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बम निरोधक दस्ता, मौत को मात देने का खेल

झारखंड के बम निरोधक दस्ते के सदस्यों के लिए विस्फोटकों को निष्क्रिय करना रोजमर्रा का काम है.

अमिताभ श्रीवास्तव
  • झारखंड,
  • 25 मई 2013,
  • अपडेटेड 6:23 AM IST

10 जनवरी की सर्द सुबह. 47 वर्षीय इंस्पेक्टर संजय कुमार राणा अपनी पत्नी सविता के साथ इत्मीनान से अदरक की गर्म चाय की चुस्कियां भर रहे थे. उनकी नजर 14 साल के बेटे ऋषभ पर थी जो उनकी छह साल की बेटी मेघना को स्पेलिंग याद करवा रहा था. दिन की इससे बेहतर शुरुआत नहीं हो सकती थी. हजारीबाग के पुलिस प्रशिक्षण कॉलेज में पढ़ाने वाले चश्माधारी मृदुभाषी राणा विस्फोटकों को निष्क्रिय करने में माहिर हैं. उनके राज्य झारखंड में बम को निष्क्रिय करना रूटीन काम जैसा है.

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पिछले चार साल यानी 2008 से 2012 के बीच जब देश में बारूदी सुरंग विस्फोट से की गई नक्सली हिंसा से कुल 3,659 मौतें हुई थीं (सुरक्षाकर्मियों और नागरिकों दोनों की) तो इनमें से एक-चौथाई अकेले झारखंड में हुई थीं. हालांकि यह राज्य दूसरे नंबर पर है क्योंकि नक्सली हिंसा से बुरी तरह ग्रस्त छत्तीसगढ़ में 1,244 मौतें हुई हैं. लेकिन छत्तीसगढ़ में जहां मौत का ग्राफ ऊपर की ओर जाता है, वहीं झारखंड में इसका मुंह नीचे की ओर है. 2008 में 207 मौतें हुई थीं जबकि 2012 में यह संख्या 162 पर आ गई. इसका श्रेय काफी हद तक इस बम निरोधक दस्ते को भी जाता है जिसने इस अवधि में 2,000 से ज्यादा बारूदी सुरंगों को निष्क्रिय किया है.

झारखंड के अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक एस.एन. प्रधान कहते हैं, “चरमपंथियों के खिलाफ जंग में हमारे बम निरोधक दस्ते हमारी सबसे बड़ी ताकत हैं.” अमेरिका में प्रशिक्षित राणा बम निरोधक छह इकाइयों में से एक का नेतृत्व करते हैं. जब एक फोन कॉल से राणा की सुबह की चाय की चुस्कियों में बाधा पड़ी तो यह एक ऐसे काम के लिए था जिससे वे बखूबी वाकिफ थे. प्रधान चाहते थे कि राणा टीम के साथ जल्दी रांची पहुचें क्योंकि उन्हें सीआरपीएफ के जवान बाबूलाल पटेल के पेट में ताकतवर इमप्रोवाइज्ड एक्सप्लोसिव डिवाइस (आइईडी) होने का संदेह था. प्रधान ने जब राणा को यह जिम्मेदारी सौंपी तो उन्होंने जवान के शरीर की पवित्रता का सिर्फ जिक्र किया लेकिन उनका संदेश स्पष्ट था कि शहीद के परिवार के लिए शव को बचा लेना.

