
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग से एक साल से भी कम वक्त में पांच बार मुलाकात करके एक किस्म का रिकॉर्ड बना दिया है. ऐसा करने वाले पहले शासन प्रमुख बन गए हैं.
जिनपिंग के साथ उनकी पांचवीं मुलाकात रूस के दक्षिण में स्थित शहर उफा में हुई, जहां 8-10 जुलाई को एक के बाद एक दो शिखर सम्मेलन आयोजित किए गए-ब्रिक्स शिखर सम्मेलन और शंघाई कोऑपरेशन ऑर्गेनाइजेशन (एससीओ) की शिखर बैठक. प्रधानमंत्री मोदी की इन मुलाकातों पर धीरे-धीरे चीन-पाकिस्तान के रिश्तों की छाया पडऩे लगी, जो आखिरकार इन दोनों देशों के नेताओं के शब्दों में “समुद्र से ज्यादा गहरे, पहाड़ों से ज्यादा ऊंचे और शहद से ज्यादा मीठे” होने लगे.
प्रधानमंत्री मोदी की बीजिंग यात्रा से ठीक पहले अप्रैल में राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने अरबों डॉलर के चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (सीपीईसी) को हरी झंडी दिखाई थी. शी ने चीन में प्रोटोकॉल तोड़कर मोदी का अभूतपूर्व स्वागत किया, लेकिन 16 मई को प्रधानमंत्री के नई दिल्ली लौटने के फौरन बाद एक चीनी जंगी पनडुब्बी ने कराची बंदरगाह पर एक हफ्ते के लिए लंगर डाल दिया.
लेकिन इनमें से किसी भी बात पर नई दिल्ली में उतनी भौंहें नहीं तनीं जितनी प्रधानमंत्री की चीन यात्रा के महज कुछ दिनों बाद घटी एक घटना पर तनीं, जिसमें बीजिंग ने समय रहते याद दिला दिया कि मेलजोल की अपनी सीमाएं हैं. पिछले अगस्त में बातचीत टूटने के बाद गतिरोध के शिकार भारत-पाकिस्तान के रिश्ते 10 अप्रैल को तब और भी रसातल में चले गए, जब पाकिस्तान ने मुंबई आतंकी हमले के एक सरगना जकी-उर-रहमान लखवी को रिहा कर दिया. लखवी की रिहाई पर पाकिस्तान को कठघरे में खड़ा करने के लिए जब भारत ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की प्रस्ताव 1267 समिति (जो अल कायदा से जुड़े आतंकियों पर प्रतिबंध लगाने के मामलों को देखती है) में गुहार लगाई, तो बीजिंग ने अपने पुराने “सदाबहार” साथी को बचाने में जरा कोताही नहीं की. बीजिंग के राजनयिकों ने कहा कि वे लखवी मामले के बारे में “और अधिक जानकारी” चाहते हैं, हालांकि एकदम साफ सबूतों के होते हुए भी आतंकी सरगना को छुट्टा छोड़ दिया गया था. मामला जब समिति के सामने आया तो चीन ने “तकनीकी रोक” लगा दी, जो असलियत में वीटो है. इससे कम से कम अगले तीन महीनों के लिए लखवी को लेकर कोई भी कदम उठाने पर रोक लग गई है.
चीनी बिसात
चीन-पाकिस्तान के बीच नजदीकी की जड़ें 1963 तक जाती हैं, जब पाकिस्तान ने अपने कब्जे वाले कश्मीर (पीओके) की पहाड़ी चोटी के दोनों तरफ फैली 5,000 किमी से ज्यादा लंबी शक्सगाम घाटी सौंप दी थी. 1980 और 1990 के दशक में परमाणु हथियार के ब्लूप्रिंट और मिसाइल फैक्टरी का हस्तांतरण पाकिस्तान को कर दिया गया, जिसके पीछे चीन के क्षेत्रीय प्रतिद्वंद्वी भारत को घेरने की मंशा ज्यादा थी. मार्च 2013 में शी जिनपिंग के राष्ट्रपति बनने के बाद राजनैतिक-आर्थिक और सैन्य रिश्ते ऐसे परवान चढ़े कि उन्होंने पिछले दशकों के रिश्तों को पीछे छोड़ दिया. इसकी रफ्तार ने यूपीए के जमाने की उस नीति को लील लिया, जिसमें बीजिंग को उकसाने से बचकर चीन और पाकिस्तान के बीच दरार पैदा करने की कोशिश की जा रही थी.
