
विधानसभा चुनावों में बमुश्किल पांच सप्ताह बचे हैं कांग्रेस के नेतृत्व तले प्रजा कुटमी (पीपल्स एलायंस) ने अपनी स्थिति मजबूत कर ली है. हालांकि मुक्चयमंत्री के.सी. चंद्रशेखर राव ने 6 सितंबर को ही विधानसभा भंग कर दी थी, लेकिन तेलुगू देशम पार्टी (तेदेपा), तेलंगाना जन समिति (टीजेएस), भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) और कांग्रेस के गठबंधन ने 1 नवंबर तक अपनी योजनाओं को गोपनीय ही रखा था.
प्रजा कुटमी एक योजना के तहत उम्मीदवारों की घोषणा में देर कर रहा है जिससे सत्तारूढ़ टीआरएस की क्षेत्रवार रणनीति गड़बड़ हो जाए. तेलंगाना प्रदेश कांग्रेस समिति (टीपीसीसी) के अध्यक्ष एन. उत्तम कुमार रेड्डी कहते हैं, 'चंद्रशेखर राव जल्दी चुनाव कराने की घोषणा से लोगों को हड़बड़ी और मुश्किल में डालना चाहते थे, वैसा तो नहीं हो सका, अब उनका मानना है कि चुनिंदा निर्वाचन क्षेत्रों में प्रतिद्वंद्वियों के पैर उखाड़कर वे अपनी स्थिति बेहतर कर सकते हैं.’’ हालांकि टीआरएस के युवा नेता और नगरपालिका प्रशासन और उद्योग मंत्री के.टी. रमा राव इस तरह की बातों का मजाक उड़ाते हुए कहते हैं, 'जब वे सीटों की साझीदारी कर रहे होंगे, तब हम मिठाई बांट रहे होंगे.'
राज्य के 119 विधानसभा सीटों में से कांग्रेस 95 निर्वाचन क्षेत्रों से चुनाव लडऩे वाली है, वहीं तेदेपा 14 और बाकी पर टीजेएस और भाकपा चुनाव लड़ेंगे. अपने सहयोगियों की मुश्किलों को आसान करने के लिए बागियों को 'चुनाव के बाद गठबंधन की सरकार बनने पर ईनाम का आश्वासन दिया जा रहा है.' चंद्रशेखर राव की प्रबल प्रतिद्वंद्वी छवि को ध्यान में रखते हुए पार्टी ने फिलहाल मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के नाम के ऐलान से परहेज किया है, जिसे गठबंधन के लिए मुश्किलें बढ़ाने वाला माना जा रहा है.
जहां टीआरएस ने अपने खजाने का मुंह खोल दिया है, वहीं गठबंधन के लिए संसाधन की कमी बड़ी समस्या है. मुख्य चुनाव आयुक्त ओ.पी. रावत ने हैदराबाद की यात्रा के दौरान स्वीकार भी किया कि तेलंगाना में सबसे बड़ा चुनौतीपूर्ण मुद्दा है पैसा और मीडिया का दुरुपयोग. वहीं हैदराबाद विश्वविद्यालय के प्रोफेसर आइ. रामाब्रह्माम कहते हैं, 'गठबंधन की संभावनाओं का आकलन करना मुश्किल है क्योंकि घटक दलों में एक के वोट दूसरे को पड़ेंगे भी, यह अभी निश्चित नहीं.' लेकिन टीआरएस के लिए नया डर पार्टी के वे नेता हैं, जिन्हें टिकट नहीं मिल पाया है. दरअसल वे अन्य पार्टियों की ओर रुख करके टीआरएस के लिए मुश्किल खड़ी कर सकते हैं.
इस बीच, टीआरएस को भली-भांति एहसास हो चुका है कि लड़ाई अब कांटे की हो चुकी है, इसलिए उसने सबसे पहले अपने गढ़ों पर ध्यान देने का फैसला किया है.