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29 वर्षीय पटेल उन 10 जवानों में थे जिन्हें लातेहर में कटिया के जंगलों के भीतर 7 जनवरी को घेर कर नक्सलियों ने मार गिराया था. पटेल हफ्ते भर पहले ही छुट्टियों से लौटे थे. पुलिस को उनके शव 9 जनवरी को मिल पाए. लेकिन तीन ग्रामीण उस समय अपनी जान से हाथ धो बैठे जब एक दूसरे शव में लगी आइईडी फट गई. एडीजी का फोन आते ही राणा ने जल्दी से चाय के घूंट गटके और अपनी टीम के अन्य तीन सदस्यों को फोन किया—43 वर्षीय सब इंस्पेक्टर विजय रंजन, 42 वर्षीय सिपाही अशरफ कुरैशी और 35 वर्षीय अब्दुल करीम. उन्होंने बस इतना कहा, “राची के लिए तैयार हो जाओ.” आधे घंटे में टीम हजारीबाग से 100 किलोमीटर दूर रांची के लिए रवाना हो चुकी थी. एक रात पहले रांची के राजेंद्र इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज (रिम्स) में जब डॉक्टर शहीद हुए सिपाहियों की लाश का मुआयना कर रहे थे तो वे पटेल के पेट पर ताजे टांके देखकर चौंके थे. टांकों के पास कोई सूजन नहीं थी यानी ये टांके मरने के बाद लगाए गए थे.

शवों को खुले मैदान में रेत के बोरों के बीच रखा गया. राणा ने पूरा मुआयना किया लेकिन यह अंदाजा लगाना मुश्किल था कि वे जिस विस्फोटक से निबटने जा रहे थे उसकी क्षमता और उनके बचने की गुंजाइश क्या थी. जाहिर है, नक्सलियों को शरीर का वह हिस्सा काटकर अंग निकालकर उसमें बम प्लांट करने में काफी वक्त लगा होगा. राणा की टीम इस बर्बरता पर हैरान थी. एक पल के लिए राणा के दिमाग में इस शहीद जवान की विधवा का ख्याल आया और उनका ध्यान अपनी पत्नी सविता की ओर चला गया, जो बच्चों समेत उनका कितना खयाल रखती हैं. तब लगा कि परिवार को उनकी कितनी जरूरत होगी. लेकिन जल्द ही उन्होंने यह खयाल दिमाग से निकाल दिया. यह भावुक होने का वक्त नहीं था. टीम के सदस्यों ने एक-दूसरे से हाथ मिलाया, फिर धरती को छुआ ताकि ऐसे समय होने वाली शरीर की कंपकंपी शांत हो सके. बम विशेषज्ञों ने इस बात की पुष्टि कर दी थी कि लाश के भीतर कोई धातुनुमा बड़ी चीज है. सबसे आसान तरीका था कि नियंत्रित विस्फोट करवा दिया जाता, लेकिन मृतक के शरीर को उसके परिवार के लिए बचाने की जिम्मेदारी भी थी. इसके लिए राणा को लाश के करीब जाकर उसके ऊपर एक एक्स-रे स्कैनर रखना था और उससे जुड़े तार से एक लैपटॉप पर देखना था कि अंदर क्या है.

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राणा ने तय किया कि वे बम निरोधी सूट पहने बगैर शव तक जाएंगे. वे जानते थे कि प्रेशर-सेंसिटिव बमों से निबटने में 30 किलो का बम सूट समस्या पैदा कर सकता है. ऐसा पहली बार नहीं था कि राणा अपने काम से जुड़े दो अनिवार्य नियमों की अनदेखी कर रहे थे. हर बम निरोधक को बताया जाता है कि उसे “शहीद नहीं होना है” और “दूसरा मौका कभी नहीं मिलता.” राणा भी जानते थे कि कैसे इन नियमों की अनदेखी करने से कई बम विशेषज्ञ अपनी जान से हाथ धो चुके हैं. दिसंबर 2012 की ही बात है जब सीआरपीएफ का बम विशेषज्ञ डॉग हैंडलर जो आइईडीएस का पता लगाकर कई बार कई जानें बचा चुका था, झारखंड की झुमरा पहाडिय़ों में अपने स्निफर डॉग के साथ मारा गया था क्योंकि सड़क को सुरक्षित मानते हुए उसने अपना सुरक्षा कवच निकाल दिया था.

