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कंधार विमान अपहरण पर एएस दुल्लत की चर्चित किताब के अंश

कंधार में तीन खूंखार आतंकियों की रिहाई कश्मीर में हाल के खूंरेजी भरे इतिहास में एक और शर्मनाक अध्याय जोड़ती है. रॉ के पूर्व प्रमुख ए.एस. दुल्लत की किताब में उस घटनाक्रम विस्तृत ब्यौरा है.

30 दिसंबर, 1999 को कंधार हवाई अड्डे पर अपहृत विमान आइसी-814 के पास डटे तालिबान लड़ाके 30 दिसंबर, 1999 को कंधार हवाई अड्डे पर अपहृत विमान आइसी-814 के पास डटे तालिबान लड़ाके
कावेरी बामज़ई
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  • 13 जुलाई 2015,
  • अपडेटेड 9:49 AM IST

कश्मीर में पिछली चौथाई सदी के दौरान हुई खूंरेजी के बारे में कुछ भी जानना हो तो अमरजीत सिंह दुल्लत से बेहतरीन बताने वाला कोई नहीं मिलेगा. पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के प्रमुख सचिव रहे मरहूम बृजेश मिश्र कहते थे कि कश्मीर में अगर कोई एक चीज वास्तव में सीधी है तो वे हैं चिनार के पेड़. दुल्लत को भी चिनार की ही तरह सीधा और सपाट माना जाता है. कश्मीर के मामले में उनकी विशेषज्ञता की वजह भी है. मई 1988 में जिस दिन उन्होंने श्रीनगर में गुप्तचर ब्यूरो के उपनिदेशक का कार्यभार संभाला, तबसे ही वे कश्मीरी सियासत का एक अहम हिस्सा रहे हैं. यह तब की बात है जब दो महीने बाद ही यहां अलगाववाद की आग भड़क उठी थी. उसके बाद चाहे पी.वी. नरसिंह राव का शब्बीर शाह के लिए उमड़ा प्रेम हो या फिर ओबेरॉय में प्रशिक्षित नौजवान उमर अब्दुल्ला को वाजपेयी से मिला  प्रोत्साहन, दुल्लत ने लगातार कश्मीर की जटिल समस्या का समाधन निकालने की कोशिश की, जो उनके लिए जितना राजनैतिक और भावनात्मक था, उतना ही मनोवैज्ञानिक भी.

अलगाववादियों के बीच चर्चित रहे दुल्लत ने कश्मीर में हर उस शख्स के साथ संवाद किया, जो वहां की राजनीति में थोड़ा भी मायने रखता था. उनकी पुस्तक कश्मीरः द वाजपेयी ईयर्स को पलटते हुए इन संवादों से गुजरना उन रेडियो तरंगों से वाकिफ होने जैसा है, जो राजकाज के ऊपरी हलकों के लिए सुरक्षित और गोपनीय रहती हैं. वे इस राज्य में कई गंवा दिए गए मौकों की जानकारी देते हैः मसलन, जेकेएलएफ के उग्रवादियों के बदले रुबाइया सईद की रिहाई, जिसने कश्मीरियों को यह मानने का मौका दिया कि आजादी करीब है; 1996 के कामयाब विधानसभा चुनावों के बाद एएफएसपीए को हटाने में नाकामी; कंधार विमान अपहरण कांड में आतंकियों की रिहाई; प्रखर राष्ट्रवादी नेता फारूक अब्दुल्ला को उपराष्ट्रपति पद का वादा करने के बाद उनका अपमान; यासीन मलिक में छुपी संभावनाओं को बर्बाद किया जाना (चेग्वारा के स्वयंभू संस्करण मलिक के बारे में दुल्लत मानते हैं कि बहुत ज्यादा उम्मीदें तो वैसे भी नहीं थीं लेकिन यह काफी निराशाजनक रहा); और 2004-07 के बीच मुशर्रफ  का कार्यकाल, जब वे चार-सूत्री फॉर्मूले की वकालत कर रहे थे.

