
राष्ट्रपुत्र, चंद्रशेखर आजाद पर आधारित फिल्म है. इसमें उनके व्यक्तित्व और कृतित्व को पेश किया गया है. लेकिन इस फिल्म की सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इसमें आजाद को महात्मा गांधी का कट्टर विरोधी बताया गया है.
या यों कहिए कि यह फिल्म आजाद विरूद्ध गांधी है. इस फिल्म के लेखक-निर्देशक आजाद का भी मानना है कि गांधी ने आजाद के साथ न्याय नहीं किया था जिससे फिल्म को उस पर ज्यादा फोकस किया गया है.
बकौल आजाद,`मैंने चंद्रशेखर आजाद पर इसलिए फिल्म बनाने की सोची क्योंकि, मैं बचपन से ही उनसे प्रभावित था. मैंने अपना नाम भी आजाद रखा. देश के क्रांतिकारियों में भगत सिंह पर ज्यादा फिल्में बनी है. लेकिन आजाद पर उनके व्यक्तित्व और कृतित्व को लेकर फिल्में नहीं बनी हैं.'
वे कहते हैं,`मैंने इस महान क्रांतिकारी पर फिल्म बनाने के लिए सैनिक स्कूल से पढ़ाई पूरी करने के बाद दो साल तक रिसर्च किया. फिर मैंने सोचा कि जिस सोच के साथ यह फिल्म बनाना चाहता हूं, उसे दूसरे लेखक और निर्देशक फिल्म में पूरा नहीं कर पाएंगे. तब मैंने खुद ही इसकी स्क्रिप्ट लिखी और निर्देशन भी किया.
आजाद की भूमिका के लिए भी खुद को तैयार किया. मैंने अपना वजन 15 किलो बढ़ाया.' अब जब फिल्म रिलीज के लिए तैयार हो गई है तो वे खुश हैं कि जिस मकसद से बनाई उसमें वे सफल हैं.
उन्होंने इसे 26 भाषाओं में तैयार किया है. संस्कृत सहित पांच भाषाओं में शूटिंग की है तो 21 भाषाओं में डब किया है. यह फिल्म अगले महीने 14 सितम्बर को रिलीज करने की योजना है. संस्कृत के दर्शक नहीं हैं तो इसे थिएटर में कैसे रिलीज कर पाएंगे?
इस सवाल पर वे कहते हैं, `द बांबे टाकीज स्टूडियोज इसके निर्माता हैं और डिस्ट्रीब्यूटर भी हैं. इसलिए इसे थिएटर मिलने में कोई दिक्कत नहीं है. यह भी सच है कि आज अपने ही देश में संस्कृत की हालत बहुत खराब है.
लेकिन एक भी संस्कृत प्रेमी ने यह फिल्म देख ली तो उनका फिल्म बनाने का मकसद पूरा हो जाएगा.' वैसे, आजाद इस फिल्म का बजट बताने से इनकार करते हैं. उनका कहना है कि फिल्म रिलीज होने के बाद ही निर्माता इसका बजट बता पाएंगे.
मूल रूप से बनारस के रहने वाले आाजद खुद भी क्रांतिकारी विचार रखते हैं और उनका मानना है कि गांधीवाद और नेहरूवाद देशहित में नहीं है. वे सवाल करते हुए कहते हैं कि गोडसे ने गांधी की हत्या क्यों की थी?
उनकी गांधी से कोई व्यक्तिगत दुश्मनी नहीं थी. लेकिन उनके कुछ कामों से वे नाराज थे. बाद में गोडसे को फांसी हुई थी. देश के बंटवारे के दर्द को कई लोग झेल नहीं पाए थे. आज हमारे बनारस जिले को बांटकर चंदौली और भदोही जिला बनाया गया है. जिससे मैं भी दुखी हूं.
जो बनारसी था वो कटकर भदोही वाला हो गया, मोक्ष की नगरी काशी के लोग अब चंदौली के हो गए. वे कहते हैं कि अंग्रेजों ने जात के आधार पर हमारे समाज को बांटा था. उसका नतीजा हम भुगत रहे हैं, आरक्षण की मांग हो रही है.
लोग अब राष्ट्र के बारे में कम सोचते हैं जबकि राष्ट्र है तो हमलोग हैं. इस फिल्म से हम आजाद की राष्ट्रवाद की सोच को फैलाने की कोशिश करेंगे. वे बताते हैं कि इस फिल्म की इलाहाबाद, कानपुर, लखनऊ, बनारस, झांसी में शूटिंग की गई.
आजाद का जो व्यक्तित्व है उसे दिखाया है. आजाद की मौत के बाद उनकी कहानी को तोड़ा-मरोड़ा गया. आजाद की विचारधारा अलग थी. आजाद की मौत को लेकर विवाद है लेकिन फिल्म देखने के बाद असल बात पता चलेगी.
फिल्म में आजाद को युवा क्रांतिकारियों के प्रेरक के रूप में दिखाया गया है. भगत सिंह और सुखदेव भी उनसे प्रेरित होकर उनके पास आए थे. फिल्म में सुभाष चंद्र बोस और लाला लाजपत राय गांधी से क्यों नाराज थे उस पर भी फोकस किया गया है.
वंदे मातरम गाने को विशेष रूप से फिल्म के लिए शूट किया गया है. इस फिल्म के लिए यशपाल की किताबों का भी सहारा लिया गया है. आजाद मानते हैं कि फिल्म उनके लिए व्यवसाय नहीं है. यह एक साहित्यिक कृति है. वे कहते हैं, एक फिल्ममेकर किसी भी फिल्म के जरिए साहित्यिक युद्ध ही लड़ता है.
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