अकसर बम निरोधक दस्ते के सदस्यों को हालात को ध्यान में रखते हुए नियमों को ताक पर रखना पड़ जाता है. अक्तूबर 2012 में विशेष कार्यबल के 42 वर्षीय सब इंस्पेक्टर राजेश कुमार को पलामू में 15 किलोग्राम की एक आइईडी अपने हाथ में लेकर एक किलोमीटर तक जाना पड़ा था क्योंकि वह एक भीड़भाड़ वाले इलाके में मिली थी जहां उसे निष्क्रिय करना संभव नहीं था. वे कहते हैं, “मुझे ऐसा इसलिए करना पड़ा क्योंकि बम को लोगों की भीड़ से दूर ले जा के नष्ट करना था.” उस समय राजेश कुमार ने बम निरोधक सूट नहीं पहना था क्योंकि 30 किलो का सूट उनकी रफ्तार को रोक रहा था. 10 जनवरी को राणा के सामने भी ऐसा ही खतरा था. उन्होंने एक्स-रे स्कैनर को बड़ी सफाई से लाश पर रखा. रियल टाइम व्यूईंग सिस्टम के सहारे उन्होंने जो देखा, उसने उनकी आशंका को पुष्ट कर दिया. आइईडी लोहे के एक डिब्बे में रखी गई थी जो बैटरियों से जुड़ी थी और उसमें एक दाबमुक्त करने वाला उपकरण और डेटोनेटर भी बंधा हुआ था.

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टीम ने 10 मिनट तक चर्चा की, फिर तय हुआ कि कॉर्डेक्स वाटर चार्ज का इस्तेमाल किया जाए. यह बम को निष्क्रिय करने की एक ऐसी तकनीक होती है जिसमें पेंटाएरिथ्रीटोल टेट्रानाइट्रेट से भरे हल्के असर वाले डेटोनेटिंग कॉर्ड में नियंत्रित तरीके से टार्गेट के करीब विस्फोट कराया जाता है जिससे काफी गति से पानी की बौछार पड़े और डेटोनेटर कॉर्ड भीग जाए. फिर सीधे लक्ष्य की ओर पानी की बौछार छोड़ी जाती है जो सर्किट को काट कर बम को निष्क्रिय कर देती है.

यहां जरूरत यह थी कि पानी की बौछार इतनी तेज हो कि वह पहले टांकों को काटे और उसके बाद तारों को निष्क्रिय करे. छोटा विस्फोट मुमकिन था, दोनों को काटने के बराबर पानी की गति पैदा न कर पाता जबकि बड़े विस्फोट से बम फट भी सकता था. राणा के लिए यह दुधारी तलवार पर चलने जैसा था. पानी की बोतलें और कुछ हल्के विस्फोटक लाश के ऊपर रखे गए और पानी की धार उसके पास लगाई गई. चारों लोग दूर हट गए. अचानक हल्का विस्फोट हुआ और जैसा होना चाहिए था, वही हुआ. पानी के जेट ने टांके काट दिए और सर्किट को निष्क्रिय कर डाला. इसके बाद कोरे बम को हाथ से निकाला गया और एक सुरक्षित जगह पर उसमें विस्फोट कर दिया गया. खतरा टल चुका था. राणा ने फोन चालू किया, पत्नी को लगाया और बोले, “अरे यह तो रोजाना वाला काम था.”

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झारखंड के बम निरोधक दस्ते को रोज नई चुनौती से गुजरना होता है. वे देश के सबसे खतरनाक इलाके में बम निष्क्रिय करने और बारूदी सुरंगों को खत्म करने के काम में लगे हैं. झारखंड पुलिस के 24 बम निरोधक जवानों को, जो अलग-अलग जगहों पर तैनात हैं, हर दूसरे दिन कहीं न कहीं जाना ही पड़ता है. माओवादी हालांकि अब हमले के नए-नए तरीके ईजाद कर रहे हैं जिसकी वजह से उनका काम और अधिक चुनौती भरा होता जा रहा है.

