
बिहार में विधानसभा चुनाव होने में अब महज चंद महीने ही बचे हैं और सत्ताधारी गठबंधन एनडीए से लेकर राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) तक ने सियासी बिसात बिछाना शुरू कर दिया है. देश की राजनीति को दिशा देने वाले बिहार के बारे में आमतौर पर माना जाता है कि राजनीतिक को लेकर बिहार जो आज सोचता है पूरा देश बाद में उसे ही अपनाता है. ऐसे में राज्य में होने वाला इस बार का विधानसभा चुनाव कई मायनों में अहम है और यह बिहार ही नहीं देश की राजनीति को भी नई दिशा देगा.
एक तरफ तो राज्य के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के लिए अपनी राजनीति और बिहार में अपनी प्रासंगिकता बचाये रखने की चुनौती होगी. वहीं दूसरी तरफ आरजेडी के नए नेतृत्वकर्ता तेजस्वी यादव की सबसे बड़ी अग्निपरीक्षा होगी, क्योंकि इसी चुनाव में पता चलेगा कि लालू के इस लाल की बिहार में कितनी लोकप्रियता है और क्या बिहार के लोग तेजस्वी को सच में लालू की मुस्लिम-यादव राजनीति का वास्तविक उत्तराधिकारी मानते हैं या नहीं.
नीतीश कुमार की प्रेशर पॉलीटिक्स
बिहार के चुनाव में अभी करीब 8 महीने का वक्त बचा हुआ है ऐसे में अभी से ही नीतीश कुमार ने बीजेपी पर लोकसभा चुनाव की तरह दबाव की राजनीति शुरू कर दी है. शायद यही वजह है कि जहां नागरिकता संशोधन कानून (CAA) का नीतीश कुमार की पार्टी जनता दल यूनाइटेड (जेडीयू) ने लोकसभा और राज्यसभा में समर्थन किया, वहीं पार्टी के अंदर ही इसको लेकर दोफाड़ हो गया.
पार्टी में नंबर 2 की हैसियत रखने वाले चुनाव मैनेजमेंट के कथित चाणक्य माने जाने वाले प्रशांत किशोर से लेकर पूर्व ब्यूरोक्रेट और वरिष्ठ नेता पवन वर्मा ने खुले तौर पर इसका विरोध किया और नीतीश कुमार से सफाई की मांग कर ली. जेडीयू नेताओं के इन बयानों पर नीतीश कुमार की चुप्पी को उनके विरोधी और बीजेपी के नेता असल में नीतीश कुमार का ही स्टैंड बताते हैं. नीतीश कुमार के बारे में विरोधी मानते हैं कि वो जो बात खुद नहीं कहना चाहते वो बातें अपनी पार्टी के दूसरे नेताओं से कहलवाते हैं.
सीएए पर जेडीयू नेताओं के बयान से बीजेपी बिहार के साथ ही केंद्र की राजनीति में भी असहज महसूस करने लगती है. माना जा रहा है कि प्रशांत किशोर के जरिए साल 2010 के सीट फॉर्मूले को ही 2020 में बनाए रखने की मांग करना इसी रणनीति का हिस्सा था जो नीतीश कुमार भी चाहते हैं. लेकिन वर्तमान राजनीतिक परिस्थिति को देखते हुए बीजेपी के इस प्रस्ताव पर तैयार होने की गुंजाइश कम ही लगती है.
महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद बीजेपी-शिवसेना गठबंधन के बीच जो हुआ उसके बाद बीजेपी कतई नहीं चाहती कि उसका एक मजबूत साथी फिर किसी कारण से अलग हो जाए. बिहार की राजनीति में वैसे भी नीतीश बीजेपी की जरूरत और बीजेपी नीतीश की जरूरत हैं, क्योंकि दोनों का अपना सीमित वोट बैंक है और अगर दोनों में से कोई भी एक-दूसरे से अलग होता है तो उनकी सत्ता में वापसी का रास्ता बेहद मुश्किल हो जाएगा.
