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बजट में मोदी का 'भारत' पर दांव

प्रधानमंत्री ने केंद्रीय बजट के जरिए अपने आर्थिक चिंतन के केंद्र में आम आदमी को लाकर खड़ा कर दिया है.

बजट में आम आदमी पर जोर बजट में आम आदमी पर जोर
राज चेंगप्पा
  • नई दिल्ली,
  • 07 फरवरी 2017,
  • अपडेटेड 5:49 PM IST

ऑस्कर पुरस्कार जीतने वाली फिल्म लाइफ ऑफ पाइ में एक ऐसे भारतीय की कहानी है जिसका जहाज प्रशांत महासागर में डूब जाता है और वह एक नाव पर एक शेर के साथ यात्रा करते हुए खुद को बचा ले जाता है. उसकी कहानी पर बीमा एजेंट को सहज ही विश्वास नहीं होता. फिर पाइ एक ऐसी कहानी गढ़ता है जिसमें शेर की जगह वह मनुष्यों को अपनी कहानी का किरदार बना डालता है. इसके बाद उससे पूछता हैः आपको किस कहानी पर यकीन है?

नोटबंदी की सुनामी लाने के बाद मोदी ने एक महान आधुनिक सुधारक की छवि अख्तियार कर ली है जिसे जोखिम उठाने और अपने समर्थकों को चोट पहुंचाने का कोई भय इसलिए नहीं था क्योंकि उसके मन में विश्वास था कि वह जो कुछ कर रहा था, वह राष्ट्र के व्यापक हित में था. उन्होंने खुद को गरीबों के नए मसीहा का रूप दे डाला है और साथ ही भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग लडऩे वाले योद्धा का बाना भी पहन लिया है.

अपने कार्यकाल का आधा सफर पूरा कर लेने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अच्छे से पता था कि 2019 में दोबारा प्रधानमंत्री बनने का उनका मौका इस बजट पर टिका हुआ है. उन्हें इस बात का इलहाम भी था कि काले धन को जड़ से उखाड़ फेंकने की उनकी औचक कवायद को लेकर वैसे तो व्यापक समर्थन मौजूद रहा, लेकिन अब उन्हें नोटबंदी से हुए जख्मों पर थोड़ा मरहम लगाने की जरूरत है. सिर पर उत्तर प्रदेश का विधानसभा चुनाव भी खड़ा था, जहां बीजेपी की हार उनके कार्यकाल के बचे हुए वर्षों पर असर डाल सकती थी.
इसके अलावा कुछ और अहम चिंताएं थीं. नोटबंदी से भारत की आर्थिक चाल काफी धीमी हो चुकी थी और उनकी सरकार को यह स्वीकार करने को मजबूर होना पड़ा था कि जीडीपी की वृद्धि दर 7.5 फीसदी से गिरकर 6.5 फीसदी पर आ जाएगी. निजी क्षेत्र का निवेश तकरीबन गर्त में जा चुका था और अहम क्षेत्रों के मुनाफे और मांग में गिरावट दर्ज की जा रही थी. नोटबंदी से पहले ही डूब चुके कर्जों के बोझ तले बैंक अब कॉर्पोरेट को उधार देने में सतर्क हो चुके थे, भले ही अब उनके पास खूब पैसा आ चुका था.

प्रधानमंत्री को देश में रोजगार के पड़े अकाल की भी गहरी चिंता थी जिसमें नकदी संकट कोढ़ में खाज का काम कर रहा था, खासकर अनौपचारिक क्षेत्र का हाल बुरा था. एक संकेत यह था कि महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना में मौजूदा वर्ष में रोजगार काफी कम हुए हैं. यह संकट का स्पष्ट संकेत था.

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ब्रेग्जिट (ब्रिटेन का यूरोपीय यूनियन से अलग होना) और डोनाल्ड ट्रंप की जीत के साथ परिदृश्य तेजी से बदल रहा था जो वैश्वीकरण के पलटने और संरक्षणवाद के नए दौर के शुरू होने का संकेत था. मांग और आर्थिक वृद्धि में वैश्विक सुस्ती छा रही थी. चिंता इस बात की थी कि भारत जैसी उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं से अब अमेरिका जैसे देशों में विदेशी निवेश वापस चला जाएगा. परंपरागत निर्यात केंद्रित वृद्धि मॉडल जिस पर दो दशक से यह देश पोषित हो रहा रहा था, वह अब लडख़ड़ा रहा था.

मोदी के पास चुनने के लिए कठिन विकल्प थे. हर किसी को उम्मीद थी कि वे अर्थव्यवस्था को एक ऐसी तगड़ी खुराक देंगे जो सुस्ती और पतन को दुरुस्त कर के जीडीपी की वृद्धि दर को वापस 7 फीसदी तक ले आए. बजट बनाते समय मोदी और जेटली ने वित्तीय दुस्साहस या लोकलुभावनवाद में फंसने से खुद को बचा लिया. इसके बजाए उन्होंने चार अहम क्षेत्रों पर जोर दियाः निवेश को कैसे बढ़ावा मिले, मांग कैसे पैदा की जाए, रोजगार कैसे पैदा हों और यह बात चाहे कितनी ही अव्यावहारिक क्यों न लगे, वित्तीय संतुलन कैसे बनाए रखा जाए.

