
मोदी सरकार ने देश के करोड़ों गरीबों को मुफ्त इलाज के लिए आयुष्मान जैसी महत्वाकांक्षी योजना शुरू की है, लेकिन सच तो यह है कि देश में चिकित्सा सेवा की सेहत खुद खराब है. अस्पतालों, बुनियादी ढांचे और डॉक्टरों की बेहद कमी है. चमकी बुखार से 100 से ज्यादा बच्चों के मरने की भयावह घटना यह साबित करती है कि स्वास्थ्य व्यवस्था में आमूल बदलाव किए बिना कोई भी इलाज व्यवस्था कारगर नहीं हो सकती है. अंतरिम बजट में सरकार ने स्वास्थ्य क्षेत्र के लिए 63,298 करोड़ रुपये का आवंटन किया है, लेकिन यह स्वास्थ्य क्षेत्र की जरूरतों के लिहाज से नाकाफी है. इसलिए यह देखना दिलचस्प होगा कि मोदी सरकार 2.0 के पहले बजट में वित्त मंत्री इस सेक्टर में आमूल बदलाव करने के लिए कोई बड़ा कदम उठाती हैं या नहीं.
अंतरिम बजट में उपेक्षा!
फरवरी में अंतरिम बजट पेश करते हुए केंद्रीय मंत्री पीयूष गोयल ने अपने भाषण में स्वास्थ्य क्षेत्र की खास चर्चा नहीं की. सिर्फ आयुष्मान भारत से लाभान्वित जनता और प्रधानमंत्री जन औषधि केंद्र के फायदों की बात की गई थी. हरियाणा में एक नए एम्स की स्थापना की घोषणा की गई थी. हालांकि, स्वास्थ्य क्षेत्र के लिए बजट बढ़ाकर 63,298 करोड़ रुपये का आवंटन किया है, जिसमें से आयुष्मान भारत के लिए 6,400 करोड़ रुपये का बजट जारी किया गया है. वर्ष 2018-19 में स्वास्थ्य के लिए 52,800 करोड़ रुपये के बजट निर्धारित था.
पीएम मोदी ने स्वास्थ्य क्षेत्र पर खर्च 2025 तक सकल घरेलू उत्पाद के 1.02 फीसदी से बढ़ाकर 2.5 फीसदी करने का लक्ष्य रखा है. हालांकि, दूसरे देशों के आंकड़ों को देखें तो यह लक्ष्य भी कोई बहुत प्रभावित करने वाला नहीं दिखता. असल में स्वास्थ्य क्षेत्र को बूस्टर डोज की जरूरत है और मजबूत मोदी सरकार से इसकी उम्मीद तो की ही जा सकती है.
भूटान भी हमसे बेहतर
गौरतलब है कि नेशनल हेल्थ प्रोफाइल के मुताबिक भारत स्वास्थ्य क्षेत्र पर जीडीपी का महज 1.02 फीसदी खर्च करता है, जबकि हमसे ज्यादा भूटान (2.5%) और श्रीलंका (1.6%) जैसे पड़ोसी देश खर्च करते हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़े डराने वाली तस्वीर दिखाते हैं. इनके अनुसार, भारत में एलोपैथिक डॉक्टर के तौर पर प्रैक्टिस करने वाले एक तिहाई लोगों के पास मेडिकल की डिग्री नहीं है. मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया के पास वर्ष 2017 तक कुल 10.41 लाख डॉक्टर पंजीकृत थे. इनमें से सरकारी अस्पतालों में 1.2 लाख डॉक्टर थे. शेष डॉक्टर निजी अस्पतालों में कार्यरत हैं अथवा अपनी निजी प्रैक्टिस करते हैं.
