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जनता दल(यू) ने प्रचार अभियान शुरू कर दिया है, उसका अभियान भी अच्छा है. हमें पूरे दमखम के साथ लड़ना होगा, थोड़ी-सी भी चूक भारी पड़ेगी.” 8 जून को नीतीश कुमार के आरजेडी-जेडी(यू) गठबंधन का मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित होने के कुछ घंटों बाद पटना में बीजेपी के केंद्रीय नेतृत्व के साथ हुई राज्य कोर ग्रुप के नेताओं की बैठक के इस संदेश से साफ था कि बिहार विधानसभा का चुनाव बीजेपी के लिए किस तरह करो या मरो जैसा हो गया है. इसकी बानगी केंद्रीय पेट्रोलियम मंत्री और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह के विशेष दूत के तौर पर निगाह जमाए हुए धर्मेंद्र प्रधान की इंडिया टुडे के साथ साझा किए विचारों में झलकती है, “बिहार का चुनाव कभी भी समसामयिक राजनीति से अलग नहीं होता. यहां का चुनाव महज किसी राज्य के चुनाव जैसा भी नहीं होता है, बल्कि बिहार हमेशा निर्णायक जनादेश देता है जो राज्य के साथ-साथ देश की राजनीति को भी प्रभावित करता है.”
सामाजिक न्याय की प्रयोगशाला रहा बिहार इसलिए भी अहम हो गया है क्योंकि नरेंद्र मोदी की लहर में उत्तर भारत की राजनीति के तमाम क्षत्रप धराशायी हो गए थे, लेकिन मोदी की वजह से दुश्मन से दोस्त बने लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार के लिए यह चुनाव न सिर्फ उनकी भविष्य की इबारत लिखेगा बल्कि 2019 के आम चुनाव की पटकथा भी यहीं से तैयार होगी. अगर लालू-नीतीश के समीकरण से बीजेपी के मंसूबे पर पानी फिरता है तो अगले आम चुनाव में नीतीश कुमार एक विकल्प के तौर पर मोदी के सामने चेहरा हो सकते हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह की राजनैतिक जोड़ी को शायद इसका बखूबी एहसास भी है. अंतरराष्ट्रीय योग दिवस के मौके पर शाह खुद पटना में कार्यकर्ताओं के साथ इस दिवस को मनाएंगे. सूक्ष्म राजनैतिक प्रबंधन में माहिर माने जाने वाले शाह लालू-नीतीश खेमे में टूट की हर संभावना को अपने पक्ष में करने की कोशिश में हैं ताकि वोट का बिखराव विपक्ष की धार कमजोर कर सके. इस कड़ी में शाह ने सबसे पहले जेडी(यू) से अलग हुए पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी को एनडीए के पाले में लाकर जातीय समीकरण को गुलदस्ता बड़ा कर लिया है.
“विभीषणों” पर टिकी नजर
बीजेपी के रणनीतिकारों को बखूबी मालूम है कि लोकसभा चुनाव में पार्टी को जितने वोट मिले उससे आगे बढ़ना मुमकिन नहीं हो पाएगा. इसलिए पार्टी पूरी तरह से दूसरी पार्टी से टूटकर आने वालों पर निगाह बनाए हुए है. अगर आंकड़ों के लिहाज से देखें तो 89 सीटें ऐसी हैं जहां पर 2010 के विधानसभा चुनाव में जेडी(यू)-आरजेडी के उम्मीदवार सीधे मुकाबले में थे. अब इन दोनों दलों का गठबंधन है. इस स्थिति पर बीजेपी के एक वरिष्ठ नेता का कहना है, “इन सीटों पर दो-दो दावेदार हो गए, जिसे टिकट नहीं मिलेगा वह टूटेगा और बगावत से वोट बिखरेगा जिसका फायदा हमें मिलेगा.” पिछले चुनाव तक जेडी(यू) के साथ गठबंधन होने की वजह से बीजेपी 243 में सिर्फ 102 पर ही लड़ती रही है. ऐसे में पार्टी के सामने भी जातीय समीकरण में फिट आने वाले सशक्त उम्मीदवारों की कमी है और पार्टी नीतीश-लालू खेमे में बगावत पर ज्यादा फोकस कर रही है. बीजेपी की नजर आरजेडी से अलग हुए पप्पू यादव पर भी है जो एनडीए में शामिल हुए बिना भी बीजेपी को परोक्ष रूप से फायदा पहुंचा सकते हैं.
