
अपने नवीनतम व्यंग्य संग्रह हाशिये का राग के जरिए सुशील सिद्धार्थ ने समकालीन व्यंग्य परिदृश्य में सार्थक हस्तक्षेप किया है. तात्कालिकता की कमजोरी से मुक्त उनके व्यंग्य स्थायी महत्व के हैं. अखबारी लेखन के दबाव में साहित्यिक परंपरा से दूर खिसक रही इस विधा को उन्होंने साहित्यिक संस्कार देने का काम किया है. उनका व्यंग्य हिंदी की समृद्ध व्यंग्य परंपरा में एक नया प्रस्थान बिंदु है.
सुशील सिद्धार्थ के व्यंग्य यथार्थ की विषमता के तीक्ष्ण बोध से पैदा हुए हैं. इसीलिए उनकी रचनाएं हंसाती नहीं बल्कि बेचैनी पैदा करती हैं. इनमें हर जगह मनुष्यता के लोप को लक्षित किया गया है. प्लस-माइनस की मार्केट में शीर्षक व्यंग्य में वे इस बात को रेखांकित करते हैं कि आज के दौर में भावना, जिम्मेदारी, मानवता आदि गुण नहीं बल्कि रोग हैं और इनसे पीड़ित व्यक्ति एक न एक दिन बाजार में मारा जाता है. बाजार और सत्ता इतनी क्रूर हो चुकी है कि अगर आपके भीतर थोड़ी भी इंसानियत बची है तो आपका असफल होना तय है.
अपनी आलोचना को बर्दाश्त करना लोकतांत्रिक होने की प्राथमिक शर्त है. पर हमारा समाज कुछ इस तरह का बन गया है कि प्रत्येक व्यक्ति सिर्फ और सिर्फ प्रशंसा ही सुनना चाहता है. उसके बारे में सही बोल देने का मतलब संबंध खत्म हो जाना है. मैं सुधर रहा हूं में इसी अलोकतांत्रिक प्रवृत्ति पर चोट की गई है. लेखक के पास बहुत अधिक राजनीतिक व्यंग्य नहीं हैं, पर जो हैं, उनके अर्थ-संकेत बहुत गहरे हैं.
ऐसे हंसोगे तो हंसना भूल जाओगे बीटा एक ऐसा ही व्यंग्य है. तानाशाही में तब्दील होती लोकतांत्रिक सत्ता को हंसी बर्दाश्त नहीं होती. अभिव्यक्ति पर हो रहे हमले के संदर्भ में इस व्यंग्य का महत्व काफी बढ़ जाता है. सुशील शब्दों का चयन बहुत सचेत होकर करते हैं और उनमें निहित बहुविध अर्थ को विस्तृत करते हैं. बात से बात निकालने की कला उनमें जबर्दस्त है. इस कला का अत्यंत रचनात्मक उपयोग उन्होंने इस व्यंग्य संग्रह में किया है.
हाशियेका राग
लेखकः सुशीलसिद्धार्थ
प्रकाशकः किताबघरप्रकाशन
कीमतः150 रु.