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हमने देश में शिशु मृत्यु दर घटाने के लक्ष्य के साथ रोग प्रतिरोध क्षमता बढ़ाने में मील के पत्थर जैसी कामयाबी हासिल की है. केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री जगत प्रकाश नड्डा ने 26 मार्च को ओडिशा के भुवनेश्वर में रोटावायरस टीके रोटावैक को राष्ट्रीय टीकाकरण कार्यक्रम में शामिल करने की शुरुआत करते हुए ये बातें कहीं. उन्हें शायद ही अनुमान रहा होगा कि उनकी इस राह में अपने ही रोड़े अटकाएंगे.
आरएसएस से जुड़े संगठन स्वदेशी जागरण मंच ने भारत में निर्मित रोटावायरस के टीके को विकसित करने में बिल ऐंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन की मदद पर सवाल उठाकर सरकार को चेतावनी दी है कि फाउंडेशन की मदद उसके सुझाए गए कामों में नहीं, देश के लोगों की ओर से सुझाए गए कामों में ही लेनी चाहिए. मंच के राष्ट्रीय सह संयोजक अश्विनी महाजन कहते हैं, ''बिल ऐंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन की दानवीरता ठीक है, लेकिन यह भी तथ्य है कि उसके बोर्ड में स्वास्थ्य क्षेत्र की मल्टीनेशनल कंपनियां बैठी हैं जिनके अपने हित स्वाभाविक होंगे. ''
भारत में निर्मित रोटावैक को सरकार ने पहले चरण में ओडिशा, आंध्र प्रदेश, हरियाणा और हिमाचल प्रदेश में लागू किया है. यहां बच्चों को मुफ्त टीका उपलब्ध कराया जा रहा है. लेकिन अब स्वास्थ्य मंत्री नड्डा की मुश्किल यह है कि देश में निर्मित जिस टीके को वे युगांतरकारी मान रहे हैं, उस पर स्वदेशी की वकालत करने वाली संस्था ही गंभीर सवाल उठा रही है. मंच के इस तरह मुखर होने के बाद यह बहस छिड़ने लगी है कि भारत जैसे देश में इस रोटावायरस टीके की जरूरत है या नहीं? इसके अलावा टीके के ट्रायल और उसके असर को लेकर हुए अध्ययन पर भी सवाल उठने लगे हैं.
क्यों उठ रहे हैं सवाल?
रोटावायरस एक प्रकार का संक्रामक विषाणु है, जिससे खासकर पांच साल तक के बच्चों में आंत्रशोथ, उल्टी और दस्त होता है. स्वास्थ्य मंत्रालय में संयुक्त सचिव (अब भारतीय औषधि अनुसंधान परिषद आइसीएमआर में स्थानांतरित) डॉ. राकेश कुमार कहते हैं, ''रोटावायरस से दुनिया में जितने बच्चों की मृत्यु हो रही है उसमें हर पांचवां बच्चा भारतीय है. '' सरकार का कहना है कि इसी को ध्यान में रखकर राष्ट्रीय कार्यक्रम में रोटावायरस के टीके को शामिल किया गया है.
लेकिन भारत में रोटावैक टीके को विकसित करने की प्रक्रिया और उसका असर ही सवाल खड़े कर रहा है. इसे हैदराबाद की कंपनी भारत बायोटेक ने बनाया है, जिसे वर्ष 2000 में बिल ऐंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन ने चुना था जबकि उस वक्त इस कंपनी के पास अपना कोई लाइसेंसी उत्पाद नहीं था. भारत बायोटेक को भारत सरकार के बायोटेक्नोलॉजी विभाग (डीबीटी) ने भी वित्तीय सहायता दी. दिलचस्प यह है कि कंपनी को सहायता देते वक्त सरकार ने कोई एमओयू नहीं किया. इतना ही नहीं, फाउंडेशन जिसने भारतीय कंपनी को मदद दी, क्या वह एफसीआरए का उल्लंघन नहीं है? महाजन बताते हैं, ''फाउंडेशन फॉरेन कंट्रीब्यूशन रेगुलेशन ऐक्ट (एफसीआरए) के तहत पंजीकृत ही नहीं है.
