
हिंदी साहित्य जगत में मनीषा कुलश्रेष्ठ को किसी खास परिचय की दरकार नहीं हैं. नए विषय चुनना और बिसरा दिए गए पात्रों पर रोचक कथानक बुनना उनका शगल बन गया है. शब्दों से खेलने का उनका एक अलहदा अंदाज है. लेखन के अलावा पर्यावरण से गहरे सरोकार रखने वाली, दुर्गम यात्राओं के अनुभवों सहित विविध विषयों पर सक्रिय, बौनी होती परछाईं, कठपुतलियां, कुछ भी तो रूमानी नहीं, केयर ऑफ स्वात घाटी, गंधर्वगाथा, किरदार और अनामा जैसे कहानी संग्रहों और शिगाफ़, स्वप्नपाश, शालभंजिका, पंचकन्या जैसे उपन्यासों की लेखिका का नया उपन्यास आधुनिक हिंदी साहित्य के जनक भारतेंदु हरिश्चंद्र की प्रेमिका 'मल्लिका' पर इसी नाम से आया है.
राजपाल एंड संस द्वारा प्रकाशित 160 पृष्ठों के इस उपन्यास की भूमिका में मनीषा कुलश्रेष्ठ लिखती हैं, 'यह उपन्यास लिखते समय मुझे बारंबार भय रहा कि कहीं मैं मल्लिका के बहाने हरिश्चंद्र जू का जीवन ही न दोहरा दूं... जिनकी विविध जीवनियों में पितामह अमीचंद से लेकर उनकी वर्तमान पीढ़ी तक का सब ज्ञात है. जिनकी जन्म पत्री और जीवन की वर्ष-माह-दिवस-घंटों–मिनटों- सैंकड़ों में गणना उपलब्ध है. मुझे कितना-कितना लिख कर मिटाना पड़ा. क्योंकि रह-रह कर ज्यू ही रेखांकित हो रहे थे मल्लिका नहीं. मैंने प्रयास तो किया है कि ऐसा कम से कम हो, मगर मल्लिका जिसके ‘प्राण–धन’ ही हरिश्चंद्र पियारे थे तो कितना ही अवक्षेपित किया मैंने मल्लिका को बिसरे हुए इतिहास से संग ज्यू भी चले आए.. यत्र–तत्र–सर्वत्र मल्लिका को ढूंढते हरिश्चंद्र के तथ्य ही मिलते रहे...
ऐसा होने पर जाने कितनी बार मैंने काम रोका, बहाव रोका. जब मल्लिका ने आंचल लपेटते हुए, सरस बड़ी आंखों में विषाद, प्रेम, उदात्तता भर बार-बार टोकने पर अपनी कहानी सुना कर लिखवाई है तभी लिखा है... साहित्य आजतक के पाठकों के लिए इसी पुस्तक का खास अंश. पृष्ठ संख्या- 71-72
2013 की तबाही शिव का संदेश था कि केदारनाथ में मंदिर के सिवा कुछ और नहीं
हरिश्चंद्र ज्यू अपनी छत पर बैठे एक पत्र लिख रहे थे. अचानक उन्हें बांग्ला मिश्रित हिंदी में यह उलाहना सुनाई पड़ा. वे उठ कर आए. ईंटों के बीच खुले चौखाने से झाँका - एक विचित्र दृश्य दिखा .....एक मुक्तकेशिनी, एकवसना स्त्री दरी पर पेट के बल लेटी है. चेहरा नहीं दिख रहा, बस घने केश और उन केशों से खेलती एक सारिका 'कुट-कुट' कर रही थी. सामने एक पुस्तक के पृष्ठ फरफरा रहे थे.
तभी सारिका बोली - भुवनमोहिनी! भुवनमोहिनी!!
कुछ घड़ी को उस दृश्य को वे समझते रहे, फिर याद आया रजतमोहन ने बताया था, एक भद्र विधवा महिला ने पड़ोस के मकान में डेरा किया है. क्या यह वही है? बहुत दिनों से वे आस-पास की सुधि नहीं ले पाए. काशी महाराज अस्वस्थ चल रहे हैं तो रोज़ का वहां आना-जाना. तभी उस स्त्री ने करवट ली और सारिका को पिंजरे में डाल दिया – “ओ बाबा रे! चल भीतर....यहां के गगन में तो कैसे-कैसे चील, बाज़ और शिकरे उड़ते हैं, कहीं तुझे ग्रास बना लिया तो?”