राणा कहते हैं, “हमें सुरक्षित रहने के लिए चरमपंथियों की तरह सोचना पड़ता है.” पिछले दो साल से, पूरे देश में नक्सली हिंसा में 1,198 मौतें हुई हैं, जिनमें से अकेले झारखंड में 367 मौतें हुई हैं. 2006 में राणा की देख-रेख में पहली बम निरोधक यूनिट का गठन किया गया था. उसके बाद से बारूदी सुरंग विस्फोटों में होने वाली मौतों में कमी आई है. राणा की टीम के सदस्य रंजन कहते हैं, “छोटा-सा विस्फोट भी भूचाल जैसा दहलाने वाला होता है. पेड़ उखड़ जाते हैं और सड़कें अपनी जगह से एकाध मीटर दूर खिसक जाती हैं.” रंजन की 41 वर्षीया पत्नी विजेता विजय भी सब-इंस्पेक्टर हैं.

खतरे के बावजूद दस्ते के लोग मस्ती में जीते हैं. 52 वर्षीय बम विशेषज्ञ प्रदीप कुमार मजाक में कहते हैं, “हम भी आम इनसान हैं, बस एकाध सर्किट अलग है.” राणा के साथ 31 अगस्त, 2008 की रात रांची के बिग बाजार की दूसरी मंजिल पर एक टाइम बम को निष्क्रिय करने के लिए प्रदीप को हजारीबाग से बुलाया गया था. 45 मिनट में बम निष्क्रिय करने के बाद कुमार ने अपनी पत्नी सुशांति को रात 11 बजे फोन लगाया जो टीवी चैनल पर इस खबर को देख रही थीं. उन्होंने आटे पर चल रही सेल की बात अपनी पत्नी को बताई. पत्नी की रुचि किसी भी और चीज में नहीं थी बल्कि उन्होंने यह सुनकर चैन की सांस ली कि उनके पति का अभियान कामयाब रहा है.

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मौत का बारूदी जाल
नक्सलियों ने विस्फोटक छिपाने के लिए नए तरीके किए ईजाद
11 जनवरी, 2013
बेली बम शहीद जवान बाबूलाल पटेल के शरीर के अंग निकालकर उसमें 2.75 किलोग्राम की आइईडी लगा दी. इस आइईडी को बम निरोधक दस्ते ने निष्क्रिय किया. 
8 जनवरी, 2013
बॉडी बम अमवाटीकर जंगल में एक मुठभेड़ के बाद शहीद हुए 10 जवानों में से एक का शव उठाने के दौरान विस्फोट से 3 ग्रामीण मरे, जवान के शरीर में बम बांध दिया गया था.
15 मई, 2012
इंजन बम नक्सलियों ने ट्रेन को अपने कब्जे में लेकर उसके इंजन पर एक किलो का बम लगा दिया. इसे 15 किलोमीटर दूर मनोहरपुर स्टेशन पर निष्क्रिय किया गया.
19 मार्च, 2012
दूध में बारूद लातेहार के हुटार गांव में दूध के बर्तन में 5 किलोग्राम की एक आइईडी बरामद की गई.
16 दिसंबर, 2011
असामान्य जगहें रामगढ़ में जानवरों के शव और कपड़े में बांधकर पेड़ों पर बम फिट कर दिए गए, जिन्हें सुरक्षाकर्मियों ने निष्क्रिय किया.
26 जनवरी, 2011
खौफनाक उकसावा नक्सली धमकी लिखे झ्ंडे को उतारते ही विस्फोट, कोई पुलिसकर्मी हताहत नहीं.
14 जनवरी, 2011
बैक-अप बम उत्तरी सिंहभूम के चकुलिया में एक बम निष्क्रिय करते हुए बम निरोधक दस्ते को एक दूसरा बैक-अप बम मिला.
26 जून, 2010
मौत की सड़कें बोकारो में बारूदी सुरंग विस्फोट में 10 पुलिसकर्मी मारे गए. तीन दिन पहले पश्चिमी सिंहभूम  में इसी तरह के विस्फोट में 10 जवान शहीद हुए थे.
8 अक्तूबर, 2005
खतरनाक जाल चतरा जिले के बनियाडीह गांव में एक बक्से का ढक्कन खोलने से 12 जवान शहीद हुए और 10 घायल. बक्से में नकदी रखे होने की बात कही गई थी.

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