दुल्लत अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल के बारे में भी बताते हैं जब वे रॉ प्रमुख के पद से रिटायर होने के बाद प्रधानमंत्री कार्यालय में सेवाएं दे रहे थे. मसलन, वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी के बीच तनाव बढऩे पर वाजपेयी खुद ही उनके घर भोजन पर चले गए थे; या 2004 का चुनाव हारने के बाद वाजपेयी ने 2002 के गुजरात दंगों के संदर्भ में अपनी चुप्पी के बारे में कहा था कि “वो हमारे से गलती हुई.” वे बृजेश मिश्र के बारे में बताते हैं जो पाकिस्तान के खिलाफ निर्णायक कार्रवाई करने से ठीक पहले 13 दिसंबर, 2001 को संसद पर हुए हमले को अपने कमरे में धुआं उड़ाते हुए टीवी पर देख रहे थे. दुल्लत कहते हैं कि जिस राज्य की किस्मत पाकिस्तान के अहंकार और भारत के अटूट अंग वाले संकल्प के बीच अटकी हो, वहां दीर्घकालीन शांति की राह में दो बड़े अवरोध हैं&एक, कश्मीरी पंडितों की आहत भावनाएं और दूसरे, मुसलमानों का अघोषित भय कि गैर-मुस्लिम उन्हें बर्बाद कर देंगे. दुल्लत कहते हैं कि इकलौता समाधान श्रीनगर में सभी के साथ बात करते रहना है, भले ही “अलगाववादी नेतृत्व ने बार-बार कश्मीर को निराश किया हो क्योंकि वे खुद को पाकिस्तान के प्रति जवाबदेह समझते हैं.” वे कहते हैं कि ऐसा नहीं किया गया तो वास्तव में कुछ भी नहीं बदलेगा, सिवाय भारत विरोधी दिवस के प्रदर्शनों के&जो पहले 1984 में मकबूल बट को दी गई फांसी का दिन हुआ करता था और अब 2013 में अफजल गुरु को दी गई फांसी के दिन होने लगा है.

पढ़ें पुस्तक के अंश:
इंडियन एयरलाइंस के विमान आइसी-814 के 24 दिसंबर, 1999 को हुए अपहरण में जनरल परवेज मुशर्रफ का हाथ होना तय था. ऐसा कोई भी कारनामा आइएसआइ के सहयोग के बगैर हो ही नहीं सकता था क्योंकि 9/11 के पहले के दौर में भी हाइजैक करना बच्चों का खेल नहीं था. मुशर्रफ  वैसे भी फौज के प्रमुख थे, वह भी ऐसे देश में जहां फौज का सीधा नियंत्रण था, इसलिए वे सबसे ज्यादा ताकतवर थे.

जब हाइजैक की खबर मिली, तो सरकार ने स्थिति की निगरानी के लिए कैबिनेट सचिव प्रभात कुमार की अध्यक्षता में एक क्राइसिस मैनेजमेंट ग्रुप (सीएमजी) बना दिया. 24 दिसंबर, 1999 को सीएमजी इस पर बहस कर रहा था कि हाइजैक से कैसे निपटा जाए. यहां बहस चल रही थी और वहां आइसी-814 विमान उड़ गया. मैं रॉ का प्रमुख था इसलिए सीएमजी का हिस्सा था. 50 मिनट तक चली बैठक के दौरान सीएमजी में आरोप-प्रत्यारोप का खेल चलता रहा और कई आला अधिकारी एक-दूसरे पर आरोप लगा रहे थे कि उन्होंने आइसी-814 को भारतीय सीमा से बाहर जाने का मौका दिया. सीएमजी के प्रमुख होने के नाते एक निशाने पर कैबिनेट सचिव थे और दूसरे निशाने पर एनएसजी के प्रमुख निखिल कुमार.

