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किताबः मुअनजोदाड़ो (यात्रा वृतांत)
लेखकः ओम थानवी
प्रकाशकः वाणी
प्रकाशन
संस्करणः हार्ड बाउंड (118 पेज)
कीमतः 200 रुपये
रोज सबेरे
मैं थोड़ा-सा अतीत में जी लेता हूं.
क्योंकि रोज शाम को मैं थोड़ा सा भविष्य में
मर जाता हूं.
अज्ञेय, दो पंक्तियों की कविता- सांझ सवेरे में
मुअनजोदाड़ो,
कहने को मुर्दों का टीला, मगर यकीनन एक ऐसा चबूतरा, जिस पर खड़े होकर हम
अपनी शुरुआत, अपनी बुनियाद देख सकते हैं. उस सूरज को भी नए सिरे से महसूस
सकते हैं, जिसने हमारे आदि पुरुषों को भी यूं ही राहत, रौशनी बख्शी
होगी.
मुअनजोदड़ो, पत्रकार, लेखक ओम थानवी की शानदार किताब. श्रेणी के लिहाज से यात्रा वृतांत, आस्वाद की दृष्टि से कविता. पाठ की दृष्टि से दर्शन, भावुकता, संवेदनशीलता और इन सबसे बनी दृष्टि का एक भरपूर दृश्य. हर चौथे पन्ने पर पसरे रेखा चित्र इस आस्वाद को और भी गाढ़ा कर देते हैं. आइए, कुछ आचमन करें इस पर आगे बात करने से पहले.
किताब की शुरुआत रोचक है. बल्कि पूरी ही किताब में इस गुण को बनाए रखा गया है. थानवी जिक्र करते हैं अपनी कराची से मोअनजोदड़ो वाया लाड़काणा यात्रा का. इसकी शुरुआत में ही उन्हें आधिकारिक सलाह मिलती है. कराची से बाहर बिना हथियारबंद गार्ड के यात्रा न करें. डाकुओं का खतरा है. इस खतरे के बावजूद दो दोस्तों का जत्था धुंध को धता बताता हुआ प्रागेतिहासिक काल की जान पड़ती बस में आगे बढ़ता है. शुरू में ही लेखक को याद आती है मां की ताकीद. और फिर एक सबक. बुजुर्गों के मन में जो इलाका इतना दूर चला गया, अभी करीब लौटा नहीं. भरोसा कभी आसानी से नहीं लौटता. और फिर कुछ आगे...नींद भी भरोसे की तरह है, लौटने के मामले में.
पूरी यात्रा के दौरान ओम मानवीय वृत्तियों पर हास में लिपटी मगर तीखी टिप्पणियां करते चलते हैं. इसके साथ ही इस महादेश, जिस पर खिंची लकीरों के बाद अब भारत पाकिस्तान से नाम हो गए हैं, उसकी साझा विरासत का उल्लेख करते रहते हैं. मसलन, सिंध का इतिहास शाहबाज कलंदर और उनकी अरदास में गाई जाने वाली कव्वाली के बहाने. इसके साथ ही स्थानीय भूगोल को लेकर चले ऐतिहासिक द्वंद्व का भी जिक्र आता है.
यात्रा वृतांत की भाषा कविता मय है. छोटे छोटे वाक्य बहुलता में. इससे शब्द चित्रात्मकता की लय सी बंध जाती है. मुकाम पर पहुंचते ही जैसे लेखक अपने उरूज में आ जाता है. ओम न सिर्फ तसल्ली से अपनी पहली सभ्यता के अवशेषों को निहार रहे हैं, बल्कि पाठकों को भी अपने वर्णन से सहयात्री बना ले रहे हैं. इन सबके बीच मुअनजोदड़ो में मिलने वाली चीजों के बारे में बात होती है. यहां होने वाली खुदाई और उनके कुल जमा निष्कर्षों पर बात होती है. इतिहास लेखन और उसको लेकर चलने वाली विचारधारा की लड़ाई पर भी भरपूर रौशनी डाली जाती है. हर विवरण के साथ तस्वीरें हैं, रेखाचित्र की शकल में, जो समझने में सहायक सिद्ध होती हैं. कैसा होता है यह सब. इस उदाहरण से समझें.
