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कथा महाभारत की है. कुरुक्षेत्र की लड़ाई शुरू होने से पहले वाली रात कौरवों के सेनापति भीष्म ने अपने तंबू में मंत्रणा आयोजित की. उन्होंने धर्म युद्ध में दोनों पक्षों के लिए नियम तय किए. उनमें एक नियम था&“रात में कोई एक-दूसरे पर वार नहीं करेगा.”
भीष्म ने यकीनन इस साल 2 जनवरी को पठानकोट वायु सेना के ठिकाने पर चार आतंकवादियों के खिलाफ जवाबी सैन्य कार्रवाई को धर्म युद्ध करार दिया होता. यह कार्रवाई तीन दिनों के दौरान हर रात रोक दी जाती थी.
अपनी आस्तीनों पर सजे भगवान कृष्ण के चक्र की मार्फत वेदव्यास के महाकाव्य के साथ जुड़े, राष्ट्रीय सुरक्षा गार्ड (एनएसजी) के काली सूती वर्दीधारी कमांडो के पास भीष्म के धर्म युद्ध के नियम का पालन करने के अलावा कोई चारा भी नहीं था. उनके पास रात में लंबी दूरी तक देखने वाले उपकरण नहीं थे और न ही हाथों में पकडऩे वाले थर्मल इमेजर थे, जिनसे वे रात में दहशतगर्दों की तलाश और पीछा कर पाते. उनके पास ड्रोन भी नहीं थे, जो संदिग्धों के निशानदेही वाले इलाकों के ऊपर चौतरफा निगाह रखते हुए लगातार उड़ सकते थे. वहां कोई कमांड सेंटर भी नहीं था, जहां से वे कार्रवाई की प्रगति की निगरानी कर पाते.
तिस पर किसी मित्र सिपाही की गोली से मारे जाने (ब्लू-ऑन-ब्लू घटना) का डर उनके सिर पर सवार था, क्योंकि वह 2,200 एकड़ में फैला एयरबेस वायु सेना के गरुड़ कमांडो और भारतीय सेना के जवानों यानी ऐसे सुरक्षा बलों से भरा हुआ था, जिन्होंने कभी साथ मिलकर कोई ऑपरेशन नहीं चलाया था. ऑपरेशन दिन निकलने पर ही पूरे जोश से दोबारा शुरू होता था.
वायु सेना के उस ठिकाने को खतरे से पूरी तरह मुक्त करने में एनएसजी के 200 कमांडो को 70 घंटे से ज्यादा वक्त लगा. यह ऐसी देरी थी जिसके सियासी और कूटनीतिक दुष्परिणाम होने ही थे. ऑपरेशन जिस तरह से चलाया गया, उससे एयरबेस में एनएसजी को भेजने के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल के 1 जनवरी के फैसले पर सवालिया निशान खड़े हो गए.
वरिष्ठ सैन्य अधिकारियों ने संदेह जताया कि जो चुनौती आन पड़ी थी, उसके लिए एनएसजी को भेजना कितना माकूल था. उनकी राय में स्थानीय सेना की टुकडिय़ां ऑपरेशन को ज्यादा तेजी से और ज्यादा काबिलियत से खत्म कर सकती थीं. तालमेल में नाकामी के संदेहों को दूर करने और ऑपरेशन की कामयाबी का ऐलान करने के लिए प्रधानमंत्री को 9 जनवरी को एयरबेस का दौरा करना पड़ा, जो पहले नहीं हुआ. भारी गहमागहमी से भरे इस ऑपरेशन में इस ज्यादा बड़े सवाल का जवाब नहीं ही मिला कि इस मकसद के लिए एनएसजी फिट था या नहीं.
कुल 1,400 करोड़ रुपए की आधुनिकीकरण की एक योजना ने 2017 तक एनएसजी को आधुनिक लड़ाका बल में बदल दिया होता, मगर यह योजना महज एक कपोलकल्पना बनकर रह गई है. एनएसजी ऐसा बल है, जो बरसों की अनदेखी के चलते भीतर से खोखला हो चुका है और एक संकट से दूसरे संकट के बीच लगातार झूलता रहता है. पठानकोट का रास्ता 26 नवंबर, 2008 को मुंबई से शुरू हुआ था, और जिसने प्रमुख आतंक निरोधी बल की कमजोरियों को उजागर कर दिया था.