बात सिर्फ जाति की
बिहार चुनाव में भले दोनों गठबंधन विकास के विजन के साथ चुनाव अभियान का आगाज कर चुका हो, लेकिन हकीकत यह है कि दोनों की जमीन जातीय समीकरण पर आकर टिक गई है. लोकसभा चुनाव के बाद हुए उपचुनावों में हार के बाद भूमिहार की नाराजगी दूर करने के लिए गिरिराज सिंह को मोदी सरकार में मंत्री बनाया गया तो मृदुला सिन्हा को गोवा का राज्यपाल बनाकर भी संदेश देने की कोशिश हुई. राजीव प्रताप रूडी और रामकृपाल यादव को भी मंत्री उपुचनाव की हार के बाद सामाजिक गठजोड़ को मजबूत करने की रणनीति के तहत ही बनाया गया. अब लालू-नीतीश-कांग्रेस के गठबंधन के बाद बीजेपी ने यादव वोट को बांटने की रणनीति पर खास फोकस किया है. पार्टी ने यादव समाज के स्थापित या पुराने नेताओं को छोड़ दूसरी पीढ़ी के यादव नेताओं पर ध्यान दिया और बड़ी संख्या में पार्टी में शामिल कराया गया है. बीजेपी की ओर से मुख्यमंत्री पद की दौड़ में शुमार एक नेता के मुताबिक, “हम 25-30 उम्मीदवार यादव उतारेंगे.” चुनाव पर अध्ययन करने वाली संस्था सीएसडीएस के डायरेक्टर संजय कुमार का कहना है कि चुनावी अंकगणित के लिहाज से फिलहाल लालू-नीतीश गठबंधन मजबूत दिखाई पड़ता है क्योंकि मुस्लिम और यादव वोटों का ध्रुवीकरण तो होगा ही, इसमें कुर्मी और अन्य वोट भी जोड़ दिया जाए तो यह खेमा आगे है, लेकिन सीटों का बंटवारा सही तरीके से नहीं हुआ तो यह पलड़ा हल्का भी पड़ सकता है. एनडीए की संभावना पर संजय कुमार का आकलन है, “बीजेपी को दलित वोटों का फायदा मिलेगा. मांझी के साथ रामविलास पासवान एनडीए में हैं. लेकिन लोकसभा में एनडीए को जो वोट मिला वह अधिकतम था और अब उसके बढऩे की गुंजाइश नहीं दिखती.”
नीतीश पर वार, बरास्ता लालू
बीजेपी ने चुनावी रणनीति को बेहद आक्रामक तरीके से बढ़ाने का फैसला किया है. बूथ स्तर तक की रोजाना रिपोर्ट पर आलाकमान की नजर है तो चुनाव अभियान में मोदी सरकार के एक साल के कामकाज और लालू-नीतीश की नाकामी को धारदार तरीके से जनता के बीच ले जाने की रणनीति पर काम शुरू कर दिया है. मोदी सरकार इसी महीने बिहार के लिए विशेष पैकेज की घोषणा करने जा रही है. पार्टी की रणनीति इस चुनाव को पूरी तरह से लालू विरोधी लहर में तब्दील करने की है इसलिए पार्टी का हर बड़ा-छोटा नेता लालू के 15 साल के शासन को जंगल राज बता नीतीश पर निशाना साध रहा है. पूर्व उपमुख्यमंत्री सुशील मोदी कहते हैं, “इस गठजोड़ ने हमें कांग्रेस के भ्रष्ट राज और जंगल राज याद दिलाने का अवसर दिया है. नीतीश को 10 साल मौका दिया जनता ने, लेकिन लोग अब बदलाव चाहते हैं. यादव समाज कभी भी नीतीश को नेता स्वीकार नहीं करेगा.” केंद्रीय संचार मंत्री रविशंकर प्रसाद तो इस गठबंधन को बिहार की जनता के साथ क्रूर मजाक करार दे रहे हैं. कभी लालू के करीबी रहे और अब मोदी सरकार में मंत्री रामकृपाल यादव का कहना है, “आरजेडी का कोर वोटर पीठ की चोट बर्दाश्त कर सकता है, लेकिन पेट की नहीं. नीतीश राज में आरजेडी के कोर वोटरों को चपरासी की नौकरी के लिए भी संघर्ष करना पड़ा है.”
चेहरे पर है एनडीए में घमासान
नीतीश कुमार के मुकाबले एनडीए का उम्मीदवार कौन? इस सवाल के जवाब में बीजेपी सामूहिक नेतृत्व में जाने की दुहाई देती है. सुशील मोदी स्वाभाविक पसंद हैं लेकिन उनका नाम घोषित करने से अंदरूनी विरोध पार्टी को दिल्ली विधानसभा चुनाव वाली स्थिति में लाकर पटक सकता है. मोदी कहते हैं, “हमारे यहां एक दर्जन लोग हैं जो मुख्यमंत्री बनने की योग्यता रखते हैं. उनमें से कई लोग मुझसे वरिष्ठ भी हैं. हमारा मकसद सीएम नहीं, प्रदेश में बीजेपी की सरकार बनाना है.” बीजेपी के नेता अब हरियाणा, झारखंड और महाराष्ट्र में बिना सीएम उम्मीदवार के चुनाव जीतने की दलील दे रहे हैं. पार्टी में अभी यह तय नहीं किया गया है कि उम्मीदवार उतारा जाए या नहीं. सूत्रों की मानें तो शाह इस बात पर भी विचार कर रहे हैं कि वोटों का ध्रुवीकरण के लिए क्या सवर्ण नेता को सीएम उम्मीदवार के तौर पर पेश किया जा सकता है.
जातीय समीकरणों में उलझी यह लड़ाई बीजेपी के लिए आसान नहीं है, इसलिए खुद शाह ने बिहार चुनाव की कमान संभाल ली है. लेकिन यह तय है कि दोनों गठबंधन के लिए यह चुनाव वाटरलू की लड़ाई साबित होगी.