
तुम कब आओगे अतिथि, कमलेश पांडेय, यश पब्लिकेशंस, सुभाष पार्क, नवीन शाहदरा, दिल्ली-32, कीमतः 275 रु.
www.भ्रष्टाचार.com यश गोयल विवेक पब्लिशिंग हाउस, धामाणी मार्केट, जयपुर, कीमतः 136 रु.
दुम की दरकार, शिव शर्मा ज्ञानगंगा प्रकाशन, चावड़ी बाजार, नई दिल्ली-6, कीमतः 200 रु.
इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि इधर व्यंग्यकारों की लंबी कतार होने के बावजूद ऐसा व्यंग्य लेखन नाममात्र ही हो रहा है जो पाठक को मथे और उसकी दृष्टि के धुंधलके को साफ करने में कारगर हो. इस संदर्भ में कुछ नए व्यंग्य संग्रहों को टटोलते हैं.
कमलेश पांडेय के संग्रह तुम कब आओगे अतिथि को पढ़ते हुए कहा जा सकता है कि उनके विषय सतह पर भले ही सामयिकता के आग्रह के पैरोकार नजर आते हों लेकिन अद्भुत कहन के जरिए वे न केवल समय की नब्ज को टटोलते हैं बल्कि अपने तीखेपन से, भरपूर वक्रताओं से पाठक को झकझोरने की क्षमता का भी परिचय देते हैं.
देशहित के बहाने व्यक्तिगत विकास की कलई खोलते लेख साहब व्यस्त हैं में वे नौकरशाही की बखिया उधेड़ते हैं तो दलदल में फंसे राजनैतिक-सामाजिक प्रशासनिक भ्रष्टाचार की विकरालता को अथ भ्रष्टदेव व्रत कथा में उजागर करते हैं. चाटुकारिता के दम पर फलने-फूलने की बढ़ती प्रवृत्ति का जायजा लेता अथ चरण पुराण सांठ-गांठ की राजनीति और जनजीवन में व्याप्त स्वार्थ साधने की कला को परत-दर-परत खोलता है. पेइंग गेस्ट के दम पर घर चलाने की दारुण आर्थिक स्थितियों का जायजा लेता शीर्षक लेख तुम कब आओगे अतिथि निम्न मध्यवर्ग की शाश्वत करुण गाथा है.
यश गोयल के संग्रह http://www.भ्रष्टाचार.com/ में शामिल अधिकांश लेखों में मौजूदा समय की पड़ताल है. सामयिक, राजनैतिक, सामाजिक, प्रशासनिक स्तरों पर फैली अव्यवस्थाओं पर चोट करती ये व्यंग्य रचनाएं कहीं-कहीं उद्वेलित करती हैं लेकिन बीच-बीच में सपाटबयानी के चलते अपेक्षित प्रभाव नहीं छोड़ पातीं. लेखक का यह मानना है कि आज के दौर में हमारी खाल मोटी होने के कारण किसी पर व्यंग्य की मारक शक्ति का असर नहीं हो रहा है. पर हताशा में चुनौती के रूप बदल देना ही तो सक्षम व्यंग्यकार की निशानी है.
गोयल ने कुछ नए विषयों पर हाथ आजमाने का बीड़ा उठाया और वे सफल भी हुए हैं. लेकिन राजनैतिक विषयों पर उनकी टिप्पणियां सपाटबयानी से आगे नहीं बढ़ पातीं. हां, साहित्य जगत की दुरभिसंधियों और व्यवस्थागत सड़ांध को उजागर करते लेख एक हद तक आश्वस्त करते हैं.
घोटालों, धार्मिक उफानों, रोजमर्रा के बयानों पर त्वरित टिप्पणी-सा शिव शर्मा का व्यंग्य संग्रह दुम की दरकार अपने तीखेपन के बावजूद जगह-जगह सपाटता का शिकार होने लगता है. ऐसा नहीं कि पत्र-पत्रिकाओं के लिए स्तंभ के रूप में की गईं फौरी टिप्पणियां हमेशा किसी वैचारिक तल्खी का एहसास नहीं करवातीं. इस संग्रह के कुछ विषय भले ही नए हैं और उन्हें रोचक शैली में पेश करने की कोशिश भी झ्लकती है लेकिन वैचारिक स्पष्टता और परिपक्वता के अभाव में वे पाठक को अधबीच छोड़ते प्रतीत होते हैं.
आज के ज्यादातर व्यंग्यकारों की यही सीमा है. अच्छे विषय उठाने में अपने साहस का परिचय देने के बाद उनके निर्वाह में पूरी तैयारी न होने के कारण पाठक पर इनका अपेक्षित प्रभाव नहीं पड़ता. होली में काहे की आचार संहिता, फटाफट प्यार का मौसम, जेल में अभिनंदन का आनंद, भिह्नुक सरपंच का घोषणा पत्र वगैरह इस संग्रह की परिपक्व रचनाएं कही जा सकती हैं.
पत्रकारिता के दबावों तले तात्कालिक विषयों को आधार बनाकर लिखे गए ये लेख भले ही कोई नई जमीन न तोड़ पाए हों फिर भी विषय के रोचक निर्वाह और प्रवाहपूर्ण शैली से पाठक को बांधने की ताकत तो अर्जित करते ही हैं.