उसके बाद से एनएसजी अपने कमांडो के लिए महज स्नाइपर राइफलें, सबमशीन गन और पिस्तौलें ही हासिल कर सका है. फोर्स मल्टीप्लायर या क्षमता में कई गुना इजाफा करने वाले उच्च तकनीक साजोसामान अब भी कागजी प्रस्तावों में अटके हुए हैं. मिसाल के लिए, पठानकोट में बल को चक्कर काटते वायु सेना के एमआइ-35 जंगी विमानों पर निर्भर रहना पड़ा, जिन्होंने 2,200 एकड़ के वायु सेना ठिकाने में आतंकवादियों को खोजने के लिए अपने थर्मल इमेजरों का इस्तेमाल किया.
एयरबेस में चारों तरफ हाथियों जितनी ऊंची घास में हेलिकॉप्टरों ने जिन तेजी से चलते निशानों का पता लगाया, वे अक्सर जंगली सूअर निकले. एनएसजी ने गहन छानबीन के मकसद से ऑपरेशन चलाने के लिए बख्तरबंद गाडिय़ां स्थानीय सैन्य इकाइयों से उधार लीं. उनके पास कोई कमान चैकी नहीं थी, जहां से अधिकारी ऑपरेशन का निर्देशन और संचालन कर पाते. यह जंगल युद्ध ऑपरेशन और सेना जिसे इमारती इलाकों में लड़ाई कहती है, दोनों का अजीबोगरीब मिश्रण था.
ऑपरेशन में शिरकत करने वाले एक अधिकारी कहते हैं, “हम खुशकिस्मत थे कि आतंकवादियों को तकनीकी इलाके तक पहुंचने से रोक सके.” सुरक्षा बलों की खुशकिस्मती में जिन बातों ने इजाफा किया, वे थीं-डिफेंस सर्विस कोर के संतरी मानद कैप्टन फतेह सिंह की बेमिसाल और अविश्वसनीय जवाबी लड़ाई, जो आतंकवादियों से भिड़ गए और उनमें से एक को मार डाला; आतंकवादियों का नाकारापन, जो वायु सेना के मोटर ट्रांसपोर्ट पूल में तेजी से घुसते-घुसते रुक गए, इस तरह उनके सबसे अहम निशाने-तकनीकी इलाके में खड़े लड़ाकू विमान और जंगी जहाज-उनकी नजर से चूक गए. ये अधिकारी कहते हैं, “अगले हमले में हम इतने खुशकिस्मत नहीं भी हो सकते हैं.” गृह मंत्रालय के प्रवक्ता ने इंडिया टुडे की प्रश्नावली का जवाब नहीं दिया.
अंधे जांबाज
एनएसजी गृह मंत्रालय का एक विशिष्ट हमलावर बल है, जिसे आतंक या अपहरण की स्थितियों से निबटने के लिए विशेष रूप से बनाया गया है. फिर भी इस आखिरी अस्त्र की वर्षों से उपेक्षा को वायु सेना के अपने अग्रिम मोर्चे के ठिकाने को आतंकवादियों से बचाने में निकम्मेपन ने खुलकर उजागर कर दिया. पठानकोट में आतंकवादी बड़ी आसानी से 10 फुट ऊंची दीवार फांद कर मुख्य निशाने पर हमला बोलने से पहले पूरा दिन ऊंची घास में छिपे रहे. उनका मुख्य निशाना सेना के जवान और तकनीकी इलाके में खड़े विमान थे. उन्हें वायु सेना के कमांडो, सेना और एनएसजी के जवान ही रोक पाए.
एनएसजी के जवान शारीरिक मानदंडों, वेतन और भत्तों-कमांडो पीठ पर 20 किलो के सामान के साथ 24 किमी की दौड़ लगाते हैं और दिन में औसतन 60 चक्र गोलियां चलाते हैं-के मामले में पीछे नहीं हैं. यह कमाई के मामले में भी एक आकर्षक करियर है. उन्हें मूल वेतन का 25 प्रतिशत “कमांडो भत्ते” के रूप में मिलता है.
फिर भी इस बल में अत्याधुनिक उपकरणों और चुस्त प्रशिक्षण का अभाव है. 1984 में सेना की कार्रवाई में स्वर्ण मंदिर की तबाही के बाद एनएसजी का गठन किया गया था जिसने गठन के सिर्फ चार साल बाद ही सफल ऑपरेशन करके दुनिया को अपनी क्षमता का परिचय दे दिया था. मई 1988 में ऑपरेशन ब्लैक थंडर में स्वर्ण मंदिर के भीतर बैठे 41 आतंकवादियों को एनएसजी के निशानेबाजों ने गोलियों से उड़ा दिया था और इस मुठभेड़ में उसका एक भी कमांडो नहीं मारा गया था.
