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इस साल बोर्ड इम्तिहान के वक्त लाउडस्पीकरों के इस्तेमाल पर लगने वाली पाबंदी हटने और होली का हुल्लड़ शुरू होते ही पश्चिम बंगाल में चुनावी तपिश चरम पर होगी. लेकिन सियासी हलचल अभी से तेज हो चुकी है. बीजेपी ने मालदा की हिंसा पर केंद्र सरकार से लेकर राष्ट्रपति भवन तक अलख जगाकर ध्रुवीकरण की बिसात बिछा दी है.
सत्ताधारी दल तृणमूल कांग्रेस को कड़ी टक्कर देने की रणनीति के तहत वाम मोर्चे के नेता पूर्व मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने सार्वजनिक तौर पर कांग्रेस से गठजोड़ की वकालत कर दी. लेकिन साढ़े तीन दशक तक सीपीएम का गढ़ रहे पश्चिम बंगाल में 2011 में तृणमूल कांग्रेस की सुप्रीमो ममता बनर्जी ने जिस तरह 'पोरिबोर्तन' की आंधी बहाकर तख्तापलट कर दिया था, केंद्र में पहली बार बहुमत की सरकार बनाने वाली बीजेपी भी 2015 में 'पोरिबोर्तन' के खिलाफ नया परिवर्तन का नारा बुलंद करके कुछ वैसे ही करिश्मा करने का सपना संजोए बैठी है.
इसके पीछे बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह की यह सोच है कि मोदी के सत्तानसीं होने के बाद बदलाव की जो लहर बह रही है, उसमें मिशन बंगाल अहम कड़ी है. शाह का मानना है कि पार्टी की असली जीत तब होगी, जब बंगाल में भगवा ध्वज लहराएगा.
34 साल बना 39 साल
'पोरिबोर्तन' नोई पतन, और 34 साल बना 39 साल. ये दो नारे ही दो महीने बाद होने वाले पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव के लिए बीजेपी के अभियान के मुख्य बिंदु होंगे. इसमें बीजेपी यह कहेगी कि 34 साल तक लगातार शासन करने वाली वामपंथी सरकार ने सूबे को विकास से महरूम रखा तो 'पोरिबोर्तन' के नाम पर सत्ता में आई तृणमूल कांग्रेस की सुप्रीमो ममता बनर्जी का पांच साल का राज भी उसी कड़ी का हिस्सा साबित हुआ है.
'पोरिबोर्तन' के खिलाफ नया परिवर्तन का नारा बुलंद करके बीजेपी पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस के विकल्प के तौर पर उभरना चाहती है. फिलहाल यह स्थान वाम मोर्चे के पास है. राज्य में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की जमीनी लोकप्रियता से वाकिफ बीजेपी के रणनीतिकार यह मानकर चल रहे हैं कि विधानसभा चुनाव में मुद्दा ममता और उनका कामकाज ही रहने वाला है इसलिए उनको चुनौती बीजेपी या वाम मोर्चे से मिलेगी. दरअसल इसी के मद्देनजर बीजेपी का मकसद ममता के मुक्चय प्रतिद्वंद्वी के तौर पर उभरना है.
ध्रुवीकरण की बिसात
बिहार में गोमांस के मुद्दे पर ध्रुवीकरण की कोशिश भले औंधे मुंह गिरी हो, लेकिन पश्चिम बंगाल में बीजेपी एक बार फिर ध्रुवीकरण की दिशा में बढ़ती दिख रही है. हालांकि रणनीतिकारों का मानना है कि पश्चिम बंगाल में बिहार और उत्तर प्रदेश की तरह सांप्रदायिकता के आधार पर हिंदू-मुस्लिम वोटों का ध्रुवीकरण नहीं हो सकता.
इसलिए पार्टी नरम हिंदुत्व की रणनीति पर आगे बढ़ रही है, जिसके तहत ममता बनर्जी सरकार के राष्ट्रीय सुरक्षा से खिलवाड़ को मुद्दा बना रही है. हाल में 3 जनवरी को मालदा के कालियाचक में इदारा-ए-शरिया की ओर से आयोजित भीड़ ने जिस तरह पुलिस थाना, प्रशासनिक भवन पर हमला किया, उसे बीजेपी ने चुनावी मुद्दा बना लिया है.