एक श्यामवर्णी, लावण्यमयी मुख पर अतिविशाल दृगद्वय देख हरिश्चंद्र चकित रह गए. कैसा अनोखा-सा चेहरा है यह, न कभी देखा न सुना. वाणी कितनी मीठी और उच्चारण मनमोहक....जैसा पुरी में बाऊल गायक गाते थे. उत्सुकता चरम पर जा चढ़ी. किंतु वे चुप रहे....चुपचाप अपने आसन पर आ बैठे. सोचने लगे इस एकाकिनी पड़ोसन के बारे में - भुवनमोहिनी! वे सोचते थे कोई वयप्राप्त अधेड़ विधवा होगी जो काशी प्रवास को आई है. यह तो नितांत अल्पवयस है. पुस्तकों में बंगाली सुरुचि.... काशी में पुस्तक की दुकान और पुस्तकालय खोजती है.
पुस्तक अंशः दुनिया की पहली हवाई डाक सेवा ने कुंभ मेले के दौरान भरी थी उड़ान
उसी दिन, सांझ ढलने से पहले उन्होंने घर की सेविका को कुछ चुनिंदा पुस्तकों के साथ भेजा. जिनमें मीरा की कविताओं पर सरल हिंदी में लेख थे. मल्लिका उस बेला अनमनी आकाश निहार रही थी, पक्षी नीड़ की ओर लौट रहे थे.... उसका मन इस नगर से स्वयं को जोड़ नहीं पा रहा था. गली से बाहर निकलते ही पुरुषों की निगाह उस पर गड़-गड़ जाती, स्त्रियां कानाफूसियां करतीं. भाषा की समस्या.....यूं तो वह मितभाषी है किंतु कभी तो किसी से दो शब्द बात हो. तभी एक स्त्री उसके दालान में दिखी, उसके हाथ में एक थैला था. वह कजरी को पुकार रही थी, कजरी शाक- भाजी लेने गई हुई थी. मल्लिका नीचे उतर आई.
"कौन चाहिए?"
"बीबी, मालिक ने ये पोथियां भेजी हैं."
"कौन मालिक?"
"वे बगल की कोठी के मालिक, सेठ साहब."
"कहलवा भेजा है कि इनमें से जो चाहें रख लें, बाकि भेज दें."
मल्लिका ने थैला दीवान पर उलट दिया. उसमें दो बांग्ला किताबें थीं, शेष हिंदी की. वह असमंजस में पड़ गई.
साथ में एक काग़ज़ का टुकड़ा था- भुवनमोहिनी जी! मैं हरिश्चंद्र अग्रवाल हूं. ये कुछ पुस्तकें मैं अपने निज पुस्तकालय से आपकी शिकायत पर भिजवा रहा हूं. यहां पुस्तकों की दुकान भी है, कुछ दूर पर सार्वजनिक पुस्तकालय भी."
मल्लिका ने सभी किताबें रख लीं. कलम लेकर एक काग़ज़ पर लिखा देवनागरी में– धन्नबाद, आपका पोरिचय की?
अगली सुबह मल्लिका और उसकी सारिका छत पर आए ही नहीं. हरिश्चंद्र जू दो बार टहल कर चले गए. ऐसे कई सुबहें बीत गईं.
एक ऐसी ही भोर को सूरज की सुनहली किरणें धीरे-धीरे आकाश में फैल रही थीं, पेड़ों की पत्तियों को सुनहला बना रही थीं, चारों ओर किरणों का ही जमावट था. हरिश्चंद्र अपनी छत पर टहल रहे थे और छिटकती हुई किरणों की यह लीला देख रहे थे पर मन अनमना था..
वह कहां है? मन टीस उठा... तभी चेहरे पर किरणों का जाल लिए उन्होंने एकाकिनी पड़ोसन को अपनी ही छत की तरफ ताकते पाया. इकहरी, लंबी देह. सांवला रंग, पूरे चेहरे को परिभाषित करते विशाल नयन. उसके सांवले सुघर पैरों में लाल आलता था, भेस विधवा का? बालों में घूंघर, आंख में काजल और होंठ मिसवाक से रचित. वह विधवा थी, पर दिखती नहीं थी.