मोदी सरकार ने एफसीआरए के तहत पंजीकृत विदेशी सहायता प्राप्त करने वाले 15,000 विदेशी संस्थाओं के लाइसेंस रद्द कर दिए थे, लेकिन गेट्स फाउंडेशन उससे अछूता रहा क्योंकि गेट्स फाउंडेशन फेरा नहीं, फेमा के तहत एक संपर्क ऑफिस के तौर पर काम करता है, इसलिए एफसीआरए से बचा रहा. '' वे यह भी जोड़ते हैं कि टीकाकरण करना सराहनीय है, लेकिन पहले हमें अपनी जरूरत को खुद तय करना होगा.
प्रभावित हो रही है नीतियां!
वैक्सीन के मामले में सरकार की नीतिगत प्रक्रिया भी सवालों के घेरे में है. किसी भी वैक्सीन को चुनने से पहले स्वास्थ्य मंत्रालय की संस्था नेशनल टेक्निकल एडवाइजरी ग्रुप ऑफ इक्वयुनाइजेशन (नटागी) की सिफारिश जरूरी है. लेकिन 2013 में नटागी को सहयोग देने के लिए इक्वयुनाइजेशन टेक्निकल सपोर्ट यूनिट (इटसू) का गठन किया गया, जिसका काम बैठक का ब्यौरा, एजेंडा, प्रजेंटेशन तय करने के अलावा समन्वय करना है. लेकिन मंत्रालय सूत्रों के मुताबिक, दिलचस्प पहलू है कि इटसू के सभी 32 सदस्य बिल ऐंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन की ओर से चुने जाते हैं और उन्हें वेतन भी फाउंडेशन से मिलता है. इस तथ्य की पुष्टि करते हुए मंत्रालय के अधिकारियों की दलील है कि काम का दायरा बढ़ चुका है ऐसे में नटागी को सचिवालय की सुविधा इटसू से मिलती है.
लेकिन इस बारे में इंडिया टुडे के साथ ई-मेल से हुई बातचीत में बिल ऐंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन का कहना है, ''इटसू में फाउंडेशन का कोई कर्मचारी कार्यरत नहीं है और टीकाकरण से जुड़ा हर नीतिगत फैसला भारत सरकार के दायरे में आता है. हम यह भी कहना चाहेंगे कि अगस्त 2013 में हमने पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया (पीएचएफआइ) को इटसू स्थापित करने के लिए अनुदान दिया था. यह यूनिट स्वास्थ्य मंत्रालय को प्रबंधकीय और तकनीकी मदद मुहैया कराने के लिए सरकार के साथ एक एमओयू के तहत लगाई गई थी. ''
सवाल उठ रहा है कि विदेशी संस्था के लिए काम करने वाले भले मंत्रालय की अंदरूनी चर्चा को प्रभावित नहीं कर पाएंगे लेकिन इससे शायद ही इनकार किया जा सकता है कि बैठक की खबरें और रुख उस संस्था तक नहीं पहुंचती होंगी. नटागी के एक सदस्य कहते हैं, ''इटसू न सिर्फ एजेंडा बनाता है बल्कि बैठक के किस बिंदू को कैसे नोट करना है, वह उसी पर निर्भर करता है. बैठक में कौन-सा प्रजेंटेशन या पेपर रखा जाएगा यह भी इटसू तय करता है. '' महाजन भी ब्रिटेन की ग्लोबल जस्टिस नाउ संस्था की रिपोर्ट के हवाले से कहते हैं कि 'गेट्स फाउंडेशन अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर कृषि और दवा क्षेत्र में लगी बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हितों में नीतियां बनवाने में लिप्त है. ' उनके मुताबिक, इस रिपोर्ट के बाद ही भारत सरकार ने फाउंडेशन को निगरानी सूची में डाल दिया है. उनका कहना है कि स्वास्थ्य मंत्रालय में 365 विशेषज्ञ सलाहकार सलाह देते थे जिन्हें मंत्रालय ने नहीं, बल्कि विदेशी कंपनियों ने नियुक्त किया था. हालांकि मंत्रालय के अधिकारी 365 की बात खारिज करते हैं लेकिन मानते हैं कि बढ़ते काम और फौरन नतीजे देने के दबाव से विशेषज्ञ रखने ही होंगे.