पहले शाह ने तीन सदस्यीय कमेटी बनाकर मालदा भेजा लेकिन ममता सरकार ने उस टीम को मालदा रेलवे स्टेशन से ही जबरन वापस भेज दिया. उसके बाद राज्य बीजेपी के प्रभारी महासचिव कैलाश विजयवर्गीय के नेतृत्व में प्रतिनिधिमंडल ने केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह और राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी से मिलकर दखल देने की मांग की.
मालदा ही नहीं, बांग्लादेश सीमा से सटे ऐसे सभी इलाकों में बीजेपी तस्करी, अवैध हथियारों की सप्लाई, जाली करेंसी जैसे मुद्दों को उठाने जा रही है जिससे स्थानीय जनता पीड़ित है. हिंदू वोटों के ध्रुवीकरण की रणनीति के तहत सीमावर्ती जिलों में शरणार्थी सम्मेलन आयोजित करने की रणनीति बनाई गई है. बीजेपी के राष्ट्रीय सचिव और राज्य के सह-प्रभारी सिद्धार्थ नाथ सिंह कहते हैं, ''घुसपैठिए और शरणार्थी में फर्क है.
बांग्लादेशी शरणार्थियों को संरक्षण देने के लिए संसद में बिल लंबित है. हम 21 से 29 फरवरी तक सीमा से जुड़े जिलों में शरणार्थी सम्मेलन करेंगे.'' इन सम्मेलनों में सीमावर्ती इलाकों में हो रही अवैध गतिविधियों को संरक्षण देने का आरोप ममता सरकार पर लगाया जाएगा और उसे घेरने की कोशिश की जाएगी. हालांकि हाल ही में 8-9 जनवरी को कोलकाता में आयोजित ग्लोबल बिजनेस समिट में जिस तरह केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली, सड़क परिवहन मंत्री नितिन गडकरी, ऊर्जा मंत्री पीयूष गोयल ने ममता सरकार की तारीफ की थी, उससे स्थानीय इकाई में दुविधा पैदा हो गई थी. बाद में पार्टी ने मालदा की हिंसा को जोरशोर से उठाकर डैमेज कंट्रोल की कोशिश की.
चेहरा बनाम विकास का एजेंडा
बीजेपी यह मानकर चल रही है कि मुख्यमंत्री ममता बनर्जी चुनाव की मुख्य धुरी होंगी, लेकिन असली लड़ाई उन्हें कड़ी टक्कर देने की है जिसके लिए वाम मोर्चा और बीजेपी में होड़ है. शाह ने पिछले साल कोलकाता नगर निगम चुनाव के वक्त विक्टोरिया मेमोरियल के निकट आयोजित जनसभा में कहा था, ''जैसे मोदी जी ने कांग्रेस मुक्त भारत का लक्ष्य हासिल किया, वैसे ही अब हम तृणमूल मुक्त बंगाल चाहते हैं. जनता ने सीपीएम को मौका दिया, फिर 2011 में ममता को लाकर बदलाव किया लेकिन उन्होंने क्या किया सभी को मालूम है. अब जनता बीजेपी को मौका दे ताकि मोदी जी विकास के एजेंडे को राज्य में आगे बढ़ा सकें.''
भले बीजेपी ममता का मजबूत विकल्प होने का दंभ भर रही हो, लेकिन उसकी मुश्किल यह है कि डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के बाद बंगाल में पार्टी के पास ऐसा कोई चेहरा नहीं हुआ जिसके नाम को भुनाया जा सके. नेताजी सुभाषचंद्र बोस से जुड़े रहस्यों को सार्वजनिक करने की पहल कर पार्टी बंगाल में पैठ बनाना चाहती है. लिहाजा पार्टी ने बिना किसी चेहरे के चुनावी समर में उतरने का फैसला किया है. सिद्धार्थ नाथ सिंह कहते हैं, ''पश्चिम बंगाल की जनता को यह चुनना है कि उसे चेहरा (ममता) चाहिए या नरेंद्र मोदी के विकास का एजेंडा.''