चीन के साथ ट्रैक-2 बातचीत से जुड़े एक अधिकारी कहते हैं, “पिछले दो साल में चीनी अधिकारियों ने हमारे सामने यह बिल्कुल साफ कर दिया है कि भारत की संवेदनशीलताएं उनके लिए इसलिए मायने नहीं रखतीं क्योंकि “पाकिस्तान हमारा सहयोगी देश है, हमारा एकमात्र साथी.”
पाकिस्तान आज चीन को सैन्य-आर्थिक महाशक्ति बनाने के राष्ट्रपति शी के 2013 के सपने की बुनियाद बन गया है. दक्षिण चीन सागर में चीन ने अपने जिद्दी रवैए से पिछले 18 महीनों में 2,000 एकड़ से ज्यादा अतिरिक्त जमीन जुटा ली है और इस तरह वह चीज खड़ी कर ली है, जिसे अमेरिकी नौसेना के एक एडमिरल ने “रेत की महान दीवार” कहा है. पश्चिम में अपने “मलक्का असमंजस्य से उबरने के लिए (जहां उसकी 60 फीसदी ऊर्जा आपूर्तियों को संकरे और असुरक्षित मलक्का जलडमरूमध्य से गुजरना पड़ता है) वह तेल-क्षेत्रों के साथ पाकिस्तान की नजदीकी का इस्तेमाल कर रहा है. बलूचिस्तान में स्थित पाकिस्तान के ग्वादर बंदरगाह को चीन ने पहले ही 40 साल की लीज पर ले लिया है. 46 अरब डॉलर का आर्थिक गलियारा, जिसमें सड़कों, रेलमार्गों और ऊर्जा परियोजनाओं का नेटवर्क खड़ा किया जाने वाला है, चारों तरफ जमीन से घिरे दूरदराज के शिनजियांग प्रांत को पश्चिम एशिया, अफ्रीका और यूरोप से जोड़ देगा.
पूर्व राजनयिक एम.के. भद्रकुमार मानते हैं कि बीजिंग-इस्लामाबाद के रिश्ते भारत को घेरने के शुरुआती मकसद से काफी आगे निकल चुके हैं और अब उनका मकसद अमेरिका की “एशिया की धुरी” बने रहने की रणनीति का मुकाबला करना है, जो अमेरिकी नेतृत्व को कायम रखने के उद्देश्य से 2011 में राष्ट्रपति बराक ओबामा ने शुरू की थी.
वे कहते हैं, “चीन जानता है कि अमेरिका भारत को रिझा रहा है. वह नहीं चाहता कि भारत चीन को घेरने की रणनीति का हिस्सा बने.”
चीन इस्लामाबाद की फौजी ताकत को मजबूत कर रहा है और यह तय है कि वह अमेरिका को पीछे छोड़कर उसे हथियार देने वाला सबसे बड़ा मुल्क बन जाएगाः युआन श्रेणी की आठ एसएसपी पनडुब्बियों और 50 एफसी-1 लड़ाकू विमानों के सौदों पर पहले से तैयारी चल रही है. चीन ने एससीओ में अपने सह-मेजबान रूस को भी इस्लामाबाद को हथियार बेचने के लिए तैयार करने की कोशिश की है. यह सामरिक गठजोड़ ज्यादा महत्वपूर्ण है.