सरकार विदेशी संस्था के प्रभाव में नीतिगत फैसले के आरोप को सिरे से खारिज कर रही है. स्वास्थ्य मंत्रालय का कहना है कि किसी भी वैक्सीन को लागू करने में चार-पांच साल का वक्त लग जाता है. रोटावैक को लेकर टेक्निकल सब कमेटी की दो बैठकें दिसंबर 2013 और अप्रैल 2014 में हुईं, जब केंद्र में यूपीए सरकार थी. लेकिन इस बारे में सिफारिश करने वाली बड़ी संस्था नटागी की बैठक केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार बनने के बाद जून 2014 में हुई जिसमें रोटावायरस वैक्सीन को सार्वभौमिक टीकाकरण कार्यक्रम में शामिल करने का फैसला सर्वसम्मति की बजाए बहुमत से लिया गया. इसके बाद 9 मार्च 2015 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रोटावैक वैक्सीन को लॉन्च किया. एक अधिकारी कहते हैं, ''हम टेक्निकल सब कमेटी और नटागी की सिफारिशों पर काम करते हैं, गेट्स फाउंडेशन की सलाह पर नहीं. इस बारे में दो बार सब कमेटी, नटागी के बाद ईपीसी (एंपावर्ड प्रोग्राम कमेटी जिसमें स्वास्थ्य सचिव होते हैं) और फिर एमएसजी (मिशन स्टडी ग्रुप जिसमें मंत्री स्तर की चर्चा होती है) की बैठक के बाद वैक्सीन को प्रोग्राम में शामिल किया गया. '' गेट्स फाउंडेशन का भी कहना है कि वह 2000 (तब केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार थी) से भारत में केंद्र और राज्य सरकारों के साथ साझेदारी कर लोगों को बेहतर और स्वस्थ जीवन देने की दिशा में काम कर रहा है.
वैक्सीन और ट्रायल पर संदेह क्यों?
स्वास्थ्य मंत्रालय के सूत्र बताते हैं कि एक तरफ फाउंडेशन ने भारत की ऐसी कंपनी को चुना जिसके पास वैक्सीन के क्षेत्र में कोई अनुभव नहीं था, लेकिन उसे वैक्सीन विकसित करने के लिए मदद दी. दूसरी तरफ आंकड़ों को ढाल बनाते हुए वैक्सीन को सरकारी प्रोग्राम में शामिल करने की पैरवी की जो निजी हित को दर्शाता है. लेकिन गेट्स फाउंडेशन इस तरह के आरोपों को खारिज करता है. अपने जवाब में फाउंडेशन कहता है, ''भारत में रोटावायरस टीके के उत्पादन और वितरण में उसका कोई व्यावसायिक हित नहीं है. भारत सरकार ही अपने कार्यक्रम के लिए इस वैक्सीन के चयन, खरीद और वितरण के लिए पूरी तरह जिम्मेदार है. ''
हालांकि भारत और अमेरिका में वैक्सीन के ट्रायल में अंतर हितों के टकराव की ओर ही इशारा कर रहा है. अमेरिका में 1998 में जब रोटाशील्ड वैक्सीन का ट्रायल 10,000 बच्चों पर हुआ तो उससे 3 बच्चों में इंटससेप्शन (आंत के एक हिस्सा दूसरे हिस्से के अंदर जाना) पाया गया, जिसके बाद उसे प्रतिबंधित कर दिया गया. इसके बाद रोटाटेक वैक्सीन का ट्रायल 60,000 पर कराया गया. लेकिन भारत में बने रोटावैक का ट्रायल बेहद छोटे स्तर पर देश के तीन केंद्रों—वेल्लूर, पुणे, दिल्ली में महज 6,799 बच्चों पर किया गया जिसमें 4,532 को वैक्सीन दिया गया. सरकार के मुताबिक, इस अध्ययन में 23 इंटससेप्शन के केस पाए गए.