विमान लाहौर में उतरा, उसमें ईंधन भरा गया और जैसा बताते हैं, अपहर्ताओं को हथियारों से भरा एक झोला मिला. फिर विमान दुबई गया जहां 27 सवारियों को छोड़ दिया गया. उसके बाद विमान अफगानिस्तान के कंधार चला गया, जहां तालिबान का राज था. जब आइसी-814 दुबई में था तो भारत ने दुबई एयरपोर्ट पर कमांडो की छापामार कार्रवाई की बात सोची थी लेकिन स्थानीय अधिकारियों ने सहयोग से इनकार कर दिया. हमने कोशिश की कि अमेरिका संयुक्त अरब अमीरात पर दबाव डालकर हमें छापामार कार्रवाई की मंजूरी दिलवाए, लेकिन भारत अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अलग-थलग पड़ गया था. कुछ भी हमारे हक में नजर नहीं आ रहा था.

“सर फैसला जल्द से जल्द कीजिए, क्योंकि ये लोग बेसब्र हो रहे हैं और मैं नहीं जानता कि आगे क्या होगा.” अजित डोभाल
कंधार पहुंचने के बाद ही हमें हाइजैकरों की मांगों का पता चला. संयोग से कंधार ही तालिबान सरकार के मुखिया मुल्ला मुहम्मद उमर का गढ़ था. मांग थी कि भारतीय जेलों से 35 आतंकवादियों को छोड़ा जाए. इनमें प्रमुख था मौलाना मसूद अजहर, जिसके सिर पर 2 करोड़ डॉलर का नकद इनाम था. हमने बातचीत के लिए अपने सबसे बेहतर अधिकारियों को भेजा, जिनमें बाद में आइबी के निदेशक बने अजित डोभाल और नेहचल संधू थे और मेरे वरिष्ठ सहकर्मी सी.डी. सहाय भी थे (जिन्हें विक्रम सूद के बाद रॉ की कमान संभालनी थी). इसके अलावा विदेश मंत्रालय का एक नुमाइंदा विवेक काटजू और ब्यूरो ऑफ  सिविल एविएशन सिक्योरिटी जैसे अन्य विभागों के प्रतिनिधि भी शामिल थे. यह एक मजबूत टीम थी लेकिन उस देश में भला वे क्या कर सकते थे, जहां उन लोगों का राज था जो अपहर्ताओं से सहानुभूति रखते थे.

यह बात इससे साबित होती है कि तालिबान ने विमान को टैंकों और सिपाहियों से घेर लिया था. उनका कहना था कि उन्होंने ऐसा इसलिए किया है ताकि अपहर्ताओं को और ज्यादा हिंसा करने से रोका जा सके, लेकिन ऐसा दरअसल हमें कमांडो कार्रवाई से रोकने के लिए किया गया था. यह साफ  हो गया कि एयरपोर्ट आइएसआइ के नियंत्रण में था और इस समूचे घटनाक्रम में आइएसआइ ही तालिबान को निर्देश दे रही थी. उस घटना के दौरान कंधार में मौजूद पाकिस्तानी पत्रकार जाहिद हुसैन ने बाद में अपनी किताब फ्रंटलाइन पाकिस्तान में लिखाः “अफगानी सूत्रों ने... खुलासा किया कि अपहर्ता एयरपोर्ट पर मौजूद पाकिस्तानी खुफिया अधिकारियों से निर्देश प्राप्त कर रहे हैं.” हुसैन की मानें तो “तालिबान, आइएसआइ और जेहादियों के बीच किस हद तक आपसी सहयोग था, यह खुलासा 1999 के भारतीय विमान बंधक कांड में ही हो चुका था.”

