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बुक रिव्यू: आरुषि, जो होती तो 21 साल की होती...

आरुषि-हेमराज मर्डर केस की पूरी जांच-पड़ताल, जिसे जवान होती टीवी मीडिया ने अपनी कल्पनाशीलता और फुर्ती से अमर कर दिया.

Aarushi Book Aarushi Book
कुलदीप मिश्र
  • नई दिल्ली,
  • 20 जुलाई 2015,
  • अपडेटेड 10:24 PM IST

किताबः आरुषि
लेखक: अविरूक सेन
ट्रांसलेशन (हिंदी में):  सुशील चंद्र तिवारी, अनूप भटनागर
पब्लिशरः पेंगुइन बुक्स इंडिया
कीमतः 250 रुपये (पेपरबैक एडिशन)

आजादी के बाद का वाकया है. पचास का दशक आखिरी बरस में था, जब 'बंबई' में एक कत्ल हुआ. नेवी कमांडर नानावती ने अपनी अंग्रेज बीवी सिल्विया के पंजाबी आशिक प्रेम आहूजा को मार डाला. देश में एक जिरह शुरू हो गई. मिडल क्लास, शहर, राष्ट्रवाद, नैतिक मूल्य, प्रेम, विश्वासघात और प्रतिघात. इन सबके इर्द-गिर्द कहानियां बुनी जाने लगीं. शहर के मशहूर टैबलॉयड ब्लिट्ज और इसके रंगरेज संपादक रूसी करंजिया ने बाकायदा एक विमर्श खड़ा कर दिया. जूरी ने नानावती के हक में फैसला सुनाया. कोर्ट में इसके उलट फैसला हुआ और फिर तीन साल बाद नानावती को सरकार ने माफी देकर रिहा कर दिया.

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इसके बाद भी तमाम कत्ल हुए, तमाम जिरह हुईं. मगर फिर एक केस ऐसा आया, जिसने मुल्क को, खास तौर से मिडल क्लास को नए सिरे से मथा. इस केस के दौरान टैबलॉयड की जगह उसी किस्म की पत्रकारिता करना सीख चुकी टीवी ने ले ली थी. ये केस है आरुषि-हेमराज मर्डर केस.

हालांकि ये धन का वजन है कि इसे अकसर आरुषि मर्डर केस कहा जाता है, जैसे हेमराज को साक्षात यमराज ही मर्त्य लोक से मुक्त कर ले गए हों और उसका मर्डर नहीं हुआ. उसके कत्ल की जांच की जरूरत नहीं थी या फिर बस उसका इतना ही महत्व था कि आरुषि के कातिल, कत्ल के इरादे, हथियार वगैरह की कहानी बुनी जा सके. ये कुछ ऐसा ही है कि नौकरों के नाम नहीं होते. पहचान नहीं होती. खैर...

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आरुषि केस की घनी पड़ताल
पेशे से पत्रकार अविरूक सेन की एक किताब आई है. आरुषि नाम है इसका. इसमें आरुषि मर्डर केस की घनी-गहरी पड़ताल है. कत्ल के पहले क्या हुआ से लेकर फौरन बाद क्या हुआ. सबसे पहले किसने क्या देखा. पुलिस से पहले कौन पहुंचा. पड़ोसियों में कौन आया. किसने किसको फोन कर क्या कहा. पुलिस की जांच किस दिशा में बढ़ी. फिर सीबीआई ने क्या किया. कौन से टेस्ट हुए. उनमें क्या कमियां रहीं और क्या नतीजे आए. चार्जशीट में क्या लूपहोल थे और गाजियाबाद सीबीआई कोर्ट में जब जिरह चली तो बचाव और सरकारी पक्ष की क्या दलीलें थीं. कुल जमा आखिर तक किन नतीजों के लिए बुनियाद रची जाती रही. पूरी किताब खूब सारी मेहनत कर लिखी गई है.

तलवार दंपति को कातिल नहीं मानते अविरूक
अविरूक ने खुद 'मुंबई मिरर' और 'रेडिफ डॉटकॉम' के लिए इस मर्डर केस की कोर्ट सुनवाई की रिपोर्टिंग की. इस वजह से वह ज्यादातर किरदारों से वाकिफ थे. फिर उन्होंने मामले के कई स्तरों पर शामिल तमाम खास-ओ-आम लोगों के इंटरव्यू भी किए. इसके बिना पर एक खाका खींचा. चूंकि आप सब पाठकों की सबसे ज्यादा दिलचस्पी उसी एक सवाल में है, तो उसका जवाब भी सुनिए. सवाल, क्या पेरेंट्स ने ही मारा आरुषि को. जवाब- कोर्ट यही मानता है, मगर सेन नहीं. और सेन ऐसा क्यों नहीं मानते, इसके लिए उन्होंने तसल्लीबख्श ढंग से कई बातें, तर्क और तथ्य रखे हैं. यहां तक कि जेल में रहने के दौरान राजेश तलवार जो डायरी लिखते रहे हैं, उसके भी कुछ अंश इस्तेमाल किए गए हैं.

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पहले ही मन बना चुके थे जज साहब?
बकौल सेन, गाजियाबाद कोर्ट के जज श्यामलाल, जिन्हें लोग सजा लाल कहते हैं, पहले ही मन बना चुके थे. सेन ने रिटायरमेंट के बाद इलाहाबाद में प्रैक्टिस कर रहे लाल और उनके बेटे आशुतोष से बात की. उसका लब्बोलुआब ये निकला कि श्यामलाल बचाव पक्ष के वकील की फाइनल जिरह सुनने से पहले ही अपना फैसला लिखने लगे थे. इस फैसले में कठिन और काव्यात्मक अंग्रेजी लिख श्यामलाल अपनी बौद्धिकता का भी लोहा मनवाना चाहते थे, ऐसा लेखक का मानना है. और इस तर्क का विस्तार करते हुए सेन लिखते हैं कि श्यामलाल जजों की उसी कतार में शामिल हुए, जो हाईप्रोफाइल मामलों में सजा सुनाने को सबसे सुरक्षित विकल्प मानती है.