अगर इस आंकड़े का बड़े स्तर पर अध्ययन किया जाए तो भी रोटावैक की वजह से 10,000 में 37.5 बच्चे इंटससेप्शन का शिकार हुए तो बिना टीके के 26.36 बच्चे. यानी 11 केस ज्यादा पाए गए. लेकिन मंत्रालय के डिप्टी कमिश्नर डॉ. प्रदीप हालदार का कहना है कि वैक्सीन के बिना भी हर साल 1 लाख बच्चों में से 48-50 इंटससेप्शन के केस मिलते हैं. लेकिन इस आंकड़े के लिहाज से भी रोटावैक के ट्रायल से निकले अध्ययन को देखें तो टीके की वजह से इसमें प्रति एक लाख बच्चों में 110 केस और जुड़ जाते हैं.
नटागी के सदस्य और बैठक में रोटावायरस वैक्सीन को लागू करने के फैसले पर असहमति नोट देने वाले बाल रोग विशेषज्ञ और सेंट स्टीफंस अस्पताल दिल्ली में विभागाध्यक्ष डॉ. जैकब पुलियल इंडिया टुडे से कहते हैं, ''सरकार के आंकड़ों को ही देखें तो रोटावैक वैक्सीन में अमेरिका में एफडीए से प्रतिबंधित रोटाशील्ड वैक्सीन से पांच से दस गुना तो अंतरराष्ट्रीय लाइसेंस प्राप्त वैक्सीन रोटाटेक से 70 गुना ज्यादा इंटससेप्शन का जोखिम है. ''
उनका यह भी आरोप है कि जानबूझकर सैंपल साइज कम रखा गया ताकि इंटससेप्शन का नतीजा स्पष्ट न दिखे इसलिए वेल्लूर में हुए ट्रायल का आंकड़ा सार्वजनिक नहीं किया जा रहा, जहां सबसे ज्यादा इंटससेप्शन हुए और तीनों केंद्रों का आंकड़ा मिलाकर नतीजा निकाल लिया गया. यूनिसेफ के हेल्थ स्पेशलिस्ट डॉ. सतीश गुप्ता भी मानते हैं कि भारत में हुए ट्रायल का सैंपल साइज छोटा था. उनका कहना है कि अभी चार राज्यों में इसे शुरू किया गया है और निगरानी रखी जा रही है. अगर इन राज्यों में इंटससेप्शन के मामले बढ़ते हैं तो इसे रोका भी जा सकता है. मंत्रालय के मुताबिक, चरणवार लागू करने की वजह रोटावैक वैक्सीन के महज एक करोड़ डोज ही उपलब्ध थे. बाल रोग विशेषज्ञ और दिल्ली में होली फैमिली अस्पताल की मेडिकल सुपरिंटेंडेंट डॉ. सुक्वबुल वारसी भी मानती हैं कि भारत में बड़े पैमाने पर ट्रायल नहीं हुआ है ऐसे में उसका डाटा सही नहीं हो पाएगा.
वैक्सीन: समस्या या समाधान
भारत जैसे देश में जहां कुपोषण, स्वच्छ पेयजल की अनुपब्धता, साफ-सफाई और जीवन यापन का स्तर पश्चिमी देशों के मुकाबले कमतर है वहां समस्या को दूर करने के लिए बेहतर इन्फ्रास्ट्रक्चर तैयार किए बिना इस तरह का टीका दिया जाना चाहिए या नहीं, इसको लेकर बहस लाजिमी है. स्वदेशी जागरण मंच का कहना है कि इसलिए टीकाकरण विदेशी कंपनियों के मुताबिक नहीं होना चाहिए. लेकिन स्वास्थ्य मंत्रालय की दलील है कि रोटावायरस का स्वच्छता जैसी देसी परिस्थितियों से कोई लेनादेना नहीं है और इससे निपटने के लिए टीका ही एकमात्र विकल्प है.