इस नजदीकी ने भारत के सशस्त्र बलों को 2009 से ही दो मोर्चों पर चीन और पाकिस्तान के खिलाफ जंग की तैयारी करने के लिए मजबूर कर दिया है. इसने सियाचिन ग्लेशियर से पीछे हटने के खिलाफ भी उनके रवैए को कड़ा कर दिया है, जो पीओके में शक्सगाम घाटी और बाल्तिस्तान के बीच स्थित है और जहां से दोनों मित्र देशों पर निगाह रखी जा सकती है. चीन-पाक के गठजोड़ के मद्देनजर सशस्त्र बलों की नई तोपों और 90,000 सैनिकों की पहाड़ी हमलावर पलटन की मांग बढ़ गई है. भारतीय सेना के एक जनरल कहते हैं, “भारत-पाकिस्तान के बीच एक और लड़ाई में चीन शामिल नहीं होगा, लेकिन भारत-चीन लड़ाई में पाकिस्तान उतरेगा.”
विश्लेषकों का कहना है कि नए सिरे से परवान चढ़े चीन-पाक रिश्ते दरअसल भारत के खिलाफ पाकिस्तान के छद्म युद्ध को और तीखा कर सकते हैं. ब्रिगेडियर गुरमीत कंवल (रिटायर्ड) कहते हैं, “अपनी भीतरी अस्थिरता, पृथकतावादी रुझानों और जर्जर अर्थव्यवस्था के चलते पाकिस्तान के लिए अपने दम पर तो इस छद्म युद्ध को चलाते रहना मुमकिन नहीं होता, मगर चीन के समर्थन से वह ऐसा कर सकता है.”
लखवी के मामले में चीन के वीटो से भारत को खासा ताज्जुब हुआ. लखवी पर वोट के कुछ दिनों बाद एक रिटायर्ड चीनी अफसर ने बीजिंग के फैसले की सफाई पेश कीः बीजिंग मानता है कि पाकिस्तान के ऊपर अंतरराष्ट्रीय दबाव डालने की बजाए भारत पहले “आतंकवाद का मुकाबला करने में पाकिस्तान के योगदान को स्वीकार करे और उसकी कुर्बानियों को मान्यता दे.” चीन की यात्रा पर गए कुछ सेवानिवृत्त भारतीय अफसरों से इस चीनी अफसर ने कहा, “11 सितंबर हमलों के बाद एक दशक तक पाकिस्तान ने भारी कुर्बानियां झेली हैं.” आखिर में उन्होंने कहा, भारत का पाकिस्तान के ऊपर अंतरराष्ट्रीय दबाव डालना गलत था. चीन ऐसा कतई नहीं होने देगा.
भारत ने इस सबका जवाब अमेरिका के साथ अपने रिश्तों में तेजी लाकर दिया है. 4 जून को उसने अमेरिका के साथ 10 साल के लिए एक नए दोतरफा और रणनीतिक प्रतिरक्षा रूपरेखा समझौते पर दस्तखत किए. नई दिल्ली अमेरिका, जापान, भारत तितरफा फोरम को मजबूत कर रही है, जिसके तहत बंगाल की खाड़ी में तितरफा सैन्य अभ्यास फिर से शुरू किए गए हैं और “ऐक्ट ईस्ट” नीति के तहत पूर्वी पड़ोसियों के साथ आर्थिक रिश्तों को बढ़ाया गया है. हाल ही में प्रधानमंत्री मोदी की दो विदेश यात्राएं इन क्षेत्रों में चीन के गहराते जुड़ावों का मुकाबला करने के मकसद से की गई थीं. इनमें हिंद महासागर क्षेत्र के तीन देशों&श्रीलंका, सेशेल्स और मॉरिशस की यात्रा और संसाधनों से संपन्न पांच मध्य एशियाई देशों की बिल्कुल हाल ही की यात्रा शामिल है.
नई दिल्ली ने आर्थिक गलियारे को लेकर खुल्लमखुल्ला और गूढ़ तरीके से अपनी नाखुशी का इजहार कर दिया है. 31 मई को विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा कि प्रधानमंत्री ने अपनी बीजिंग यात्रा के दौरान सीपीईसी का मुद्दा “बहुत मजबूती से” उठाया और हमें “सीपीईसी का पीओके से गुजरना कतई मंजूर नहीं है.” गृह राज्यमंत्री किरण रिजिजु और नागर विमानन राज्यमंत्री महेश शर्मा का धर्मशाला में दलाई लामा की 80वीं सालगिरह के जलसों में शामिल होना भी कोई संयोग नहीं था.