इस नारे को बुलंद करने से पहले बीजेपी ने ममता को घेरने की पुख्ता रणनीति तैयार कर ली है. कानून-व्यवस्था और शारदा चिटफंड घोटाले जैसे भ्रष्टाचार के मुद्दों पर बीजेपी ममता सरकार को कठघरे में खड़ा करेगी. सूत्रों के मुताबिक, शारदा चिटफंड मामले की जांच कर रही सीबीआइ चुनाव से पहले गतिविधि बढ़ा सकती है. अगर सीबीआइ इस मामले में संदेह के घेरे में आए तृणमूल के कुछ नेताओं पर शिकंजा कसती है तो चुनाव से पहले बीजेपी मनोवैज्ञानिक बढ़त लेने की कोशिश करेगी.
इसके अलावा कानून-व्यवस्था के मामले में पुलिस-प्रशासन पर हमला, विश्वविद्यालयों में छात्रों-प्रोफेसरों की पिटाई, किसानों की दुर्दशा जैसे मुद्दे भी पार्टी के एजेंडे में है. राज्य बीजेपी के पूर्व अध्यक्ष और राष्ट्रीय सचिव राहुल सिन्हा कहते हैं, ''हम सीधे जनता तक पहुंच रहे हैं, बंगाल की जनता ममता सरकार की असलियत को समझ गई है. नौजवान समझ रहा है कि बीजेपी ही बेहतर विकल्प है. हमारा नारा होगा कि केंद्र और राज्य में एक ही पार्टी की सरकार होगी तो सूबे का तेजी से विकास होगा.''
उभरने लगे नए समीकरण
विधानसभा चुनाव की सरगर्मी बढ़ते ही सूबे में नए सियासी समीकरण भी उभरने लगे हैं. सीपीएम की ओर से कांग्रेस के साथ नजदीकी के संकेत से बीजेपी सतर्क हो गई है. हालांकि बीजेपी का मानना है कि अगर वाम मोर्चा-कांग्रेस का गठबंधन होता है तो इसका फायदा बीजेपी को मिलेगा क्योंकि मुस्लिम वोट बंट जाएगा.
दूसरी तरफ 34 साल के वाम मोर्चा शासन के समय से ही दोनों पार्टियों के कार्यकर्ताओं की दुश्मनी गहरी है जो इस गठबंधन को कबूल नहीं कर पाएंगे. बिहार चुनाव से पहले भी बीजेपी के रणनीतिकार ऐसी ही दलील देते थे जब लालू और नीतीश के बीच विलय/गठजोड़ की पहल हो रही थी. लेकिन लोकसभा चुनाव में मिले वोट प्रतिशत को जोड़कर बिहार में महागठबंधन आगे निकल गया था.
बंगाल में भी अगर वाम-कांग्रेस का गठबंधन होता है तो दोनों का वोट शेयर 39.64 फीसदी होता है जो तृणमूल कांग्रेस को मिले वोट 39.79 फीसदी के करीब पहुंच जाता है. ऐसे में लोकसभा चुनाव में 17.02 फीसदी वोट हासिल करने वाली बीजेपी का बंगाल में नंबर दो तक पहुंचने का सपना अधूरा रह जाएगा.
विधानसभा के बहाने 2019 की रणनीति
बीजेपी बंगाल में अपना पैर जमाने को हर जतन कर रही है, लेकिन हकीकत से वाकिफ बीजेपी के वरिष्ठ रणनीतिकारों के मुताबकि, नतीजों के बारे में स्पष्ट अनुमानों के बावजूद पार्टी पूरी ताकत से विधानसभा चुनाव लड़ेगी.
सूत्रों के मुताबिक, बीजेपी को बंगाल में जो बढ़ोतरी लोकसभा चुनाव के बाद दिख रही थी, उसमें कमी दिख रही है. इसकी पुष्टि कोलकाता नगर निगम चुनाव नतीजों से हुई. नवंबर 2014 में जब अमित शाह बंगाली भाषा सीख खुद नगर निगम चुनाव के प्रचार में उतरे तो उन्हें उम्मीद थी कि विधानसभा का सेमीफाइनल माने जाने वाले स्थानीय चुनाव में पार्टी को वाम मोर्चे से ज्यादा सीटं मिलेंगी.