डोभाल, जो अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार हैं, कंधार से मुझ पर लगातार दबाव बना रहे थे कि मैं सरकार को जल्द इस समस्या का हल खोजने के लिए तैयार करूं. उन्होंने कहा, “सर, जल्दी कोई फैसला कीजिए क्योंकि ये लोग बेचैन हो रहे हैं और मैं नहीं जानता कि आगे क्या होगा.” आखिरकार पांच दिन तक चली बातचीत के बाद अपहर्ताओं की मांग को कम करके तीन आतंकियों की रिहाई तक लाया गयाः मसूद अजहर, अहमद उमर सईद शेख और मुश्ताक अहमद जरगर.
हमने मसूद अजहर को 1994 में ही गिरफ्तार कर लिया था. उसकी रिहाई के लिए उसके गुट ने 1995 में अल-फरान नाम का दूसरा गुट बनाया जिसने दक्षिणी कश्मीर में छह विदेशियों का अपहरण कर लिया. उन्हें छोडऩे के बदले मसूद अजहर और 20 अन्य आतंकियों की रिहाई चाहते थे लेकिन मसूद को नहीं छोड़ा गया.

अगले साल हरकत-उल-अंसार ने फिर से चार विदेशी सैलानियों का अपहरण किया. इसके पीछे लंदन स्कूल ऑफ  इकोनॉमिक्स का छात्र रह चुका उमर शेख था. उसके बारे में मुशर्रफ ने अपने संस्मरण इन द लाइन ऑफ फायर में लिखा है कि वह जब एलएसई में था, तभी ब्रिटिश खुफिया एजेंसी एमआइ6 ने उसे भर्ती कर लिया था. उमर शेख ने विदेशी बंधकों के बदले मसूद अजहर और दस अन्य आतंकियों को छोडऩे की मांग की लेकिन पुलिस उन्हें पकडऩे में कामयाब रही. अगले पांच साल तक उमर शेख बाकी अपहर्ताओं के साथ दिल्ली की तिहाड़ जेल में पड़ा रहा. आइसी-814 के अपहर्ताओं ने जिस तीसरे आतंकी मुश्ताक जरगर की रिहाई की मांग की थी, वह चालीस हत्याओं का दोषी था. इसमें कश्मीरी पंडितों की सिलसिलेवार की गई हत्या शामिल थीं. अजित डोभाल और दूसरे वार्ताकार अपहर्ताओं की मांगों को इन तीन आतंकियों तक ले आए, अब गेंद सरकार के पाले में थी.

“इस बार भी फिर? पहले तुमने मुफ्ती की बेटी के लिए ऐसा किया था और अब फिर वही करने जा रहे हो.” फारूक अब्दुल्ला
अचानक सबको याद आया कि जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री डॉ. फारूक अब्दुल्ला को भी इस बारे में सूचना दी जानी चाहिए. लगा कि हो सकता है वे बाधा खड़ी करें. राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ने उनके पास जाने के लिए मुझसे कहा. तत्कालीन विदेश मंत्री जसवंत सिंह ने सुरक्षा पर कैबिनेट की कमेटी की ओर से फारूक को फोन किया और बताया कि रॉ प्रमुख को उनके पास भेजा जा रहा है. रमजान का महीना था. मैं 30 दिसंबर की शाम को सीधे फारूक के आवास पर गया. वे डाइनिंग टेबल पर बैठे थे, मुझे देखते ही बोले, “मुझे पता है कि आप क्यों आए हो. जरा मैं नमाज से फारिग हो जाऊं.” नमाज के बाद वे आए और गुस्से में बोले, “इस बार भी? तुमने मुफ्ती की बेटी के लिए किया था, फिर वही कर रहे हो.” वे 8 दिसंबर, 1989 को रुबाइया सईद के अपहरण की घटना का जिक्र कर रहे थे. दोनों ही घटनाओं के मामले में, इस बार वे मुख्यमंत्री हैं और तब मैं श्रीनगर में आइबी का प्रमुख हुआ करता था.