यूनिसेफ के डॉ. गुप्ता कहते हैं, ''रोटा का सैनिटेशन से कोई मतलब नहीं है. हालांकि टीके से डायरिया को पूरी तरह नहीं रोका जा सकता. इससे सिर्फ एक-तिहाई ही कवर होगा, बाकी के लिए सैनिटेशन और ओआरएस चाहिए होगा. '' लेकिन डॉ. वारसी का मानना है कि वैक्सीन को अंतिम विकल्प के तौर पर ही अपनाया जाना चाहिए. वे कहती हैं, ''यह सही है कि डायरिया से होने वाली मौतों की संख्या ज्यादा है लेकिन इससे निपटने के लिए पहले हमें स्वच्छता के सभी उपायों पर जोर देना चाहिए. अगर स्वच्छता पर जोर नहीं देंगे तो वैक्सीन भी कोई असर नहीं करेगी. '' वे यह भी कहती हैं कि पश्चिमी देशों में वैक्सीन का असर 90 फीसदी के करीब इसलिए है क्योंकि वहां स्वच्छता पर ध्यान रहता है, जबकि भारत में यह 50 फीसदी के करीब ही है. हालांकि यूनीसेफ के विशेषज्ञ की दलील है कि विदेशी और भारतीय दोनों वैक्सीन का असर 60-62 फीसदी है.
लेकिन रोटावायरस वैक्सीन को लेकर उठ रहे सवालों पर मंत्रालय के अतिरिक्त सचिव डॉ. सी.के. मिश्रा और तत्कालीन संयुक्त सचिव डॉ. राकेश कुमार कहते हैं, ''रोटावायरस की वैक्सीन प्राइवेट स्तर पर 2009 से चल रहा है. तब किसी ने सवाल नहीं उठाया. अब जब 4-5 हजार में मिलने वाली वैक्सीन गरीबों को मुफ्त मुहैया कराई जा रही है तो हायतौबा क्यों मचाई जा रही है? '' लेकिन सरकारी टीकाकरण के फैसले से जुड़ी बड़ी संस्था नटागी के सदस्य डॉ. पुलियल का कहना है कि डायरिया का सबसे बेहतरीन इलाज पानी में नमक-चीनी का घोल ही है और इसके साथ स्वच्छता का खास ध्यान रखना चाहिए. उनका मानना है कि रोटावैक टीके का सबसे ज्यादा दुष्प्रभाव गांवों में हो सकता है. वहां विशेषज्ञ नहीं होते. इंटससेप्शन की स्थिति में गरीब उसके इलाज का खर्च नहीं उठा सकता.
लेकिन गेट्स फाउंडेशन की राय इन डॉक्टरों की राय से बिल्कुल अलग है. उसकी दलील है, ''रोग की व्यापक रोकथाम-नियंत्रण के लिए टीके अहम होते हैं और शिशु मृत्यु दर में कमी लाने के व्यापक समाधान का हिस्सा होते हैं. ये रोग की रोकथाम और करोड़ों जिंदगियों को बचाने का सबसे सुरक्षित और किफायती उपाय है. '' मंत्रालय भी यह मानता है कि इंटससेप्शन को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता, इसलिए पूरी निगरानी रखी जा रही है.
रोटावायरस वैक्सीन के ट्रायल के वेल्लूर के आंकड़े को सार्वजनिक करने की मांग को लेकर डॉ. पुलियल ने दिल्ली हाइकोर्ट में पीआइएल दाखिल की थी लेकिन पुलियल खुद नटागी के सदस्य हैं इसलिए कोर्ट ने गोपनीय डाटा देने की मांग को जनहित याचिका के लिए उपयुक्त नहीं माना. इस मामले में उन्होंने प्रधानमंत्री मोदी को भी चिट्ठी लिखी, लेकिन वहां भी उनकी चिंता को जायज नहीं ठहराया गया. लेकिन अब इस मामले पर सीधे संघ से जुड़ी संस्था सामने आ गई है. ऐसे में देखना है कि सरकार इन आशंकाओं को दूर करने को ईमानदार कदम उठाती है या फिर वैसे ही आगे बढ़ती है.