लेकिन कई वर्षों में धीरे-धीरे उसकी तकनीकी क्षमता कमजोर होती गई. 2002 में अक्षरधाम से लेकर आखिरकार 2008 में मुंबई में आतंकवादी हमलों के समय एनएसजी की यह कमजोरी तब साफ दिखाई दी, जब वे मुंबई में दो पांच सितारा होटलों और एक यहूदी सेंटर में लश्कर-ए-तैयबा के आठ आतंकवादियों से लोहा ले रहे थे. कमांडो जवानों के आम मोटोरोला हैंडसेटों की बैटरी ही खत्म हो गई थी, उनके पास अपने बचाव के लिए हेलमेट और बैलिस्टिक कवच जैसे जरूरी सामान तक नहीं थे. उनके पास रात में देखने के लिए जो यंत्र थे, वे भी असरदार नहीं थे. बदतर तो यह कि कमांडरों का अपने जवानों से संपर्क तक टूट गया था.
मुंबई में 48 घंटे तक चले एनएसजी के जटिल ऑपरेशन से कई खामियां उजागर हुईं और उसे अपने भीतर झांकने को मजबूर होना पड़ा. 26/11 हमलों में आतंकवादियों का मुकाबला करने वाले एक अनुभवी जवान ने गृह मंत्री को दिए गए अपने प्रजेंटेशन में कहा, “यह फोर्स कतई विशिष्ट नहीं है. यह बस एक फोर्स है.”
मुंबई हमलों के बाद के कुछ महीनों में एनएसजी ने अपनी क्षमता बढ़ाने के लिए जरूरतों की सूची तैयार की थी. इंडिया टुडे ने उस सूची की एक प्रति हासिल कर ली, जो कि गृह मंत्रालय का अगस्त 2012 का दस्तावेज है, जिसमें एनएसजी के लिए एक व्यापक रूपरेखा तैयार की गई है. इसमें 240 बड़े और छोटे उपकरणों की सूची दी गई है, जिन्हें 1,400 करोड़ रु. की लागत से पांच वर्षों में हासिल करना है.
गृह मंत्रालय के दस्तावेज में लिखा है, “एनएसजी कमांडो के सभी ऑपरेशनों में समय का खास महत्व होता है, इसलिए हर मौसम में काम करने की क्षमता और तकनीकी विशेषता अपरिहार्य है.” इसमें “वास्तविक समय में सेंसर शूट ग्रिड, डेटा अनुकूलता व विश्लेषण, ऐक्शन का निर्णय लेने वाले सेंटर के साथ ही फोर्स को अत्याधुनिक उपकरणों, हथियारों और संचार की अनिवार्य क्षमताओं से लैस करने” की वकालत की गई थी.
किसी सामान्य पर्यवेक्षक के लिए यह सिर्फ खिलौनों की सूची भर लगती, लेकिन एनएसजी के अफसर इसे उन क्षमताओं को हासिल करना बताते हैं जिससे वे आतंकवादियों पर भारी पड़ सकते हैं. सभी कमांडो जीपीएस से युक्त पहने जा सकने वाले कंप्यूटरों और शरीर पर लगे कैमरों तथा सैटेलाइट फोनों के साथ आवाज और वीडियो लिंक के जरिए अच्छी तरह जुड़े होंगे.
एक विशेष गतिशील कमान पोस्ट में बैठे हुए कमांडर को अपने सभी कमांडो जवानों की सही स्थिति और ठिकाने की जानकारी होगी. उसके कंसोल के पर्दों पर वह सब दिखाई देगा जो उसके जवान उस समय देख रहे होंगे. एक स्नाइपर कोऑर्डिनेशन सिस्टम उसे उसके सभी शूटरों के लोकेशन के बारे में बताएगा. ड्रोन और पोर्टेबल एयरोस्टेट उसे लड़ाई के स्थल की लगातार जानकारी देगा. विजन और थर्मल इमेज फ्युजन कैमरे उन्हें आदमी और जानवर के बीच फर्क बता सकेंगे. मंगाया जाने वाला उपकरण फोर्स की तीन कमजोर पड़ चुकी भुजाओं-इलेक्ट्रॉनिक सपोर्ट ग्रुप, टेक्निकल सपोर्ट ग्रुप और स्पेशल वीपंस स्क्वैड को पुनर्जीवित करेगा.
करीब दो साल के विचार-विमर्श के बाद यूपीए सरकार ने 1,400 करोड़ रु. की लागत से एनएसजी के आधुनिकीकरण की योजना में 200 आइटम की सूची को मंजूरी दी थी. पांच वर्षीय योजना में इस फोर्स को उन्नत रेडियो, लंबी दूरी वाले सेंसरों, थर्मल इमेज देने वाले उपकरणों और पोर्टेबल राडारों से लैस किया जाएगा. आठ साल बाद सूची में दिए गए सिर्फ मुट्ठी भर आइटम-स्नाइपर राइफल और सबमशीनगन और एक बख्तरबंद ट्रक-ही खरीदे गए हैं.
