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विनोद भारद्वाज
जाहिर है, आधुनिक हिंदी कविता के जन्मदाता भारतेंदु हरिश्चंद्र से शुरू होकर आज के युवा कवियों का चयन आसान काम नहीं है. पिछले डेढ़ सौ वर्षों के इतिहास में संपादक सुरेश सलिल कुछ अच्छी और प्रतिनिधि कविताओं का चयन करने में सफल दिखते हैं.
आज के एक महत्वपूर्ण कवि मंगलेश डबराल राष्ट्रीय पुस्तक न्यास के लिए आधुनिक हिंदी कविता का चयन तैयार कर रहे थे. काफी संघर्ष के बाद वे भूमिका लिखने में सफल भी हो गए. संभवत: उन्होंने पांडुलिपि भी न्यास को दे दी, पर तब तक समय बदल चुका था. अब उस चयन का भविष्य अंधेरे में है.
सुरेश सलिल विद्वान हैं पर उनका नजरिया अकादमिक ज्यादा है. मंगलेश डबराल का नजरिया गैर-अकादमिक है. अगर उनका चयन भी हमारे सामने होता तो इन दोनों किताबों की तुलना दिलचस्प होती. वर्षों पहले परमानंद श्रीवास्तव ने भी साहित्य अकादेमी के लिए समकालीन हिंदी कविता का एक अच्छा संकलन तैयार किया था.
कुल मिलाकर सुरेश सलिल का चयन अच्छा कहा जाएगा, पर संपादक होने के नाते उन्हें स्वयं की आठ कविताएं इस किताब में संकलित करने से बचना चाहिए था. मंगलेश डबराल अगर अपने संपादित चयन में अपनी कविताएं शामिल करें तो वह तार्किक है.
अगर हिंदी के सौ विशेषज्ञों को भी ऐसा चयन तैयार करने को कहा जाए, तो उन सबमें मंगलेश डबराल मौजूद होंगे. पर सुरेश सलिल के बारे में यह विश्वास के साथ नहीं कहा जा सकता. खैर, वे संपादक होने के कारण अपनी कविताओं को शामिल करने की स्वतंत्रता का प्रयोग कर पाए.
हिंदी के कई बड़े कवियों की कविताओं में जो विविधता है, वह ऐसे चयन में जरूर सामने आनी चाहिए. पर मैं श्रीकांत वर्मा की कविताओं को लेकर इसमें विविधता नहीं खोज पाया. श्रीकांत वर्मा 'मगध' शैली कविताओं से पहले 'माया दर्पण' संग्रह में घर वापसी जैसी अद्भुत कविताएं लिख चुके थे.
पर इस चयन में उनकी बाद की कविताएं ज्यादा हैं. समकालीन कवियों ने अपने पूर्ववर्ती खुद खोजे थे. लातीनी अमेरिकी लेखक खोर्खे लुइस वोर्सेस ने काफ्का पर अपने छोटे-से सारगर्भित निबंध में यह महत्वपूर्ण बात लिखी थी कि हर लेखक अपने पूर्ववर्ती पैदा करता है.
मिसाल के लिए, अपने दौर के सबसे बड़े कवि रघुवीर सहाय ने हरिवंश राय बच्चन में अपना पूववर्ती देखा-समझा. मैथिलीशरण गुप्त, माखनलाल चतुर्वेदी, निराला, जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानंदन पंत या महादेवी वर्मा में वे अपना पूर्ववर्ती नहीं देख पाए. ये सभी अपने वक्त के बड़े कवि थे. पर सहाय ने बच्चन को अपने नजदीक पाया.
सुरेश सलिल ने बच्चन की प्रासंगिकता को लेकर अपनी भूमिका में रघुवीर सहाय और अज्ञेय को उद्धृत भी किया है. सहाय के अनुसार, ''सबसे पहले बच्चन ने अदृश्य की जगह दृष्टत्य को, अमूर्त की जगह यथार्थ को तथा गोपन पीड़ा की जगह खुली सहानुभूति को कविता का विषय बनाया और वह भी बोलचाल की भाषा में...आज के सारे काव्यांदोलन इसी बोलचाल की भाषा के बूते चल रहे हैं जिसके पिता बच्चन हैं—पंत, निराला या प्रसाद नहीं.'' अज्ञेय के अनुसार, ''बच्चन की रचनाओं ने छायावादी युग के पाठक के इस झूठे विश्वास को समूल नष्ट कर दिया कि कविता की भाषा बोलचाल से भिन्न होनी चाहिए. यह मामूली क्रांति नहीं थी.''
1969 में लीलाधर जगूड़ी ने लघु पत्रिका आरंभ में सुमित्रानंदन पंत की कविताओं के 'हिंदी अनुवाद' छपवा कर हंगामा खड़ा कर दिया था. उनका कहना था कि पंत की मूल कविताओं को उनकी संस्कृतनिष्ठ या साहित्यिक भाषा से अलग कर दिया जाए—बोलचाल की हिंदी में अगर उन्हें रूपांतरित कर दिया जाए, तो वे अकविता की भाषा और बिंबों के नजदीक नजर आएंगी.
इस चयन में कई कवियों की अपेक्षाकृत अल्प-परिचित कविताएं पढ़कर अच्छा लगा. विद्यावती 'कोकिल' की कविता 'आज रात शृंगार करूंगी' ऐसी ही कविता है. दम घुटते माहौल में कवयित्री मानव से प्रेम करने के लिए बस्ती में जाकर स्नेह का हाट लगाकर 'निर्धन व्यापार' करना चाहती है. इसकी अंतिम पंक्ति है—'आज मधुर रागिनी छेड़ सबका सोना दुश्वार करूंगी.'
इसी तरह अपेक्षाकृत कम जाना जाने वाला नाम मधु शर्मा (1961-2013) की अमृता शेरगिल की एक पेंटिंग से प्रेरित कविता 'लाल वरामदा' भी एक सुखद खोज है. किसी भी प्रतिनिधि चयन में आप कवियों की मशहूर कविताओं (मिसाल के लिए भवानी प्रसाद मिश्र की 'गीत फरोश' कविता) से अलग कुछ दूसरी कविताओं को पा लेने का सुख महसूस करना चाहते हैं. 624 पृष्ठों के इस चयन में ऐसे अवसर आते हैं.
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