यह सच है कि किसी आंगन की टूटी फूटी सीढ़ियां अब आपको कहीं नहीं ले जातीं. वे आकाश की तरफ जाकर अधूरी ही रह जाती हैं. लेकिन उन अधूरे पायदानों पर खड़े होकर अनुभव किया जा सकता है कि आप दुनिया की छत पर खड़े हैं. वहां से आप इतिहास को नहीं, उसके पार झांक रहे हैं. या फिर देखना अपनी आंख से देखना है. बाकी सब आंख का झपकना है. जैसे यात्रा अपने पांव से चलना है. बाकी सब कदम ताल है.
आपने गौर किया होगा कि कैसे वर्णन के बीच में दर्शन आता है. इससे पूरे आलेख का लालित्य बढ़ जाता है. गोया कोई निबंध पढ़ रहे हों. मुअनजोदड़ो को लेखक एक आदितीर्थ मानता है. और इसके भग्नावशेषों के बीच घूमने के क्रम में अपनी मौजूदा जड़ों का भी सुमिरन करता है. एक लालसा, एक छटपटाहट दिखती है उस तारतम्यता या क्रमिक विकास को रेखांकित करने की, जो तब से अब तक पसरी हुई है. वर्णन के क्रम में लेखक सिंधु सभ्यता से जुड़े ऐतिहासिक विवादों मसलन, इसके खत्म होने की वजहें, इसका सरस्वती से रिश्ता या फिर इसके सैन्य स्वरूप को लेकर भी अपना मत रखते हैं. कुछेक जगहों पर उनका वैचारिक आग्रह साफ नजर आता है. मगर बिना अपने विचार के कोई भी वर्णन निरा निर्जीव ही जान पड़ेगा.
इन सबके बीच ओम वर्तमान के ज्ञान की रौशनी में भी सब विचारते देखते हैं. मसलन, उन्हें सारे वैचारिक घमासान के बीच जॉर्ज ऑरवेल की उक्ति याद आती है. अतीत पर जिसका कब्जा होगा, भविष्य उसी के काबू में होगा. और जो वर्तमान पर काबिज है, अतीत पर उसी का काबू होगा.
ओम के मुताबिक, मुअनजोदड़ों में मिली ज्यादातर मूर्तियों की आंखें यूं ही अंधमुदी नहीं हैं. उसके पीछे योग का दर्शन छिपा है. लेखक के शब्दों में कहें तो, आंख होने के अहंकार का विलय कर आंखें मूंदना और भीतर की आंख से खुद को और दुनिया को देखना. शब्दों के पार मौन में अर्थ ढंढ़ना. दो पांव से दुनिया नापने की महात्वाकांक्षा के बरक्स पालथी मार कर बैठना और काल की दूरी नापना.
किताब बहुत बड़ी नहीं है. मगर इसमें वह बड़प्पन कूट कूट कर भरा है, जो हमारे पुरखों ने हमें मुहैया कराया. इसे जरूर पढ़ा जाना चाहिए. इससे हम कुछ बेहतर, कुछ सरल, कुछ गरिमामय और कुछ अहम से मुक्त होते हैं. एक बात और. किसी की किताब में भला कोई और भूमिका क्यों लिखता है. इधर तो नए सिरे से ये चलन दिखने लगा है. किसी बड़े या बिकाऊ आदमी से टिप्पणी करवा लो तो किताब की बाजार में पूछ बढ़ जाती है. मगर मुअनजोदड़ो इस मामले में भी एक नया ही अनुभव है. किताब की तरह कृष्णनाथ की लिखी हुई भूमिका भी समृद्धि दे जाती है. शुरुआत में ही कृष्णनाथ मानो किताब नहीं पूरे परिदृश्य के सिलसिले में ही एक सूत्र दे देते हैं. वह लिखते हैं, आप किताबें पढ़ें. सिर्फ देखें नहीं. आज-कल तो पढ़ते नहीं, देखते हैं. देखी के जोर को एक जरूरी झटके की तरह है ये बात.
तो मेरी सलाह है कि आप भी इस किताब को पढ़ें.