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उपचुनाव नतीजे वसुंधरा सरकार के लिए खतरे की घंटी, इन 5 कारणों से बढ़ी चिंता

राजस्थान में उपचुनाव का परिणाम सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के लिए दुखद रहा और वह भी तब जब उसे करीब 10 महीने बाद होने वाले विधानसभा चुनाव में सत्ता बचाए रखने की जद्दोजहद करने के लिए मैदान पर उतरना है.

वसुंधरा राजे (फाइल फोटो) वसुंधरा राजे (फाइल फोटो)
aajtak.in
  • नई दिल्ली,
  • 02 फरवरी 2018,
  • अपडेटेड 11:42 PM IST

राजस्थान में उपचुनाव का परिणाम सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के लिए दुखद रहा और वह भी तब जब उसे करीब 10 महीने बाद होने वाले विधानसभा चुनाव में सत्ता बचाए रखने की जद्दोजहद करने के लिए मैदान पर उतरना है.

इस साल के अंत में होने वाले विधानसभा चुनाव से पहले 3 सीटों पर हुए उपचुनाव को राजस्थान की सत्ता का 'सेमीफाइनल' माना जा रहा था. लेकिन बजट के दिन दोपहर बाद जब दो लोकसभा (अलवर और अजमेर) के साथ-साथ मांडलगढ़ विधानसभा उपचुनाव के परिणाम आए तो वो भाजपा के लिए किसी बड़े सदमे से कम नहीं थे क्योंकि मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने उपचुनाव में अपनी पूरी कैबिनेट लगा दी थी, लेकिन पार्टी एक सीट भी हासिल नहीं कर सकी.

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दूसरी ओर, सत्ता में वापसी की तैयारियों में जुटी कांग्रेस पार्टी ने तीनों सीटों पर बड़ी जीत का परचम लहरा दिया. परिणाम के बाद अब भाजपा खेमा मायूस है जबकि कांग्रेस के लिए यह जीत बड़ी संजीवनी साबित होती दिख रही है. इस हार के बाद भाजपा के लिए 5 सिरदर्द पैदा हो गए हैं.

उपचुनाव में जीत का ट्रेंड

भारतीय राजनीति में यह एक तरह का ट्रेंड रहा है कि उपचुनाव में ज्यादातर जीत उसी दल को मिलती हैं जो सत्ता में होता है. लेकिन राजस्थान में मामला बिल्कुल उलटा है. पिछले साढ़े 4 साल में राज्य में अब तक 8 उपचुनाव हुए जिनमें 6 बार जीत विपक्ष में बैठी कांग्रेस पार्टी को मिली और भाजपा को 2 मौकों पर जीत मिली. भाजपा के लिए अगले विधानसभा चुनाव से पहले ये शुभसंकेत नहीं है.

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राजस्थान की परंपरा

उपचुनाव के परिणाम भाजपा के लिए चिंताजनक इसलिए भी है क्योंकि राजस्थान में सत्ता को लेकर 1990 के बाद से एक ऐसी परंपरा चली आ रही है जिसे कोई भी पार्टी नहीं तोड़ सकी है. भाजपा ने मई, 1990 में राजस्थान में पहली पार सत्ता का स्वाद चखा, लेकिन इसके बाद यहां पर एक परंपरा चल निकली कि सत्ता एक बार भाजपा तो एक बार कांग्रेस के हाथ में गई. इस बार वसुंधरा की अगुवाई में भाजपा का राज चल रहा है और जिस तरह के हालिया परिणाम सामने आए हैं उससे पार्टी को डर सताने लगा है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता भी यहां राज्य में लगातार दूसरी बार सत्ता दिलाने में नाकाफी साबित हो सकती है.

मजबूत होती कांग्रेस

2013 में हुए पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा ने राज्य में अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करते हुए 200 में से 158 सीटों पर कब्जा जमाया था और इसके बाद 2014 में लोकसभा चुनाव में क्लीन स्वीप करते हुए सभी 25 सीटों पर कब्जा जमा लिया था. लेकिन इन परिणामों के इतर कांग्रेस ने अपनी स्थिति राज्य में लगातार सुधारी और बीच-बीच में हुए उपचुनाव में जीत भी हासिल की.  गुजरात की तरह राजस्थान में भी कांग्रेस पार्टी अपनी स्थिति मजबूत करती दिख रही है. आलाकमान के निर्देश के बाद राज्य में सभी विरोधी गुट एक हो गए हैं और साथ में चुनाव की तैयारी में जुटे हैं जिसका फायदा पार्टी को मिलता दिख रहा है. राज्य में सचिन पायलट, सीपी जोशी और जीतेंद्र सिंह भंवर गुट ने एक साथ चुनाव की लड़ाई लड़ी और यही हाल विधानसभा चुनाव में भी रहा तो भाजपा के लिए स्थिति संकटपूर्ण हो जाएगी.

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खिसकता परंपरागत वोट बैंक

भाजपा को उम्मीद थी कि उसे उसके परंपरागत वोट जरूर मिलेंगे, लेकिन 3 सीटों पर बड़े अंतर से मिली हार ने दिखा दिया है कि उसका अपने ही वोट बैंक ने साथ नहीं दिया. फिल्म पद्मावत के विरोध के कारण सुर्खियों में आई करणी सेना भाजपा की हार पर जश्न मना रही है, यानी कि राजपूतों के वोट भगवा पार्टी से खिसकते दिख रहे हैं. राज्य में गाय की राजनीति और राष्ट्रवाद के मामले पार्टी के काम नहीं आए. राजपूत के साथ-साथ जाट समुदाय भी अब बीजेपी के साथ जाता नहीं दिख रहा. अलवर लोकसभा सीट पर 1.96 लाख और अजमेर पर 84,000 मतों के अंतर से मिली हार सारी कहानी खुद ही कह देती है.

सत्ता विरोधी रुझान

वसुंधरा राजे की राज्य में पिछले 4 साल से सरकार है, और यहां पर उनकी कार्यप्रणाली से लोगों में नाराजगी देखी जा रही है. लोगों में सत्ता विरोधी रुझान बढ़ रहा है. उपचुनावों में कांग्रेस को मिले 30 फीसदी वोट इस बात की तस्दीक करते हैं. स्थानीय लोगों में राजे सरकार के तौर-तरीकों को लेकर भी नाराजगी दिख रही है. खासतौर से फिल्म पद्मावत की रिलीज, गौरक्षा के मामले समेत कई मुद्दों पर सरकार के रुख ने लोगों को निराश किया है.

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हालांकि राज्य में चुनाव में 9 महीने से ज्यादा का वक्त बचा है. वसुंधरा सरकार के पास इन बचे वक्त में अपनी स्थिति सुधारने का थोड़ा-बहुत मौका है, अब वक्त बताएगा कि राजस्थान में परंपरा कायम रहेगी या फिर वसुंधरा इस परंपरा को तोड़ेंगी.

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