सीएए को लेकर मुस्लिमों में भारी रोष को देखते हुए तेजस्वी ने भी इसे राज्य में मुद्दा बनाकर नीतीश कुमार को घेरने की कोशिश की जिस पर नीतीश को विधानसभा में बयान देना पड़ा की पार्टी ने सीएए का समर्थन किया है लेकिन राज्य में राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर को किसी भी कीमत में लागू नहीं होने दिया जाएगा. यहां यह जानना बेहद दिलचस्प है कि केंद्र सरकार में नंबर टू और बीजेपी की सभी राजनीतिक रणनीति बनाने वाले अमित शाह ने वैशाली में सीएए के समर्थन में आयोजित रैली में साफ कर दिया कि पूरे देश में एनआरसी को भी लागू किया जाएगा.
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प्रशांत किशोर और पवन वर्मा ने की नीतीश की लक्ष्मण रेखा पार
जेडीयू के प्रेशर पॉलिटिक्स को जवाब देने के लिए बिहार में बीजेपी नेताओं ने भी जवाबी बयानबाजी शुरू कर दी थी और कहा कि 15 साल के बाद बिहार के लोग मुख्यमंत्री पद पर बीजेपी के किसी नेता को देखना चाहते हैं. प्रेशर पॉलिटिक्स में दोनों पार्टी के बयानों से आ रहे असंतुलन को देखते हुए वैशाली में गृहमंत्री अमित शाह ने छुटभैय्ये नेताओं की जुबान पर ताला लगाते हुए साफ कर दिया कि बीजेपी बिहार में नीतीश कुमार के नेतृत्व में ही विधानसभा चुनाव लड़ेगी और चुनाव से पहले सीट को लेकर स्थिति साफ कर दी जाएगी. अमित शाह के इस बयान के बाद नीतीश कुमार ने निश्चित तौर पर राहत की सांस ली होगी कि अब चुनाव को लेकर गठबंधन में कोई समस्या नहीं आएगी.
इसके बाद भी बीजेपी की नीतियों और सीएए को लेकर पार्टी के स्डैंट के खिलाफ जाने वाले प्रशांत किशोर और पवन वर्मा पर नीतीश कुमार की नजरें टेढ़ी होनी तय है, क्योंकि नीतीश कुमार ने संभवत: अपनी राजनीतिक मंशा की पूर्ति कर ली है और अब ऐसे नेताओं की बलि देने का वक्त आ गया है. इसका संकेत नीतीश कुमार के हाल में आए बयान से भी मिला है. नीतीश कुमार ने साफ तौर पवन वर्मा को नसीहत देते हुआ कहा है कि अगर उन्हें अपनी बात कहनी है तो पार्टी के मंच पर कहें या फिर अगर वो किसी और पार्टी में जाना चाहते हैं तो मेरी शुभकामनाएं उनके साथ हैं.
वहीं दूसरी तरफ प्रशांत किशोर को लेकर जेडीयू के सूत्र बताते हैं कि वो बिहार सरकार में उप मुख्यमंत्री का पद चाहते हैं जो अभी बीजेपी के वरिष्ठ नेता सुशील कुमार मोदी को मिला हुआ है. नीतीश कुमार के लिए ऐसा करना संभव नहीं है, इसलिए प्रशांत किशोर पार्टी विरोधी बयान देकर नीतीश कुमार के सामने अपनी नाराजगी जाहिर करना चाहते हैं. हालांकि जेडीयू की तरफ उनके बयान को निजी बताकर पल्ला झाड़ लिया जाता रहा है, लेकिन बीजेपी शायद इससे संतुष्ट नहीं है और वो प्रशांत किशोर के जुबान पर लगाम चाहती है.