लेकिन जब अप्रैल 2015 में नतीजे आए तो तृणमूल कांग्रेस ने कुल 144 में से पिछली बार की 95 सीटों के मुकाबले 114 सीटें जीती, जबकि वाम मोर्चा 33 से घटकर 15 सीटों पर आ गया. बीजेपी की सीटें 3 से बढ़कर 7 तक पहुंची, लेकिन वह नंबर दो पार्टी नहीं बन पाई. इसलिए बीजेपी ने बंगाल के लिए दीर्घकालिक रणनीति बनाई.
बीजेपी विधानसभा चुनाव में सीटों से ज्यादा वोट प्रतिशत बढ़ाने के लिए काम कर रही है. इसकी वजह है—2019 का लोकसभा चुनाव. बीजेपी के रणनीतिकारों के मुताबिक, अपने आधार वाले क्षेत्रों में पार्टी बेहतरीन प्रदर्शन कर चुकी है जहां अब कुछ बढऩे की गुंजाइश नहीं है. लिहाजा, पार्टी नए गढ़ की तलाश में है ताकि आगामी लोकसभा चुनाव में केंद्र की सत्ता से महरूम न होना पड़े.
पार्टी का मानना है कि अभी से बंगाल में पार्टी जमीन तक पहुंच जाए तो उसका सीधा लाभ आम चुनाव में मिलेगा. तथ्य यह भी है कि लोकसभा में बंगाल में बीजेपी को उन्हीं हलकों में ज्यादा वोट मिले जहां मजदूरी या कारोबार करने गए यूपी-बिहार या हिंदी भाषी राज्यों के लोग ज्यादा हैं और उस वक्त मोदी लहर थी.
संगठनात्मक आधार बढ़ाने की कोशिश
भले बीजेपी के पास ज्यादा उम्मीदवार नहीं हैं, लेकिन राज्य इकाई ने प्रधानमंत्री मोदी से 10 रैली कराने के लिए समय मांग लिया है. चुनाव की दृष्टि से राज्य को सात क्लस्टर में बांटकर रणनीति बनाई जा रही है. बूथों को तीन श्रेणी में बांटा गया है—पहले में करीब 60 हजार बूथ है जहां पार्टी 10-15 कार्यकर्ताओं की टीम होने का दावा कर रही है. जबकि बाकी 14 हजार बूथों पर वहां स्थिति कमजोर है, जो अतिसंवेदनशील और मुस्लिम बहुल माने जाते हैं.
बंगाल ऐसा राज्य है जहां बोर्ड परीक्षाओं की वजह से पूरे एक महीने तक माइक-लाउडस्पीकर पर पाबंदी रहती है. इसलिए बीजेपी ने जनवरी में ही चार बड़ी रैलियों के साथ चुनाव का आगाज कर दिया है. फरवरी में पार्टी का पूरा जोर संगठनात्मक तैयारियों पर होगा. 11 फरवरी से 20 फरवरी तक बूथ सम्मेलन होगा जिसमें केंद्रीय नेताओं के साथ राज्य-जिला स्तर के नेता भी शामिल होंगे. जबकि 21 से 29 फरवरी तक विधानसभावार सम्मेलन होंगे.
मार्च के पहले हफ्ते में चुनाव की अधिसूचना जारी होने की संभावना है. सीटों के लिहाज से पार्टी ने तीन श्रेणी बनाई है. 294 सीटों में से 165 ए तो 45 बी और बाकी 84 सीटें सी श्रेणी में है. लोकसभा चुनावों में पार्टी को 26 विधानसभा में बढ़त मिली थी, जबकि करीब 60 सीटों पर नजदीकी मुकाबले में पिछड़ गई थी. बंगाल में चुनाव में धांधली बेहद आम है, सो, पार्टी चुनाव आयोग से गुहार लगाकर सभी सीटों पर वीवीपीएटी (वोट की पुष्टि करने वाली प्रिंट) तकनीक लगाने की बात कर रही है. हिंसाकी आशंका से बीजेपी ने हर विधानसभा में सहायता के लिए एक लीगल टीम भी गठित कर दी है.
जाहिर है, बंगाल में बीजेपी के पास गंवाने को कुछ नहीं है. कुछ सीटें भी हासिल करके बीजेपी के पास संगठन विस्तार करने का मौका है. सवाल है कि क्या. बीजेपी अपने मंसूबे में कामयाब हो पाएगी?