वे गुस्से से लाल-पीले हो रहे थे. फिर, उन्होंने कहा, “दिल्ली कितनी कमजोर है, कितनी बड़ी गलती करने जा रहे हैं, सब बेवकूफ हैं.” उनकी गालियों का सिलसिला जारी रहा. इसका कुछ हिस्सा नाटकीय भी था. उन्होंने जसवंत सिंह को फोन लगाया और जी भरकर सुनायाः “आप गलत कर रहे हैं.” अंत में उन्होंने कहा, “वह दो हरामी पाकिस्तानी, या वह जो कोई हो, मैं उनकी परवाह नहीं करता. भाड़ में जाएं.” वे मसूद अजहर और उमर शेख की बात कर रहे थे. “लेकिन मैं इस कश्मीरी को (जरगर) नहीं जाने दूंगा, वह कातिल है.” मैंने कहा, “सर, जरगर के बगैर यह काम पूरा नहीं होगा.” “हो या न हो, मुझे कोई परवाह नहीं.” अंत में वे बोले, “फिर ठीक है, मैं राज्यपाल को इस्तीफा सौंपने जा रहा हूं.” रात 10 बजे हम राज्यपाल गिरीश चंद्र उर्फ गैरी सक्सेना के पास गए. फारूक ने उनसे कहा, “ये लोग आतंकियों को रिहा करना चाहते हैं और मैं इसका हिस्सेदार नहीं बनने वाला. इसकी बजाए मैं इस्तीफा दे दूंगा, और मैं यही करने यहां आया हूं.”

संयोग से गैरी सक्सेना रॉ के पूर्व प्रमुख थे. उन्होंने स्थिति को कायदे से संभाला. वे बोले, “डॉक्टर साहब, आइए, पहले आराम से बैठिए. आप एक योद्धा हैं, इतनी आसानी से हथियार थोड़े डाल सकते हैं.” फारूक शिकायती लहजे में बोले, “इन्हें नहीं पता कि ये क्या करने जा रहे हैं. ये लोग बड़ी गलती कर रहे हैं.”

दूसरा गिलास भरते हुए गैरी बोले, “मुमकिन है, लेकिन फिलहाल और कोई विकल्प भी नहीं है. दिल्ली में इस पर जरूर विचार किया गया होगा और बात हुई होगी. अगर उन्होंने तय किया है तो हमें उसी के हिसाब से चलना होगा.” उसके बाद नाटक खत्म हो गया.

उमर शेख तिहाड़ में था, लेकिन मसूद अजहर जम्मू के बाहर स्थित कोट भलवल जेल में था और जरगर श्रीनगर में बंद था. इन दोनों को एयरपोर्ट लाया गया, मजिस्ट्रेट की मौजूदगी में सारी औपचारिकताएं पूरी की गईं और इन्हें रॉ के विमान गल्फस्ट्रीम जेट में मेरे साथ चढ़ा दिया गया. दिल्ली में दोनों को जसवंत सिंह के विमान तक ले जाया गया, जहां उमर शेख भी मौजूद था.

हमारी मदद को उस समय कोई भी नहीं आयाः करगिल की जंग के बाद पाकिस्तान से रिश्ते तनावपूर्ण थे और मुशर्रफ  से संवाद बहाली अभी नहीं हुई थी. अमेरिकी बड़े दिन की छुट्टियां मना रहे थे, सीआइए प्रमुख जॉर्ज टेनेट के साथ मेरी मुलाकात अभी लंबित थी. जसवंत सिंह तालिबान के विदेश मंत्री अब्दुल मुतवक्किल को फोन करते रहे लेकिन उन्होंने फोन नहीं उठाया. जब अदला-बदली के लिए कंधार में वे दिखाई पड़े, तो भारत में लोगों ने उन्हें ही निशाना बनाया.
असल में समझौता हर कोई करता है. यहां तक कि इज्राएली भी समझौते करते हैं. दो मौकों पर तो मैं इसका प्रत्यक्ष गवाह रहा हूं.

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