
बिहार विधानसभा चुनाव की सियासी बिसात बिछाई जाने लगी है. बिहार विधानसभा के बजट सत्र के दौरान मंगलवार को तीन साल बाद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव के बीच कमरे में 20 मिनट की मुलाकात हुई. नीतीश कुमार ने बीजेपी की परवाह किए बगैर आरजेडी द्वारा विधानसभा में लाए गए एनआरसी के खिलाफ प्रस्ताव को पास किया तो एनपीआर को 2010 के स्वरूप से लागू करने का फैसला लिया है.
नीतीश कुमार के इस मास्टरस्ट्रोक से उन्हें चुनाव में कितना फायदा होगा ये तो वक्त बताएगा, लेकिन बीजेपी के लिए 20 मिनट की मुलाकात बहुत भारी पड़ रहा है. माना जा रहा है कि बिहार चुनाव में बीजेपी के कोर मुद्दे को ही मुख्यमंत्री नीतीश ने खारिज कर दिया है तो आरजेडी इस मुद्दे को अपनी फतह बता रही है. इसे नीतीश कुमार ने सीएए-एनपीआर पर कदम उठाकर अपनी सेकुलर छवि को बनाए रखने की कोशिश के तहत देखा जा रहा है.
बिहार के मौजूदा राजनीतिक हालात में नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव दोनों की अपनी-अपनी सियासी मजबूरियां हैं, जिसके तहत दोनों बिना सहारे के कोई करिश्मा करने की स्थिति में नहीं हैं. इसीलिए नीतीश-तेजस्वी की मुलाकात को लेकर सियासी हलकों में कयास लगाए जा रहे हैं कि फिर से कहीं साल 2020 में चाचा-भतीजा एकसाथ तो नहीं होने वाले हैं?
जामिया मिल्लिया इस्लामिया विश्वविद्यालय के राजनीतिक विभाग के असिस्टेंट प्रोफेसर अरविंद कुमार कहते हैं कि बिहार में राजनीति के मौजूदा समय में तीन सियासी ध्रुव हैं, जिनमें एक आरजेडी, दूसरी जेडीयू और तीसरी बीजेपी है. इनमें से कोई भी दो दल आपस में हाथ मिलाते हैं तो वही सत्ता पर काबिज हो जाते हैं. बिहार में तेजस्वी यादव अभी तक अपने आपको नीतीश कुमार के विकल्प के तौर पर स्थापित नहीं कर सके हैं.
वह कहते हैं कि ऐसे में सकता है कि वो नीतीश को एक और मौका देने का मन बना रहे हों और खुद को डिप्टी सीएम के तौर पर देख रहे हों. वहीं, नीतीश बिना किसी सहयोग के कभी भी सत्ता पर काबिज नहीं हो सके और फिलहाल बीजेपी के साथ खुद को असहज महसूस कर रहे हैं. इस तरह से दोनों की अपनी-अपनी सियासी मजबूरियां और हालात हैं, जिसके चलते दोनों के एक दूसरे के साथ हाथ मिलाने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है.
ये भी पढ़ें: नीतीश राज में NRC नहीं, बिहार विधानसभा में प्रस्ताव पास, NPR में भी बदलाव
अरविंद कुमार कहते हैं कि नीतीश कुमार एनआरसी को लेकर इन दिनों बहुत परेशान चल रहे हैं, क्योंकि उन्हें लग रहा है कि अल्पसंख्यक समाज उनसे दूर जाने लगा है. इसके जरिए मुसलमानों को एक बड़ा संदेश भी दे दिया कि वो बीजेपी के साथ रहते हुए भी मुसलमानों के अधिकार की बात करते हैं. इसके जरिए अल्पसंख्यकों के बीच नीतीश कुमार अपनी छवि को सुधारने की कोशिश में हैं. इसके अलावा नीतीश ने बीजेपी को भी संदेश दे दिया है कि वो उनके साथ रहते हुए अपने एजेंडे पर कायम हैं.
वरिष्ठ पत्रकार अरविंद मोहन कहते हैं कि बिहार में बीजेपी और नीतीश के बीच दोस्ती एक अंधे और एक लंगड़े जैसी है, जो एक दूसरे के बिना किसी काम के नाम नहीं है. नीतीश शुरू से कभी जॉर्ज के मत्थे, तो कभी लालू के सहारे, तो कभी बीजेपी के कंधे पर सवार होकर सियासत करते रहे हैं. बीजेपी बिहार में अपने बल पर राज नहीं कर सकती है तो नीतीश कुमार उनके लिए जरूरी हैं. वहीं, नीतीश कुमार अपने बल पर चुनाव नहीं जीत सकते हैं तो उनके लिए एक सहारे की जरूरत है. इसके बावजूद बीजेपी किसी भी सूरत में नीतीश का साथ नहीं छोड़ना चाहती है.
ये भी पढ़ें: सीएम नीतीश कुमार बोले- मुफ्त नहीं, सस्ती बिजली मिलनी चाहिए
हालांकि, अरविंद कुमार कहते हैं कि नीतीश कुमार समाजवादी आंदोलन से निकले हैं और सत्ता की मजबूरी ने उन्हें बीजेपी के संग खड़ा कर दिया है. वहीं, बीजेपी के नेता संजय पासवान और गिरिराज सिंह जैसे नेता लगातार नीतीश कुमार को लेकर लगातार बयानबाजी करते रहते हैं और यह संदेश देने की कोशिश करते रहते हैं कि जेडीयू से ज्यादा वोट पाने के बाद भी सीएम का पद काबिज होने में कामयाब रहते हैं.
दूसरी ओर विपक्ष में जिस तरह से तेजस्वी के नाम पर अभी तक सहमत नहीं बन पाई है. इस बात को तेजस्वी भी समझ रहे हैं और ऐसे में वो सियासी नफा नुकसान तलाश रहे हैं. इसी के तहत दोनों एक दूसरे से हाथ मिला सकते हैं, क्योंकि राजनीति में कोई हमेशा के लिए न तो दोस्त होता है और न ही दुश्मन.