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करवट बदलती सियासत की पड़ताल: 'बिहार डायरी बिफोर इलेक्शन-2'

लोकसभा चुनाव से ठीक पहले बिहार के सियासी समीकरणों में भारी फेरबदल होता नजर आ रहा हैं. कुछ पार्टियों के भीतर ही बगावती बिगुल और 'कुनमुनाहट' सुनाई पड़ रही है, तो कुछ 'लोटे' इधर से उधर ढनकने के लिए सही मौके की तलाश कर रहे हैं. ऐसे में उबाल खाती सियासत सर्दी में भी गर्मी का एहसास करा रही है.

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aajtak.in
  • पटना,
  • 01 फरवरी 2014,
  • अपडेटेड 2:43 PM IST

लोकसभा चुनाव से ठीक पहले बिहार के सियासी समीकरणों में भारी फेरबदल होता नजर आ रहा हैं. कुछ पार्टियों के भीतर ही बगावती बिगुल और 'कुनमुनाहट' सुनाई पड़ रही है, तो कुछ 'सियासी लोटे' इधर से उधर ढनकने के लिए सही मौके की तलाश कर रहे हैं. ऐसे में उबाल खाती सियासत सर्दी में भी गर्मी का एहसास करा रही है.

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बिहार की बड़ी पार्टियां और उसके कर्ता-धर्ता क्‍या सोचते हैं, राजनीति की गाड़ी किस दिशा में आगे जा रही है, वोटरों का मन-मिजाज कैसा है, इसकी पड़ताल सटीकता और निष्‍पक्षता से किए जाने की दरकार लाजिमी ही है.

हम बिहार से जुड़े स्‍वतंत्र पत्रकार सुशांत झा की 'बिहार डायरी बिफोर इलेक्शन' की दूसरी किस्‍त यहां पेश कर रहे हैं. उनके चुनावी विश्‍लेषण को आप अन्‍य कई किस्‍तों में चुटीले अंदाज में पढ़ सकेंगे.

1. ''शरद यादव नाक रगड़कर रह गए, नीतीश ने राज्यसभा नहीं दिया. सन् 2009 के लोकसभा चुनाव में गुरु जॉर्ज के साथ ऐसा ही हुआ था. अब शरदजी को डर है कि कहीं मधेपुरा में तीसरे नंबर पर खेत न हो जाएं, क्योंकि मधेपुरा का 'भूगोल' और 'इतिहास' दोनों बदल चुका है और नए यादव कुंअर भगवा साफा पहनकर ताल ठोक रहे हैं. ऐसे में दार्शनिक भाव अपनाते हुए शरदजी लोकसभा चुनाव नहीं लड़ने का ऐलान कर दें, तो कोई आश्चर्य नहीं. 2016 के राज्यसभा की आस हो सकती है.''

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''शरदजी, बाजी उसी समय चूक गए थे, जब नीतीश ने बीजेपी से नाता तोड़ लिया था. वे उस समय चाहते तो जद(यू) में बगावत करवाकर अपनी मर्जी का सीएम बनवा सकते थे. अब उनके पास नीतीश को देने या नीतीश से छीनने के लिए खास बचा नहीं है. लेकिन यादव खोपड़ी पिछले 40 साल से बिना जनाधार के भी कमाल करती आई है. ऐसे में एहतियातन हम अभी उनको खारिज नहीं कर रहे.''

2. ''शिवानंद, एनके सिंह और साबिर अली को कहा गया कि लोकसभा लड़िए. शिवानंद जानते हैं कि बक्सर में वे जगदानंद और लालमुनि चौबे के बीच पिस जाएंगे. लड़कपन का जो भी एहसान था, नीतीश ने चुका दिया है. बाबा के नाम पर वोट मिलेगा नहीं और वे चंदा ला नहीं सकते. एनके सिंह फंड रेजर थे, लेकिन इस बार उनका सेठ, मोदी-मोदी जाप कर रहा है. ऐसे में उनकी उपयोगिता बची नहीं और वैसे भी जद(यू) में चुनाव लड़ने 'लायक' राजपूतों का टोटा है. सो उन्हें बांका से लड़ने के लिए बोला गया हैं, जहां से वे पुतुल सिंह के सामने शहीद होने को तैयार नहीं हैं. वैसे भी दोनों परिवारों के बीच मधुर संबंध हैं (हालांकि सियासत में इसका बहुत मतलब नहीं).''

''रही बात साबिर अली की तो, साबिर-थैलीवाले नेता हैं. जितना 'इनवेस्ट' किया था, उतना वक्त राज्यसभा में काट चुके हैं. अब शिवहर या सीतामढ़ी से लड़ने में कोई गुरेज नहीं है, हालांकि विकेट बहुत कमजोर है. सीतामढ़ी में यादवों का इतिहास रहा है. ऐसे में राजद के यादव और जद(यू) के मुसलमान की लड़ाई में बीजेपी का कोई भी बनिया/सवर्ण या यादव नेता आराम से सीट निकाल लेगा. शिवहर में बनिए और राजपूत प्रबल हैं, हालांकि मुसलमान भी 18 फीसदी हैं.''

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पढ़ें: 'बिहार डायरी बिफोर इलेक्शन' की पहली किस्‍त

(यह विश्लेषण स्वतंत्र पत्रकार सुशांत झा ने लिखा है. वह इन दिनों 'बिहार डायरी बिफोर इलेक्शन' के नाम से एक सीरीज लिख रहे हैं.)

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