"प्रणाम भुवनमोहिनी जी." हरिश्चंद्र ने नयन मिलते ही कहा.
"महोदय, यह मेरी सारिका तो प्रणाम नहीं बोलती और पुस्तकें भी नहीं पढ़ती....जो आपने इसे भेजी थीं न, वो मैंने पढ़ डालीं."
"जी?"
"इस मैना का नाम है भुवनमोहिनी...." कह कर हौले से हंस दी मल्लिका.
"हे ईश्वर और मैं सोचता रहा भुवनमोहिनी आपका, शुभकामनाएं. आपकी विनोदप्रियता का दास हुआ." ठहाका मार कर हंस दिये हरिश्चंद्र.
अंश- 2 पृष्ठ संख्या- 142- 143
गंगा की निर्मल धारा में अष्टमी का चांद झांक रहा था. दूर एक मल्लाह के गीत की एक कड़ी कांस के रेशों की तरह टूट-टूट कर बिखर गई.
तभी वे सामने आ गए. उनके हाथों में दो चमेली की मालाएं थीं. उन्होंने मल्लिका को हाथ पकड़ उठाया और बिना कुछ बोले उस नीरव मंदिर में ले गए. मंदिर के भग्न स्तंभ आक्रांताओं की लूट की कथा कह रहे थे. धातु-मूर्तियां गायब थीं. मगर किसी ने एक अनगढ़ देव स्थापित कर दिए थे, जिनकी आंखें कौड़ियों से बनी थीं. नीचे एक बुझा दीपक था और कुछ म्लान पुष्प. प्रसाद की मिश्री को चीटिंयों का एक झुंड खींचे लिए जा रहा था. सूखे हुए चंदन पात्र और बुझी अगरबत्तियों की एक महक वहां एक अलौकिक वातवरण रच थी.
ज्यू ने मल्लिका को कन्धों से पकड़ कर अपने सामने कर लिया और दो जुगलरत बरगदों की गोद में स्थापित इस मंदिर में– मल्लिका की आंखों में देख बिना कुछ बोले एक चमेली की माला डाल दी. "मल्लि, अगर तुम यह अनुभव करती हो कि पाने-खोने, मिलने-न मिलने से परे है यह अनन्य प्रेम! दुर्भाग्य-सौभाग्य दोनों ही तुच्छ हैं इस प्रेम के सामने. तुमने मुझमें अपना अनन्य चिरप्रेमी पाया है तो यह माला मुझे पहना दो. न पहना सको तो इसे अपने जूड़े में बाँध लेना. मैंने जो तुम्हें माला पहनाई है उसे अपना सम्मान मान लेना कि तुम दुनिया की श्रेष्ठतम और एकमात्र स्त्री हो जिसे मैंने प्रेम किया है. एक एकनिष्ठता आत्मा की भी होती है प्रिय. जिसे आत्मा वरण लेती है उससे व्यतिक्रम संभव नहीं.”
मल्लिका के नेत्र छलक गए... पसलियों में धड़कता मन सहस्त्रकमल की भांति खिल गया. क्या यह व्यक्ति मन पढ़ता है? मल्लिका ने अपनी मराल ग्रीवा झुका कर अपने प्रियतम को वरण लिया..
चलते-चलते दोनों गंगातट की रेत पर आ गये. विगत कुछ दिनों से जटामांसी उग आयी थी. इस धीर-समीर घाट पर इस मांगलिक अवसर पर कोई भी उपस्थित नहीं था. बस जटामांसी की लताओं और गुलाबी फूलों की छाया में विशालकाय कछुए लेटे थे. ऊपर तारिकाओं से घिरी निहारिका मुस्कुरा रही थी. मल्लिका उन तारों की रोशनी में ज्यू को देखते हुए सोचती रही.
“क्या हुआ जो मैं आज तुम पर भर-भर अंजुरियाँ मंदार पुष्प न बरसा सकी, तुम्हें तो इन सूखे बेलपत्रों से रीझ जाना चाहिए था. तुममें और मुझमें घना अंतर है! तुम में तो भरा प्याला फैला देने की क्षमता है, वो तो मैं हूँ, बूंद-बूंद के लिए तृषित चातक."
# पुस्तक अंश, उपन्यास: मल्लिका, लेखिका- मनीषा कुलश्रेष्ठ.
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