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सांसद की कुर्सी के साथ अदालतों में काला गाउन पहन कर वकालत कर सकेंगे? क्या उनका ऐसा करना बार काउंसिल ऑफ इंडिया के नियमों के खिलाफ है? इस पर बार काउंसिल ऑफ इंडिया शुक्रवार को अपनी विशेष मीटिंग में विचार करेगा.
बार काउंसिल ऑफ इंडिया 22 दिसंबर यानी शुक्रवार को होने वाली मीटिंग में इस मुद्दे पर चर्चा करेगा कि वकालत की डिग्री हासिल करने वाले विधायक और सांसद अपने कार्यकाल के दौरान कोर्ट में वकालत कर सकते हैं या नहीं. ये अहम मसला काउंसिल की निगाह में बीजेपी नेता और सुप्रीम कोर्ट के वकील अश्विनी उपाध्याय लेकर आए हैं.
बार काउंसिल के साथ-साथ अश्विनी उपाध्याय ने अपनी याचिका की प्रति सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस दीपक मिश्रा को भी भेजी है. बार काउंसिल ऑफ इंडिया के अध्यक्ष मनन मिश्रा का कहना है कि मसला तो गंभीर है और जो सवाल उठाये गए हैं वो भी वाजिब ही लग रहे हैं. लेकिन इस बारे में अध्यक्ष अकेले नहीं बल्कि पूरी परिषद अपनी आम बैठक में चर्चा करके तय करेगी क्योंकि बार काउंसिल के नियम तो साफ तौर पर एक साथ दो जगहों से मेहनताना लेने से मना करते हैं. यानी किसी और जगह काम करने के साथ साथ वकालत जैसे फुल टाइम पेशे के साथ अन्याय है.
बार काउंसिल ऑफ इंडिया की नियमावली के भाग छह और अध्याय दो की धारा सात के मुताबिक कोई भी वकील किसी बिजनेस में व्यक्तिगत रूप से हिस्सा नहीं ले सकता है. हां, वो स्लिपिंग पार्टनर रह सकता है. बोर्ड का डायरेक्टर या चेयरमैन हो सकता है, लेकिन फुलटाइम का नहीं. अपनी दलीलों और नियमावली के साथ उपाध्याय ने सुप्रीम कोर्ट के 1996 में आए एक फैसले की प्रति भी लगाई है.
डॉ. हनीराज एल.चुलानी बनाम बार काउंसिल ऑफ महाराष्ट्र एंड गोवा के मुकदमे में तीन जजों की बेंच ने साफ शब्दों में फैसला दिया कि वकालत दो घोड़ों पर सवारी करते हुए नहीं की जा सकती. लीगल प्रोफेशन को फुलटाइम अटेंशन चाहिए. डॉ. चुलानी निजी डॉक्टर की हैसियत से प्रैक्टिस भी करते थे और वकालत भी. लेकिन इस फैसले में कोर्ट ने डॉ. चुलानी से कहा था कि वो डॉक्टरी के पेशे से इस्तीफा दें तभी इस मामले में वकालत कर सकते हैं.
संविधान और बार काउंसिल की नियमावली का तुलनात्मक विवरण देखें तो सांसद पूरे देश के 1.3 बिलियन आबादी की नुमाइंदगी करते हैं. एक सांसद पर औसतन सवा दो मिलियन लोगों की जिम्मेदारी का भार होता है. उसे संसद की बैठकों में जाकर अपनी समस्याएं बताने, उनका हल तलाशने और हर एक साल मिलने वाले पांच करोड़ रुपये की सांसद क्षेत्र विकास निधि को खर्च कर कल्याणकारी योजनाएं बनवाने और उनपर अमल करने का जिम्मा भी होता है.
ऐसे में आए-दिन इन सांसदों, विधायकों का काला गाउन पहन कर अदालतों के गलियारों में घूमने और अपनी वकालत का धंधा चमकाने का क्या तुक है. क्या ये सांसद अपने दोनों पेशे के साथ न्याय कर पा रहे हैं? ऐसे में देखना दिलचस्प होगा कि बार काउंसिल ऑफ इंडिया इस बाबत क्या फैसला करती है. अगर फैसला टालमटोल वाला हुआ तो उपाध्याय उसे चुनौती देने सुप्रीम कोर्ट जा सकते हैं.