ग्रामीण क्षेत्रों में करीब 90 करोड़ आबादी स्वास्थ्य देखभाल के लिए इन थोड़े से डॉक्टरों पर ही निर्भर है. आईएमए के मुताबिक, इस असामान्य अनुपात की वजह से हाल यह है कि कहीं-कहीं अस्पतालों में एक बेड पर दो मरीजों को रखना पड़ता है तो कहीं गलियारे में मरीज लिटाए हुए देखे जा सकते हैं. दूसरी तरफ जो चिकित्सक हैं, उनके ऊपर भी काम का काफी बोझ है. पीडब्ल्यूसी की एक रिपोर्ट के अनुसार पिछले एक दशक में करीब 1 लाख अस्पताल बेड जोड़े गए हैं, लेकिन यह ज्यादातर निजी क्षेत्र के हैं और जरूरतों के हिसाब से नाकाफी हैं. स्वास्थ्य क्षेत्र में होने वाले कुल खर्च का करीब 30 फीसदी हिस्से में ही सार्वजनिक क्षेत्र का योगदान होता है. ब्राजील में यह 46 फीसदी, चीन में 56 फीसदी, इंडोनेशिया में 39 फीसदी, अमेरिका में 48 फीसदी और ब्रिटेन में 83 फीसदी है.
कम डॉक्टर, कम मेडिकल कॉलेज
देश में करीब 470 मेडिकल कॉलेज हैं. इनमें से 230 सरकारी और 240 प्राइवेट हैं. प्राइवेट मेडिकल कॉलेजों में से दो-तिहाई दक्षिण भारत में हैं. भारत में न तो पर्याप्त अस्पताल हैं, न डॉक्टर, न नर्स और न ही सार्वजनिक स्वास्थ्य कर्मचारी. स्वास्थ्य देखभाल की क्वालिटी और उपलब्धता में बड़ा अंतर है. यह अंतर केवल राज्यों के बीच नहीं है, बल्कि शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में भी है. पिछली मोदी सरकार में अनारक्षित क्षेत्रों में 24 नए मेडिकल कॉलेज खोलना की घोषणा की गई थी. सरकारी बयान में कहा गया है कि नए मेडिकल कॉलेज खोलने के अलावा 2020-21 तक स्नातक और स्नातकोत्तर की 18058 सीटों में वृद्धि होगी.
एक अनुमान के अनुसार यहां एक साल में करीब 55 हजार एमबीबीएस पास होते हैं. पहले के हिसाब से ये 55 हजार एमबीबीएस सारे काम कर सकते थे, लेकिन अब वे कानूनी तौर ऐसा नहीं कर सकते. अब हमें पोस्ट ग्रेजुएट डॉक्टर पर निर्भर रहना पड़ता है. पोस्ट ग्रेजुएट सीट करीब 30 हजार ही हैं. यानी अभी भी 55 हजार एमबीबीएस में से 25 हजार के पास विशेषज्ञता नहीं होगी, वे केवल जूनियर रेजिडेंट्स बनकर रह जाएंगे. जूनियर रेजिडेंट्स केवल मरीज का मुआयना कर सकता है.
चमकी बुखार से उठे सवाल
जानकारों का कहना है कि स्वास्थ्य क्षेत्र सेवाओं तक गरीबों की पहुंच और किफायत के हिसाब से आयुष्मान भारत एक बेहतरीन योजना है, लेकिन सबसे जरूरी है स्वास्थ्य क्षेत्र के समूचे बुनियादी ढांचे को दुरुस्त करना. क्योंकि बिहार, यूपी के इंसेफलाइटिस से पीड़ित बच्चों के लिए आयुष्मान जैसी योजनाएं नहीं बल्कि बेहतरीन स्वास्थ्य ढांचा जरूरी है. गोरखपुर मेडिकल कॉलेज में इंसेफलाइटिस के इलाज के लिए एक विशेष केंद्र बनाया गया है, लेकिन बिहार के मुजफ्फरपुर या अन्य पीड़ित इलाकों में भी इस तरह के केंद्र बनाने होंगे. इसलिए इस बार बजट पर सबकी नजर होगी कि वित्त मंत्री इस खतरनाक हो चुकी बीमारी से निपटने के लिए क्या घोषणा करती हैं.