आतंक का त्रिकोण
बीजिंग में अंदरूनी जानकार कहते हैं कि पाकिस्तान के साथ संबंधों को गहरा करने के चीनी कदम के पीछे दो बातें हैः पीओके और अफगानिस्तान की सरहद पर स्थित मुस्लिम बहुसंख्यक पश्चिमी शिनजियांग प्रांत में कट्टर इस्लामी प्रभावों के बढऩे को लेकर चिंता और पाकिस्तान से जोडऩे वाले महत्वाकांक्षी आर्थिक गलियारे के जरिए शिनजियांग की अर्थव्यवस्था को खोलने की फौरी जरूरत.
जुलाई 2011 में पीओके से लगी शिनजियांग की सरहद के नजदीक काशगर और होतान शहरों में चाकू और बमों के हमलों में 40 लोग मारे गए. उस वक्त शिनजियांग के गवर्नर नूर बेकरी ने दावा किया कि उग्रवादियों के पाकिस्तानी धड़ों के साथ “एक हजार एक रिश्ते” थे. महीनों बाद बीजिंग ने अलगाववादी ईस्ट तुर्किस्तान इस्लामिक मूवमेंट (ईटीआइएम) के छह सदस्यों की सूची जारी की, जो माना जाता था कि पाकिस्तान में छिपे थे.
पीकिंग यूनिवर्सिटी में पाकिस्तानी मामलों के विशेषज्ञ हान हुआ कहते हैं कि बीजिंग इस नतीजे पर पहुंचा कि आतंक और अर्थव्यवस्था, दोनों के लिहाज से शिनजियांग के सवाल को सुलझाने के लिए पाकिस्तान “बेहद अहम” है. कुछ भारतीय रणनीतिक विशेषज्ञों के अनुमान को झुठलाते हुए शिनजियांग में बढ़ती हिंसा ने दोनों “सदाबहार” मित्र देशों के बीच दरार पैदा करने की बजाए चीन को पाकिस्तान के पाले में धकेल दिया. चीन में सोच यह थी कि पाकिस्तानी सुरक्षा एजेंसियों के सहयोग के बगैर आतंक पर लगाम कसने का कोई तरीका नहीं है.
भारतीय विश्लेषक महसूस करते हैं कि आतंकवाद से मुकाबले को ज्यादा तूल दी जा रही है. रिसर्च ऐंड एनालिसिस विंग के पूर्व अतिरिक्त सचिव और दिल्ली स्थित थिंक टैंक सेंटर फॉर चाइना एनालिसिस ऐंड स्ट्रैटजी के अध्यक्ष जयदेव रानाडे कहते हैं, “तिब्बत की उथल-पुथल के विपरीत शिनजियांग की गड़बड़ी को चीन कानून-व्यवस्था की समस्या मानकर चल रहा है. ईटीआइएम को कुछ विदेशी रकम मिली है, ठोस मदद का सबूत नहीं है. पाकिस्तान के साथ चीन की नजदीकी का वास्ता अफगानिस्तान और पश्चिम एशिया तक पहुंच से है.”
पाकिस्तान में चीन के पूर्व राजदूत झांग चुनशिआंग कहते हैं, “मीडिया रिपोर्ट भले जो भी कहें, आतंकवाद को लेकर चीन और पाकिस्तान के बीच सहयोग कामयाब रहा है.” 11 सितंबर, 2001 के कुछ वक्त बाद ही पाकिस्तान में तैनात किए गए झांग नजदीकी चीन-पाकिस्तान रिश्तों के कट्टर हिमायती हैं. पाकिस्तान में चीनियों पर हमलों के लिए वे केवल अज्ञात “विदेशी” ताकतों को दोषी ठहराते हैं, 2004 में ग्वादर बंदरगाह में हुए ऐसे ही एक कार बम हमले में तीन चीनी श्रमिक मारे गए थे.
