
असम विधानसभा ने 15 सितंबर को एक प्रस्ताव पारित कर 'असम की जनसंख्या और महिला सशक्तीकरण नीति 'को स्वीकार कर लिया. नीति के अनुसार यदि किसी व्यक्ति की दो से ज्यादा संतानें हैं, तो वह नगर निगम और पंचायत के चुनाव नहीं लड़ सकता, सरकारी नौकरी नहीं पा सकता और वह कई अन्य सरकारी लाभों से वंचित हो जाएगा. नीति में यह भी कहा गया है कि जो लोग शादी करने की कानूनी उम्र का उल्लंघन करते हैं, उन्हें भी असम में सरकारी नौकरी नहीं मिलेगी.
यह प्रस्ताव पारित करते हुए असम के वित्त मंत्री हेमंत बिस्वा शर्मा इस मामले में स्पष्ट थे कि इस नीति के निशाने पर कौन हैः ''जनसंख्या के आंकड़ों से पता चलता है कि हिंदुओं की जनसंख्या घट रही है, जबकि अल्पसंख्यकों की जनसंख्या में भारी इजाफा हो रहा है. हमें देश के लोगों के अधिकारों की रक्षा करनी होगी. असम की जनसांख्यिकी में बदलाव चिंता की बात है.''
एक ऐसे राज्य में जहां नौ मुस्लिम बहुल जिलों की जनसंख्या पूरे राज्य के औसत दशकीय वृद्धि के मुकाबले तेजी से बढ़ी हो (देखें ग्राफिक)-जिससे यह धारणा बनती है कि बांग्लादेश से आने वाले अवैध घुसपैठियों में उच्च जन्मदर ने जनसांख्यिकी को बदल दिया है—इस नीति को वहां के मूल निवासियों का व्यापक समर्थन मिला है. इस अंदेशे को कई सरकारी रिपोर्टों से हवा मिली है, जैसे असम के मूल निवासियों के भूमि अधिकारों के संरक्षण के लिए समिति की अंतरिम रिपोर्ट जिसमें यह कहा गया है कि राज्य के 33 में से 15 जिलों में 'घुसपैठियों' की प्रभावी उपस्थिति हो गई है.
इस साल फरवरी में असम सरकार ने मूल निवासियों के भूमि अधिकारों के संरक्षण के उपाय सुझाने के लिए यह कमेटी बनाई थी. तब मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल ने कहा था, ''भूमि के बिना असमी नस्ल का कोई अस्तित्व नहीं हो सकता...इस बारे में किसी तरह का समझौता नहीं किया जाएगा.'' पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त हरि शंकर ब्रह्मा की अध्यक्षता वाली इस समिति ने जुलाई माह में अपनी रिपोर्ट दी थी, लेकिन अभी तक सरकार ने इसे सार्वजनिक नहीं किया था.
ब्रह्मा ने पहले यह कहा था कि असम के 90 फीसदी मूल निवासियों के पास जमीन का स्थायी 'पट्टा' (भूमि स्वामित्व का कानूनी दस्तावेज) ही नहीं है. उन्होंने कहा था, ''पूरे असम में करीब 63 लाख बीघा (1 बीघा=14,400 वर्ग फुट) जमीन पर अवैध कब्जा है, जिसमें वन और चरागाह भूमि शामिल है.'' ब्रह्मा ने नौगांव के एक अतिरिक्त उपायुक्त की रिपोर्ट के हवाले से बताया था कि जिले में करीब 70 फीसदी भूमि मालिक गैर मूल निवासी हैं.
विरोधी दलों का कहना है कि यह जनसंख्या नीति सांप्रदायिकता से प्रेरित है. विरोधी दल इस पर उंगली उठाते हैं कि मुस्लिम जनसंख्या के बढऩे पर शोर करने वाली भगवा पार्टी आखिर किस तरह से बांग्लादेश से आने वाले अवैध हिंदू प्रवासियों को नागरिकता देने के लिए बेताब है. पूर्व मुख्यमंत्री तरुण गोगोई कहते हैं, ''भाजपा यदि जनसंख्या नियंत्रण को लेकर गंभीर है, तो वह दूसरे देशों से आने वाले गैर मुसलमानों का स्वागत क्यों करना चाहती है?
ऑल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट के प्रमुख बदरुद्दीन अजमल इसे एक बेकार की प्राथमिकता के रूप में देखते हैं. उन्होंने कहा, ''मुसलमान राज्य की नौकरियों में एक फीसदी से भी कम हैं. भाजपा सरकार अब इस सीमित अवसर को भी अवरुद्ध कर देना चाहती है. धारणा बनी है कि मुसलमानों के ज्यादा बच्चे होते हैं, लेकिन यह अशिक्षा और गरीबी की वजह से है. सरकार इन हालात में बदलाव के लिए कुछ नहीं कर रही है.''
जब यह नीति इस साल सबसे पहले अप्रैल में प्रस्तावित की गई तो ऑक्सफैम इंडिया ने इसकी यह कहकर आलोचना की कि इससे महिलाओं के प्रजनन के अधिकार का उल्लंघन होता है. ऑक्सफैम की निशा अग्रवाल ने कहा, ''ऐसी नीतियां बनाने वाले दूसरे राज्यों (एमपी, गुजरात, राजस्थान आदि) में रिसर्च करने पर यह पता चला कि इस आधार पर उम्मीदवारी खत्म करने की नीति से परिवारों में टूट, असुरक्षित गर्भपात, बच्चों को छोड़ देने या पुरूष उम्मीदवारों के नई शादी करने जैसी चीजों को बढ़ावा मिला. औरतों को तो इस अपात्रता की शर्त का दोहरा खामियाजा भुगतना पड़ता है.''