एनएसजी की वेबसाइट के मुताबिक, कम से कम 27 आइटम-शॉट मशीनगन, दरवाजा भेदने वाले ग्रेनेड, सेमी-ऑटोमेटिक स्नाइपर राइफल, बंधक से बातचीत के सेट, वाल कॉन्टैक्ट माइक्रोफोन, जिनका इस्तेमाल कमरों में जासूसी या झांकने के लिए किया जाता है-अभी शुरुआती रिक्वेस्ट फॉर इन्फार्मेशन (आरएफआइ) चरण में हैं. जरूरी आइटमों को हासिल करने की मौजूदा दर से एनएसजी को सारे उपकरण प्राप्त करने में कम से कम पांच साल लग जाएंगे.
एनएसजी की सबसे बड़ी चिंता यह है कि यह एक प्रतिनियुक्ति पर आधारित फोर्स है. इसका मतलब है कि इसके पास अपना स्थायी काडर नहीं है. सेना के कर्मी दो साल की प्रतिनियुक्ति पर एनएसजी में आते हैं और अर्द्धसैनिक बल के कर्मी पांच साल की प्रतिनियुक्ति पर इसमें काम करते हैं. फोर्स के इस अस्थायी चरित्र ने इसकी संस्थागत स्मृति को खत्म कर दिया है.
एनएसजी की उपेक्षा के बीज शायद गृह मंत्रालय की आधुनिकीकरण की अपनी योजना में ही निहित है. दस्तावेज में इसे “केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बल” नाम दिया गया है, एक ऐसी पारिभाषिक शब्दावली जो एक प्रकार से विशेष बल की मौत को सूचित करती है. एनएसजी का उन्नतीकरण आम तौर पर कागजों तक ही सीमित रहा है, क्योंकि ऊपरी स्तर पर लगातार बदलाव होते रहे हैं. दिल्ली एयरपोर्ट के नजदीक एनएसजी मुख्यालय में स्थित महानिदेशक प्रावधान और आपूर्ति इकाई का प्रमुख होता है. 26/11 के बाद से एनएसजी में छह महानिदेशक बदले जा चुके हैं, प्रत्येक औसतन 14 महीने सेवा में रहा है. एनएसजी के एक अधिकारी कहते हैं, “किसी को यहां की प्रक्रिया समझने में ही छह महीने लग जाते हैं. और जब तक वह कोई फैसला करता है, उसके जाने का समय आ जाता है.”
मेजर जनरल वी.के. दत्ता (रिटायर्ड), जिन्होंने 1988 में ऑपरेशन ब्लैक थंडर में हिस्सा लिया था, कहते हैं, “ब्रिटेन की एसएएस भी प्रतिनियुक्ति पर आधारित फोर्स है, लेकिन उसमें 25 प्रतिशत लोग स्थायी होते हैं. भारतीय सेना के कमांडो अपने विशेष बटालियनों में 10 साल से ज्यादा समय बिताते हैं.”
एनएसजी को स्पेशल रेंजर्स ग्रुप (एसआरजी) के साथ तालमेल बनाकर काम करना था. प्रत्येक में अर्द्धसैनिक बलों से लिए गए करीब 1,000 कमांडो वाले तीन बटालियन होने थे. एसआरजी को घेराबंदी के इर्दगिर्द घेरा बनाने का काम करना था, लेकिन इस काम के लिए वह कभी उपलब्ध नहीं रही, क्योंकि एसआरजी की करीब दो-तिहाई बटालियनों को वीवीआइपी सुरक्षा के लिए तैनात कर दिया गया है. पठानकोट में एनएसजी ने हाल के वर्षों में पहली बार एसआरजी की एक बटालियन को सक्रिय ऑपरेशन में तैनात किया.
आलोचकों का कहना है कि 26/11 के बाद इस फोर्स को चार महानगरों-मुंबई, कोलकाता, हैदराबाद और चेन्नै-में फैलाने के गृह मंत्रालय के फैसले ने इसकी मौत की घंटी बजा दी. 10,000 से ज्यादा कर्मियों वाला एनएसजी भारतीय सेना के पैराशूट कमांडो फोर्स से भी बड़ा है. इन नए केंद्रों में विमान में प्रवेश के लिए सीढ़ी के सिस्टम जैसे उपकरणों का अभाव है, जबकि उनका इस्तेमाल किसी अपहृत विमान में धावा बोलने के लिए किया जा सकता है.