मोदी के लिए निजी तौर पर दो अन्य चिंताएं थीं—उनके दिमाग में एक बात साफ थी कि बजट ऐसा होना चाहिए जो उनकी गरीब समर्थक छवि को रेखांकित करता हो. इसके अलावा यह भी अहम था कि बजट इस बात को दर्शाए कि नोटबंदी अपने आप में कोई साध्य नहीं थी बल्कि काले धन के खिलाफ जंग में एक साधन भर थी. इसलिए मोदी और उनकी टीम ने जोखिम उठाने का फैसला लिया और भारत पर अपना दांव लगा दिया—वह भारत जिसके गांवों और शहरों में वंचित आबादी का वास होता है.

चूंकि बड़ी पूंजी में विस्तार की गुंजाइश कम थी, इसलिए निवेश को बढ़ावा देने के लिए फैसला लिया गया कि अहम जनकल्याणकारी कार्यक्रमों और योजनाओं पर खर्च बढ़ाया जाए. नई योजनाओं की घोषणा करने के बजाए हालांकि टीम ने अहम क्षेत्रों मंो व्यय बढ़ाने पर जोर रखा, खासकर इन्फ्रास्ट्रक्चर क्षेत्र में जहां पहले से ही अच्छे नतीजे देखने को मिल रहे थे. सबसे बढिय़ा नतीजे सड़क क्षेत्र में थे जहां जेटली ने दावा किया कि एनडीए सरकार ने 2014 में सत्ता में आने के बाद 1,40,000 किमी लंबी सड़कें यानी 160 किमी प्रतिदिन के हिसाब से सड़कें बनवाई हैं. उनके बजट में इस क्षेत्र को 2017-18 के लिए 64,900 करोड़ रु. आवंटित किए गए. यह 12 फीसदी का इजाफा है. चूंकि निर्माण क्षेत्र मोटे तौर पर अनौपचारिक था, इसलिए निवेश में कोई भी बढ़ोतरी खासकर अकुशल मजदूरों के लिए ज्यादा रोजगार का सबब बनती.

मांग और रोजगार को तेजी देने के लिए मोदी और उनकी टीम ने भारत की बुनियादी जरूरत पर ध्यान दिया कि हर किसी को रोटी और कपड़े के अलावा एक मकान की जरूरत होती है. हर भारतीय को एक मकान चाहिए जिसे वह घर कह सके. बजट और नए वर्ष की पूर्व संध्या पर प्रधानमंत्री के दिए भाषण में कई ऐसे कदम और रियायतें हैं जो शहरी और ग्रामीण आवास क्षेत्र में मांग और निवेश को प्रोत्साहित करने का काम करती हैं. इनमें से एक फैसला यह था कि किफायती आवास को इन्फ्रास्ट्रक्चर का दर्जा दे दिया जाए जो बैंक कर्ज पर ब्याज दरों को कम करने में मददगार होगा और साथ ही प्रधानमंत्री आवास योजना के अंतर्गत 2019 तक एक करोड़ मकान बनाने का लक्ष्य रखा गया.

रोजगार सृजन के मामले में बड़े कारोबारों पर भरोसा करने के बजाए इन्होंने फैसला किया कि इसके लिए अतिलघु, लघु और मझोले उद्यमों पर विश्वास टिकाया जाए. उन्होंने ''छोटा ही अच्छा" पर फोकस किया. देश भर में एमएसएमई आर्थिक गतिविधियों के केंद्र्र हैं और सबसे ज्यादा रोजगार देते हैं. इसी क्षेत्र पर नोटबंदी की मार भी सबसे ज्यादा पड़ी थी. विडंबना थी कि ये उद्यम 30.3 फीसदी की प्रभावी दर पर कर चुका रहे थे जबकि बड़े उद्योगों के लिए यह दर 25.9 फीसदी थी. एक झटके में जेटली ने उन छोटी कंपनियों के लिए आयकर को घटाकर 25 फीसदी कर डाला जिनका सालाना कारोबार 50 करोड़ रु. तक का है.

कम कमाने वालों के लिए भी तकरीबन यही नजरिया अपनाया गया जिनकी आय 5 लाख रु. से कम है ताकि उन्हें भी अच्छा महसूस हो सके. कर चुकाने वाले कुल 3.7 करोड़ लोगों में 80 फीसदी लोग इसी आय श्रेणी में आते हैं. इनके लिए जेटली ने आयकर को तकरीबन शून्य कर दिया और दावा किया कि इससे प्रोत्साहित होकर भविष्य में ज्यादा से ज्यादा लोग आयकर रिटर्न दाखिल करेंगे, जिससे आयकर का दायरा विस्तृत होगा. ज्यादा आय वाले और मध्यवर्गीय लोग भले ही इससे खफा हों, लेकिन ऐसा कर के मोदी उन लोगों के हाथों में पैसा देने में कामयाब हो गए जिन्होंने नोटबंदी की मार सबसे ज्यादा झेली थी. इससे यह दोबारा साबित हुआ कि उनकी सरकार वंचितों के हक में काम करती है.

