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बुक रिव्यू: कैप्टन, जिसकी कॉल से मुंबई की फिल्मी दुनिया कांपती थी

अबु सलेम की कहानी. एक ऐसा नाम, जो फिल्म वालों की दुनिया का सबसे बड़ा रियल विलेन बन गया था.

माय नेम इज अबू सलेम का बुक कवर माय नेम इज अबू सलेम का बुक कवर
विकास त्रिवेदी
  • नई दिल्ली,
  • 29 जून 2015,
  • अपडेटेड 7:57 PM IST

बुक: माय नेम इज अबु सलेम
लेखक: एस हुसैन जैदी
पब्लिशरः पेंग्विन बुक्स
कीमत: 299 रुपये (पेपरबैक एडिशन)
मशहूर क्राइम रिपोर्टर और राइटर एस हुसैन जैदी फिर हाजिर हैं. इस बार एक और माफिया की कहानी लेकर. अबु सलेम की कहानी. एक ऐसा नाम, जो फिल्म वालों की दुनिया का सबसे बड़ा रियल विलेन बन गया था.

कौन था या कहें कि है ये अबु सलेम. आजमगढ़ की पैदाइश वाला लड़का. बाप इज्जतदार वकील थे. राजदूत से चलते थे. फिर एक रोज ट्रक से टक्कर हुई और उनका निधन हो गया. बाप मरा तो परिवार से सुकून का साया गुम गया. अबू ने मां की मदद के लिए स्कूल छोड़ मैकेनिक का काम सीखा. फिर बड़ा काम करने दिल्ली आया. मगर कुछ बरस स्कूटर और कार सुधारने के बाद भी उसे अपनी जिंदगी बहुत सुधरती नहीं लगी. फिर वो अपने चचाजाद भाई के पास बंबई (कहना न होगा, अब मुंबई) चला गया.

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यहां भाई के मार्फत उसकी माफिया जगत से दुआ सलाम शुरू हुई. शुरुआत प्यादों से हुई. कुछ किस्मत, कुछ मेहनत, सलेम जल्द प्यादों की पांत से आगे बढ़ा और सवारों की नजर में आ गया. मुंबई सीरियल ब्लास्ट के बाद सब दुबई भागे. दाउद और उसके गुंडे. सलेम भी वहां पहुंचा. फिर उसने दाउद के भाई अनीस इब्राहिम के लिए हुकुम बजाना शुरू किया. जल्द ही सलेम के हिस्से बॉलीवुड और बिल्डर से कमाई का कोष्ठक आया. उसने इसमें कूत कूत कर रकम भरना शुरू किया. पैसे के लिए हर तरकीब अपनाई गई. बेरहमी से कतल. धमकी. धमकी को वजन देने के लिए गोलीबारी. आलम ये हुआ कि बॉलीवुड का हर छोटा बड़ा आर्टिस्ट अबु सलेम उर्फ कैप्टन की कॉल से कांपने लगा.

मगर रात को बीतना ही होता है. तो गुलशन कुमार की मौत के बाद दुबई में अबु पर दबाव बढ़ा. उसे जेल भी जाना पड़ा. इसके बाद अबु की अनीस के साथ खटपट हो गई. उन्हीं दिनों उसकी एक्ट्रेस मोनिका बेदी के साथ नजदीकियां भी बढ़ रही थीं. अबु फिल्मी लोगों से लगातार मिलता था. मगर अबु की पहचान के साथ नहीं. वह कहता था कि मैं अर्सलान अली हूं. अबु का सहयोगी. मोनिका बेदी पर भी अबु की असल पहचान बरसों बाद जाहिर हुई. शायद तब तक देर हो चुकी थी. या लत लग चुकी थी.

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अनीस से अदावत के बाद अबु ने दुबई और दाउद गैंग छोड़ दिया. अफ्रीका होता हुआ वह अमेरिका सैटल हुआ. 9/11 के बाद उसने यूरोप में शरण ली. यहीं पुर्तगाल में उसे गिरफ्तार किया गया. मोनिका बेदी के साथ. फिर प्रत्यर्पण हुआ. सलेम मुंबई आ गया. मोनिका का मामला हैदराबाद में चला. फर्जी पासपोर्ट का. कुछ बरसों में उसे जमानत मिल गई. उसने अबू से किनारा कर लिया. और अब नए सिरे से फिल्मों में काम करने में जुटी है. वहीं अबू एक बार फिर जेल में रहने के बावजूद निकाह की तैयारी कर रहा है. उसे उम्मीद है कि पुर्तगाल के नियमों के चलते भारत में उसे कड़ी सजा नहीं मिल सकती. उस पर जेल में दो बार हमला भी हो चुका है. सो ये किस्सा अभी लिखा जा रहा है. वक्त के दस्ते पर.

‘माई नेम इज अबू सलेम’ जैदी की पिछली किताबों की तरह ही मारक है. इसमें तथ्य हैं. नाटकीय रूपांतरण है और एक तारतम्यता भी. इसलिए यह मजेदार अपराध कथा बन पड़ी है. किताब की भाषा सरल है और अध्याय छोटे छोटे. इसमें सिर्फ गोलियों की ताबड़तोड़ ही नहीं है. आर्थिक मोर्चेबंदी, गैंग के अंदरूनी सियासी समीकरण और अबु की शख्सियत के कई पेचीदा हिसाबों का भी बारीक ब्यौरा है.

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अगर आपको मुंबई माफिया के किस्सों में दिलचस्पी है, तो ये किताब आपके लिए है. इस किताब का हिंदी अनुवाद 'अबु सलेम बोल रहा हूं' अब उपलब्ध है. किताब का हिंदी में अनुवाद सुशील झा ने किया है. पेंग्विन हिंदी ने किताब का हिंदी संस्करण छापा है.

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