
भारत और चीन के बीच द्विपक्षीय रिश्तों को मजबूत करने के लिए एक अहम कवायद की जा रही है. इस कवायद के केन्द्र में इस महीने चीन में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और राष्ट्रपचि शी जिनपिंग के बीच होने वाली मुलाकात है. दरअसल दोनों नेताओं को जून में शंघाई कोऑपरेशन की बैठक में शरीक होना है और इस हफ्ते की यह मुलाकात महज बीते एक हफ्ते की कोशिश का नतीजा है. इस मुलाकात से साफ है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था के दबावों को देखते हुए दोनों ही देशों को आपसी रिश्तों में न सिर्फ सुधार करने बल्कि निर्णायक फैसले लेने की जरूरत है.
चीन को भारत से चुनौती भरे रिश्तों का दूरगामी नुकसान उठाना पड़ता है. भारत से खराब रिश्तों के चलते होने वाले इन नुकसानों की भरपाई करने के लिए उसे अगले कई दशक मेहनत करनी पड़ सकती है. इन नुकसानों के अलावा यदि दोनों देश युद्ध की परिस्थिति देखते हैं तो चीन को संभवत: ऐसी भी छति हो सकती है जिसकी भरपाई कभी नहीं की जाएगी. यह क्षति चीन की सुपरपावर बनने की क्षमता को ठेस तक पहुंचा सकती है और वह सुपरपावर की दौड़ से पूरी तरह बाहर भी आ सकता है.
1. टूटेगा OBOR का सपना?
चीन की OBOR परियोजना प्राचीन रेशम मार्ग को पुनर्जीवित करने की एक कोशिश है जिससे एशिया, यूरोप और अफ्रीका के बीच व्यापार को नए आयाम दिए जा सके. यह बुनियादी विकास क्षेत्र की एक विशाल परियोजना है और एशिया के कारोबार में चीन के अलावा भारत इस परियोजना के विरोध में हैं. दरअसल चीन के बाद एशियाई कारोबार का सबसे बड़ा खिलाड़ी भारत है. प्राचीन रेशम मार्ग पर उसका बोलबाला था. युद्ध की स्थिति में प्राचीन रेशम मार्ग को पुनर्जीवित करने की चीन की कोशिश को भारत का समर्थन नहीं मिलेगा और यूरोप को भी चीन के परियोजना पर सवाल खड़ा करने का मौका मिल जाएगा.
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2. खत्म हो जाएगी कारोबार की बादशाहत (मैन्यूफैक्चरिंग हब)
बीते तीन दशक से अग्रेसिव इंडस्ट्रियल पॉलिसी के चलते चीन दुनिया का मैन्यूफैक्चरिंग हब है. इन दशकों के दौरान वैश्विक स्तर पर अमेरिका और यूरोप से मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर का पलायन चीन के लिए हुआ जिसका फायदा चीन की अर्थव्यवस्था को मिला. इस दौरान चीन दुनिया की सबसे तेज रफ्तार बड़ी अर्थव्यवस्था बनी रही. लेकिन युद्ध की स्थिति में चीन की आर्थिक ग्रोथ की रफ्तार को हमेशा कि लिए नुकसान पहुंचना तय है. गौरतलब है कि बीते कई वर्षों से भारत ने अपनी आर्थिक स्थिति को चीन के मुकबाले मजबूत किया है. भारत ने चीन से अधिक विकास दर देने का मजबूत ढ़ांचा खड़ा कर लिया है.
3. नहीं रहेगा रीजनल पॉवर (एशियाई दिग्गज)
मौजूदा समय में चीन एशिया क्षेत्र का सबसे अहम खिलाड़ी है. एशिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था और सबसे बड़ी सेना होने के कारण वह एशियाई दिग्गज है और ग्लोबल सुपर पावर बनने का सबसे प्रबल दावेदार भी है. लेकिन पड़ोसी देश भारत से खराब रिश्तों की स्थिति में उसे मिलने वाली चुनौती उसकी एशियाई दिग्गज की छवि को धूमिल कर देगा. हालांकि भारत से किसी तरह के युद्ध की संभावना कम है लेकिन चीन को डर है कि एक बार फिर वह युद्ध के सहारे अपनी सरहदों का विस्तार नहीं कर सकता है. वहीं भारत की सैन्य और कूटनीतिक क्षमता के आगे उसे वैश्विक स्तर पर हार का सामना भी करना पड़ सकता है.
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4. बैंकों की टूट जाएगी कमर?
चीन के बैंकों की स्थिति बेहद कमजोर है. इसके चलते वैश्विक निवेशकों की नजर लगातार उसके बैंकों की चाल पर लगी है. अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के आंकड़ों के मुताबिक जहां 2008 में चीन के बैंकों (कॉरपोरेट और सरकार) पर कर्ज 85 फीसदी (जीडीपी) बढ़ा था वहीं 2017 में बैंकों पर कर्ज 150 फीसदी बढ़ा है. आईएमएफ का आंकलन है कि 2022 तक चीन के कॉर्पोरेट और सरकार पर जीडीपी का लगभग 300 फीसदी कर्ज होगा. लिहाजा चीन सरकार और कॉर्पोरेट दोनों की कर्ज की और भी खराब स्थिति में पहुंच सकते हैं. आईएमएफ के मुताबिक इस स्तर पर यदि किसी सरकार और कॉर्पोरेट पर कर्ज रहता है तो आर्थिक स्थिति बेहद खराब होते देखी गई है. इसके उलट भारत में बैंकों को बैड लोन की स्थिति से उबार कर मजूबती की मजबूती की दिशा में ले जाने की कोशिशें तेज कर दी गई हैं. लिहाजा, चीन को अपने उत्पाद के लिए बड़े बाजार के साथ-साथ निवेश का एक बड़ा जरिया भी चाहिए जिससे उसके खस्ताहाल हो रहे बैंकों को संजीवनी मिल सके.
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5. ब्रिक्स में खत्म हो जाएगी चीन की साख?
ब्रिक्स देश दुनिया के 25 फीसदी भूभाग पर दुनिया की 40 फीसदी आबादी का नेतृत्व करते है. वहीं वैश्विक व्यापार में अभी सिर्फ 18 फीसदी की हिस्सेदारी है जिसे और बढ़ाने की योजनाओं पर जमकर चर्चा हुई. बीते 15 सालों में ब्रिक्स देशों की अर्थव्यवस्थओं के आकर में 225 फीसदी से ज्यादा की बढ़ोत्तरी हुई है. भारत समेत पांच ब्रिक्स देश (ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका) इस संगठन में शामिल हैं. इस संघठन द्वारा गठित नव विकास बैंक (एनडीबी) इस देशों में आर्थिक गठजोड़ की महत्वपूर्ण कवायद के चलते स्थानीय मुद्रा में सदस्य देशों को कर्ज देता है. खराब भारत-चीन रिश्तों की स्थिति में इस गठजोड़ में चीन की स्थिति कमजोर पड़ने और ब्रिक्स समूह से बाहर निकलने की भी हो सकती है. ऐसी स्थिति में ब्रेटन वुड्स संस्थाओं के जवाब में एक ग्लोबल संस्था का विकल्प खड़ा करने में चीन की सहभागिता खत्म भी हो सकती है.