इस संतुलित बजट को दो और चीजों ने पूर्ण संतुलन में ला दिया. राजनैतिक चंदे से पैदा होने वाले काले धन पर लगाम कसने के लिए मोदी जानते थे कि उन्हें जन प्रतिनिधित्व कानून में बदलाव कर पाना मुश्किल होगा क्योंकि उनकी पार्टी के पास राज्यसभा में बहुमत नहीं है. इसीलिए उन्होंने इसके लिए बजट का इस्तेमाल किया और बेनामी चंदे के आकार को कम करने के साथ चंदे की निगरानी के लिए चुनावी बॉन्ड की प्रणाली का ऐलान कर डाला.

अंत में, मोदी ने वित्तीय अनुशासन को बिगाड़ देने का लोभ संवरण कर ही लिया. अगर उन्होंने वह राह चुनी होती, तो संभव है कि उन्हें घरेलू मोर्चे पर काफी सराहना मिलती लेकिन उससे मुद्रास्फीति का खतरा पैदा हो जाता जबकि सरकार ने उसे काबू में रखने का हाल ही में दावा किया था. वैसे भी, कई विदेशी निवेशकों ने नोटबंदी की खासी आलोचना की थी और मोदी दुनिया के सामने यह दिखाने को आतुर थे कि उनकी सरकार निरंतरता, स्थायित्व और वित्तीय समेकन में यकीन करती है, जैसा एक अधिकारी ने बताया, ''हमारे लिए एक लक्ष्मण रेखा खींच दी जिसे हमें पार नहीं करना था." उन्होंने यह भी ध्यान रखा कि ऐसी किसी भी योजना की घोषणा न करें जिससे वे चुनाव आयोग के निशाने पर आ जाएं.

वित्त मंत्री अरुण जेटली ने भरोसा जताया कि उनका चौथा बजट पासा पलटने वाला साबित होगा और इस बाबत अपने भाषण में कहा, ''अगर मेरा लक्ष्य सही है, मंजिल मुझे दिख रही है, हवा अनुकूल है तो मैं उड़ सकता हूं." संसद में वित्त मंत्री अरुण जेटली के बजट पेश करने से कुछ मिनट पहले केंद्रीय कैबिनेट की बैठक हुई जैसा कि रिवाज है. बैठक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने असामान्य रूप से कड़े स्वर में अपने सहयोगियों से कहा, ''अपने-अपने मंत्रालय के बजटीय प्रावधानों को मैग्निफाइंग ग्लास लगाकर पढ़ लीजिए और ध्यान रखिए कि हर काम 1 अप्रैल तक हो जाए."

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अच्छे से पता है कि डिलीवरी के मामले में अगर उन्होंने अपनी सरकार और अफसरशाहों पर जरूरत से ज्यादा भरोसा किया तो वे लडखड़ा जाएंगे. बजट की मुख्य आलोचना यह की जा रही है कि सरकार के दखल को कम करने के बजाए इसने विकास में भारत सरकार की भूमिका को और विस्तृत कर डाला है. दूसरी आलोचना यह है कि जेटली ने उर्वरक और खाद्य पदार्थों पर सब्सिडी को कम करने के लिए कुछ नहीं किया, बल्कि नए बजट में यह बढ़ गया है.

वित्त सचिव अशोक लवासा ने आग्रह किया था कि वे खाद्य सब्सिडी को कम नहीं कर सकते क्योंकि ज्यादा से ज्यादा राज्य अब राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून के दायरे में आ चुके हैं. उन्होंने कहा कि सरकार ने कमियों को दूर करने के लिए काफी कुछ किया है और यह सुनिश्चित किया है कि प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण के माध्यम से सब्सिडी लोगों तक सीधे पहुंच सके.

मोदी के आलोचक कहते हैं कि अगली पीढ़ी के बारे में सोचने के बजाए प्रधानमंत्री की निगाह हमेशा अगले चुनाव पर रहती है. यह भी कहा जाता है कि वे सिर्फ बोलते हैं, करते कम हैं. अब सवाल उठता है कि क्या मोदी एक महान संकटमोचन हैं जो भारत की डूबती नाव को सैलाब से निकालकर संपन्नता और प्रतिष्ठा की ओर ले जा रहे हैं? या फिर वे एक ऐसे बादशाह हैं जिसके तन पर कपड़े नहीं हैं और जल्द ही जिसका पर्दाफाश हो जाएगा? सवाल आपसे है कि आप दोनों में से किस कहानी पर यकीन करते हैं?

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