आंकड़े बताते हैं कि देश में 371 कैदी ऐसे हैं जिन्हें मौत की सजा सुनाई गई है. लेकिन सभी कैदी राजनीतिक महत्व के नहीं होते हैं. कैदियों का अपराध और धर्म उनका राजनीतिक महत्व तय करता है और इसी के आधार पर उन्हें माफी या सजा में कमी का लाभ सरकार की तरफ से मिलता है. राजोआना मामले में फिर एक बार अल्पसंख्यक तुष्टिकरण का नमूना देखने को मिला है. राजनीतिक पार्टियां अल्पसंख्यक कट्टरता का समर्थन या विरोध अपनी सुविधानुसार कैसे कर सकती हैं, खासकर जब ये कानून का मामला हो.कांग्रेस देख चुकी है कि तीन आतंकवादियों को फांसी पर चढ़ाने के बाद भी सरकार बने रहने की गारंटी नहीं है. राजनीतिक दलों की सत्ता में वापसी काम तय करते हैं कट्टरता नहीं.

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