सेना के विशेष बलों के अफसर लेप्टिनेंट जनरल प्रकाश चंद कटोच (रिटायर्ड) कहते हैं, “जिस तरह एनएसजी का कुछ वर्षों में विस्तार किया गया है, उसी तर्ज पर जब आप किसी बल का विस्तार करते हैं तो आप मानवशक्ति की ट्रेनिंग और उपकरण को हल्का कर देते हैं. वे विशेष बलों के बारे में चार वैश्विक सचाइयां बताते हैः इंसान हार्डवेयर से ज्यादा महत्वपूर्ण हैं. गुणवत्ता मात्रा से बेहतर होती है. विशेष बलों को बड़ी मात्रा में नहीं तैयार किया जा सकता और आपातकालीन मौकों के बाद उन्हें नहीं बनाया जा सकता है.
आतंकवादियों से मुकाबले के लिए फ्रांस की विशेष फोर्स जीआइजीएन में सिर्फ 650 जवान हैं. जर्मनी के जीएसजी-9, जिसके मॉडल पर एनएसजी का गठन किया गया है, में महज 200 कमांडो हैं. एक ऐसे दौर में जब आतंकवादियों से निपटने में पुलिस बलों के पास पर्याप्त क्षमता नहीं है, संघीय आपातकालीन फोर्स के तौर पर गठित एनएसजी को लगातार अभावों का सामना करना पड़ रहा है. यहां तक कि इसने हेलिकॉप्टर हासिल करने की प्रक्रिया भी नहीं शुरू की है. वह अपने जवानों के प्रशिक्षण के लिए भारतीय वायु सेना और रॉ के एविएशन रिसर्च सेंटर से इन्हें उधार लेता है.
एनएसजी के पूर्व डीजी अरविंद रंजन कहते हैं कि उपकरणों की कमी तो सिर्फ एक पर्दा है, जो इससे कहीं बड़े मुद्दों को छुपा देता है. वे कहते हैं, “इस फोर्स में सबसे बड़ी खामी यह है कि इसके पास अधिकारियों की तरफ से कोई दृष्टि, जवाबदेही और जिम्मेदारी नहीं है.” अंदरूनी लोगों का कहना है कि अपनी सूची में ज्यादातर उपकरणों को हासिल करने में यह फोर्स सुस्ती बरतता रहा है. टोटल कॉन्टेनमेंट वेसेल (टीसीवी), पोर्टेबल रोबोट, हेलमेट में लगे नाइट विजन यंत्र जैसे महत्वपूर्ण उपकरण अभी नहीं मिल पाए हैं, क्योंकि उनके वार्षिक रखरखाव के ठेके अभी नहीं हो पाए हैं. मानेसर में एनएसजी के अड्डे में अब भी आधुनिक फायरिंग रेंज का अभाव है. 26/11 हमले के बाद 6 करोड़ रु. की लागत वाला उपकरण कभी नहीं लगाया गया.
एनएसजी का आधुनिकीकरण एक व्यापक फेरबदल का हिस्सा था, जिसे यूपीए सरकार ने शुरू किया था. करगिल समीक्षा समिति के बाद 2001 में एनडीए-1 के मंत्रियों के समूह (जीओएम) की रिपोर्ट में इसका खाका खींचा गया था. जीओएम ने आंतरिक सुरक्षा की व्यवस्था में व्यापक फेरबदल की सिफारिश की थी. लेकिन ये सुधार 26/11 हमले के बाद ही शुरू किए गए. यूपीए सरकार अपने कार्यकाल के अंतिम दिनों में गृह मंत्रालय के सुधारों की दिशा से भटक गई और यह भटकाव एनडीए के शासन में भी बना हुआ है.
पठानकोट और गुरदासपुर की तरह के और भी हमले होने की आशंका ने अब ऐसे मौके बढ़ा दिए हैं जब इस फोर्स को जल्दी ही कार्रवाई के लिए बुलाया जाएगा. आतंकवादी इस विशेष बल के अपनी कमजोरियां दूर करने का इंतजार नहीं करने वाले हैं. जाहिर है, ऐसे माहौल में हमारी सरकारें अगर नहीं चेतीं तो और बड़े हमले हमारा इंतजार कर रहे हैं. इसलिए हमारे नीति-निर्माताओं को अपने राजनैतिक हितों से ऊपर उठकर देशहित और लोगों की सुरक्षा पर ध्यान देना होगा, तभी हम आश्वस्त हो सकेंगे.