सूत्रों के मुताबिक आने वाले दिनों में प्रशांत किशोर पर जेडीयू कोई बड़ी कार्रवाई कर सकती है या फिर नीतीश कुमार के रुख को देखते हुए प्रशांत किशोर कांग्रेस या आरजेडी की तरफ भी जा सकते हैं. वैसे भी राज्यसभा में जेडीयू के नेता आरसीपी सिंह पहले ही कह चुके हैं कि प्रशांत किशोर भाड़े के सैनिक हैं, इसलिए उनकी बातों पर ज्यादा ध्यान देते की जरूरत नहीं है. इस बयान से साफ है कि नीतीश के राजनीतिक फैसलों के खिलाफ जाने वाले इन नेताओं पर आने वाले दिनों में जेडीयू कोई बड़ा फैसला लेगी.
तेजस्वी के लिए आखिरी मौका?
बीते लोकसभा चुनाव में राष्ट्रीय जनता दल अपने शीर्ष नेता लालू यादव के बगैर उतरी और उसका नतीजा पूरे बिहार ने देखा. तेजस्वी की अगुवाई में आरजेडी ने राज्य में अब तक का सबसे शर्मनाक प्रदर्शन किया और लोकसभा चुनाव में खाता तक नहीं खोल पाई. चुनाव परिणाम आने के बाद आरजेडी के अंदर ही तेजस्वी के नेतृत्व को लेकर विरोध के सुर तेज होने लगे. इसकी बानगी विधानसभा चुनाव से पहले ही फिर से दिखने लगी है.
आरजेडी के सबसे प्रमुख नेता जहां इन दिनों पारिवारिक कलह को लेकर परेशान हैं, वहीं दूसरी तरफ आरजेडी में आंतरिक कलह भी चरम पर है. पार्टी के पुराने और वरिष्ठ नेताओं में वर्चस्व और खुद को श्रेष्ठ साबित करने की लड़ाई शुरू हो गई है.
लालू के करीबी और वरिष्ठ नेता रघुवंश प्रसाद सिंह और आरजेडी के प्रदेश अध्यक्ष जगदानंद सिंह की लड़ाई वहां के अखबार की सुर्खियां बन चुकी है. इस पर रघुवंश प्रसाद सिंह ने चारा घोटाले में जेल में बंद लालू यादव को चिट्ठी लिखकर इस मामले में हस्तक्षेप करने की गुजारिश की है.
रघुवंश प्रसाद सिंह ने चिट्ठी में साफ तौर पर लिखा है कि देश और प्रदेश की जो परिस्थिति है उससे साफ है कि आरजेडी के लिए लड़ाई के अलावा दूसरा कोई रास्ता नहीं बचा है. पार्टी के सामने जबरदस्त चुनौती है, लेकिन पार्टी में इसको लेकर विमर्श तक नहीं हो रहा है.
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उन्होंने लिखा है कि बिहार विधानसभा चुनाव में अब महज 250-300 दिन का ही समय बचा है, फिर भी पार्टी की बूथ स्तरीय, पंचायत, प्रखंड, जिला, राज्य और राष्ट्रीय समिति का गठन तक नहीं हुआ है. ऐसे में आरजेडी की आतंरिक हालत और चुनाव की तैयारियों को लेकर समझा जा सकता है कि पार्टी अभी कहां खड़ी है.
एक तरफ जहां बीजेपी की चुनावी रणनीति का लोहा विपक्षी दल भी मानते हैं. ऐसे में इस तरह आंतरिक लड़ाई में उलझे रहने वाली आरजेडी और उसके नेतृत्वकर्ता तेजस्वी पर बिहार की जनता भरोसा दिखा पाएगी या नहीं, यह आने वाले दिनों में राज्य में होने वाले ओपिनियन पोल में दिख जाएगा कि आखिर वहां की जनता का मूड क्या है? क्या वहां के लोग तेजस्वी को एक मौका देंगे या नीतीश कुमार में ही अपना भरोसा एक बार फिर दिखाएंगे.