पर सजा से पहले कुछ सवाल, आखिर हुआ क्या. और मीडिया में और उसके जरिए जनता को क्या बताया गया. बहस और जांच का एक अहम बिंदु ये था कि हेमराज को कहां मारा गया. आरुषि के कमरे में या फिर छत. इसका अहम सुराग था हेमराज के खून से सना गिलाफ. जिसको लेकर अदालत में सीबीआई को अपने साक्ष्य से पलटना पड़ा.मामले की पहली अहम गवाह थी नौकरानी भारती मंडल. उसके बयान में पहली लाइन थी, जैसा मुझे बताने को कहा गया. उसके बाद उसने अभियोजन पक्ष की कहानी को दोहरा दिया.

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आरुषि केस में क्यों थी लोगों की दिलचस्पी
पहली वजह, 14 साल की लड़की की लाश जिस अवस्था में मिली. अर्धनग्न सी. फिर ये थ्योरी दी गई कि उसके साथ यौन हिंसा हुई है. फिर बात होने लगी पुलिस के बयान के बाद उसके नौकर के साथ आपत्तिजनक अवस्था में होने की. और इसके बाद जैसा कि अंग्रेजी में कहते हैं, कीड़ों से भरे डिब्बे का ढक्कन खुल गया. तलवार दंपति पार्टनर की यौन सुख के लिए अदला-बदली करने वाले सामाजिक गिरोह का हिस्सा हैं से लेकर आरुषि सेक्स की अभ्यस्त थी, जैसी कई मनोहर कहानियां मीडिया में सूत्रों के हवाले से गढ़ी गईं.

हर अटकल के साथ लोगों की दिलचस्पी बढ़ गई. कभी शक की सुई नौकरों पर घूमती, तो कभी माता पिता पर. और हर एक देखने, पढ़ने वाला अपने अपने हिसाब से एक षडयंत्र गाथा गढ़ने लगता. इसका कथाक्रम का अगला सिरा हत्या के मकसद और हथियार की तलाश पर अटका. और उसके बाद अदालती कार्रवाई शुरू हुई. इस दौरान सीबीआई जांच अधिकारी कौल, फोरेंसिक एक्सपर्ट दहिया और सीबीआई वकील सैनी के रवैये पर लेखक ने तमाम तरह से सवाल उठाए हैं.

अदालत चालू आहे
आखिर में कहानी रुकती है, वहीं जहां फिलवक्त सच जैसा कुछ रुका हुआ है. डॉ. राजेश और डॉ. नूपुर तलवार अपनी बेटी आरुषि तलवार और नौकर हेमराज के कत्ल के इल्जाम में गाजियाबाद सीबीआई कोर्ट से सजा पाकर जेल में बंद हैं. उनकी अपील हाईकोर्ट में लंबित है, जो कि सुनवाई के लिए कुछेक बरसों के बाद आएगी. और तब तक, खामोश, अदालत चालू आहे.

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लेखक का पक्ष साफ है. हालांकि इस क्रम में कुछ सवालों का जवाब छूट जाता है. पहला, तलवार दंपति के बगल के कमरे में कत्ल हुआ, उन्हें पता भी नहीं चला. दूसरा, राजेश तलवार अपने नौकर हेमराज की लाश क्यों नहीं पहचान पाए पहली बार में. इसके अलावा तलवार दंपति ने पहले ही दिन पुलिस को छत पर क्यों नहीं जाने दिया. क्या तलवार दंपति ने वाया पूर्व पुलिस अधिकारी केके गौतम आरुषि के पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट में बदलाव के लिए पैरवी की थी. हर सवाल के साथ कई किंतु परंतु जुड़े हैं. आप भी अपनी अदालत के जज हैं. अपना फैसला किताब पढ़ सुरक्षित रख लें.

क्यों पढ़ें
किताब पाठक को बांधकर रखती है. बस कहीं कहीं स्पेलिंग की गलती अखरती है. उम्मीद है कि अगले संस्करण में इसे सुधार लिया जाएगा. किताब का हिंदी अनुवाद सरल है. अदालती शब्दावली के बोझ तले कहानी कराहती नहीं है. क्राइम कथा में दिलचस्पी रखने वालों के लिए मस्ट मस्ट रीड है ये किताब. इसमें संभ्रांत नजर आते और अब पब्लिक की अदालत में सदा के लिए मुजरिम करार दिए गए दो लोग हैं. उनके हक में मुट्ठी भर लोग हैं. और उनके खिलाफ पुलिस, कानून पालक संस्थाएं और समाज है. और इनके बीच दो लाशें हैं. आरुषि, जो आज होती तो 21 साल की होती. हेमराज, जो आज होता तो शायद अपने परिवार के पास नेपाल लौट चुका होता बुजुर्गियत के हिस्से आने वाला आराम जीने के लिए.

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मगर ये नहीं है. है तो सिर्फ एक केस. आरुषि-हेमराज मर्डर केस. डबल मर्डर केस. जिसे जवान होती टीवी मीडिया ने अपनी कल्पनाशीलता और फुर्ती से अमर कर दिया.

 

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