आतंक के खिलाफ पाकिस्तान ने भले ही चुनिंदा ढंग से कार्रवाई की है, लेकिन बीजिंग को यकीन है कि ईटीआइएम सरीखे उइगुर धड़ों के खिलाफ पर्याप्त कदम उठाए गए हैं. झांग कहते हैं, “मैं जब पाकिस्तान में था, उस वक्त अच्छे सहयोग की वजह से ईटीआइएम के (ज्यादातर) आतंकियों का आज वजूद नहीं हैं.”
जर्मन मार्शल फंड में पाकिस्तान विशेषज्ञ और द चाइना-पाकिस्तान एक्सिस के लेखक एंड्रयू स्मॉल कहते हैं कि चीन अब भी खुफिया जानकारी और सुरक्षा के लिए पाकिस्तान पर भरोसा करके चलता है, लेकिन साथ ही दोनों देश “नए इलाके” में भी प्रवेश कर रहे हैं, जहां चीन उत्तर वजीरिस्तान में कार्रवाइयों को तेज करने के लिए और तालिबान को शांति वार्ता की मेज पर लाने के लिए पाकिस्तान पर अभूतपूर्व दबाव डाल रहा है. वे कहते हैं, “पाकिस्तान को एक ऐसे चीन से निबटना पड़ रहा है जो अब उन इलाकों में भी गहरी दिलचस्पी ले रहा है जिन्हें वह पहले रावलपिंडी की अक्लमंदी पर छोडऩे के लिए राजी था और कोई भी पक्ष इससे बहुत खुश नहीं है.”
स्मॉल कहते हैं कि शी जिनपिंग के नए प्रशासन के मातहत आर्थिक परियोजनाओं पर नए सिरे से जोर दिया जा रहा है, जिनमें चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा सबसे खास है.
इस नए जोर के नतीजे भारत को भी झेलने होंगे. पहले चीन पीओके को लेकर भारत की चिंताओं को मंजूर करता था, वहीं अब चीनी अधिकारी यह दलील देते हैं कि काराकोरम हाइवे से वे लंबे समय से जुड़े रहे हैं इसलिए यह कोई नया घटनाक्रम नहीं है. चाइनीज एकेडमी ऑफ सोशल साइंसेज के दक्षिण एशिया विशेषज्ञ ये हाइलिन कहते हैं कि इस परियोजना का कश्मीर के सवाल पर तटस्थता के चीन के आधिकारिक रुख पर कोई असर नहीं पड़ेगा.
वे कहते हैं, “हमने पाकिस्तान के साथ सीमा समझौते पर दस्तखत इस शर्त के साथ ही किए थे कि इसका भारत के ऊपर कोई असर नहीं होगा. इस समझौते का यह मतलब नहीं था कि हम इसे पाकिस्तान का भूभाग मानते हैं. कश्मीर में हमारे विकास का यह मतलब नहीं है कि हम संप्रभुता (दोनों में से किसी भी पक्ष की) का समर्थन करते हैं. भारतीय कश्मीर भी चीन के लिए खोल दिया जाता है तो हमें वहां जाकर खुशी होगी.”
जानकार कहते हैं कि चीन के सुरक्षा और आर्थिक रिश्तों को बढ़ाने के साथ ही बुनियादी बात यह है कि भारत चीन रिश्तों में पाकिस्तान एक बार फिर हकीकत के तौर पर मौजूद है. एक पूर्व चीनी अफसर ने हाल ही में हुई एक कॉन्फ्रेंस में भारतीय अधिकारियों की मौजूदगी में कहा, “जब तक भारत और पाकिस्तान अपनी समस्याएं नहीं सुलझाते, चीन के लिए ऐसा कुछ कर पाना मुश्किल है जिससे भारत में वह संदेहों को बढ़ाता हुआ न दिखाई दे.” विडंबना यह है कि जहां भारत ने चीन के साथ अपने बढ़ते रिश्तों से पाकिस्तान को अलग करने की मांग की है, वहीं लगता है, बीजिंग में कम से कम कुछ लोग ऐसा करने को तैयार नहीं हैं. चीन-पाक गलबहियों ने दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं के रिश्तों पर अपनी छाया डाल दी है. फिलहाल तो यह छाया पक्की दिखाई देती है.