शहरों के लिए मावठ यानी सर्दी की बारिश का मतलब है तेज रफ्तार जिंदगी में अचानक लगा ब्रेक. लेकिन किसान के लिए आसमान से टपकी अमृत की इन बूंदों के मायने हैं-जल्दी से जल्दी गेहूं की जड़ें जमाती फसल में खाद डाल देना, ताकि खेतों से बहुत दूर बैठे लोग भी चैन से अपना पेट भर सकें. लेकिन किसान यह कर नहीं पा रहा है. देश में यूरिया खाद की कमी ने उसे हलकान कर दिया है.
उस पर बेहद लचर वितरण प्रणाली और कालाबाजारी इस कमी को उस मुकाम पर ले जाती है जहां किसान या तो कराह उठता है या फिर हल की जगह डंडे और लाठियां उठा लेता है. ऊपर जो चार वाकये पेश किए गए हैं, दरअसल यह पूरे उत्तर और मध्य भारत के लाखों किसानों की हर रोज एक बोरी यूरिया पाने की जद्दोजहद की बहुत छोटी-सी झलक भर हैं.
उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, बिहार और दूसरे गेहूं उगाने वाले प्रदेशों में हाल यह है कि किसान आधी रात से खाद की सरकारी दुकानों के बाहर लाइन लगा लेते हैं और सुबह उन्हें पता चलता है कि आज तो यूरिया बंटनी ही नहीं है. गैराहा के गौरइया इंटर कॉलेज में किसानों की सभा से निकले भारतीय किसान यूनियन (भानु गुट) के बुंदेलखंड अध्यक्ष शिव नारायण सिंह परिहार झ्ल्ला रहे हैं, ‘‘धर्म बचाओ, पानी बचाओ, बिजली बचाओ?
अरे कोई किसान को भी बचाएगा. दो फसलें कुदरत ने खराब कर दीं और तीसरी पर यूरिया की मार पड़ रही है. हफ्तेभर में सप्लाई दुरुस्त नहीं हुई तो किसान या तो बरबाद हो जाएंगे या बौखला जाएंगे.’’ सभा में शामिल किसान अगर चेहरे के भाव दबा भी लें तो महिलाओं के चेहरे पर चिंता की लकीरें साफ दिख रही हैं. बंगरा गांव की आशा देवी कहती हैं, ‘‘साहब लोगों को चिट्ठियां भेजने से लेकर धरना-प्रदर्शन तक सब कर लिया. अब तो जो एक बोरी यूरिया दे दे, वही हमारे लिए भगवान है.’’
लेकिन यूरिया भगवान को नहीं, सरकार और उत्पादन करने वाली कंपनियों को देनी है. और दोनों ही इस समय पसोपेश में हैं. केंद्रीय रसायन और उर्वरक मंत्री अनंत कुमार दलील देते हैं, ‘‘देश में सालाना 3.2 करोड़ टन यूरिया की मांग है. 2.3 करोड़ टन का उत्पादन होता है और 90 लाख टन का आयात करना होता है. सरकार किसानों के हित के लिए हर संभव कदम उठा रही है.’’ (देखेः बातचीत) लेकिन 2013-14 से तुलना करें तो 2014-15 में देश में साफ तौर पर 15 से 20 लाख टन यूरिया की कमी है.
जहां तक आयात का सवाल है, अप्रैल-अक्तूबर 2013 की तुलना में अप्रैल-अक्तूबर 2014 में यूरिया के आयात में 34 फीसदी की तेज गिरावट सामने आई है. उधर, यूरिया उत्पादन करने वाली चार बड़ी इकाइयों ने 2014 में उत्पादन बंद कर दिया है. 1990 से अब तक यूरिया उत्पादन करने वाले 13 संयंत्र बंद हो चुके हैं या उनमें उत्पादन ठप हो गया है (देखें चार्ट). यानी इस साल किसान पर दोहरी मार पड़ी. एक तरफ घरेलू उत्पादन इकाइयां बंद हुईं, दूसरी तरफ यूरिया का आयात भी घट गया.
लेकिन सरकार और कंपनियों के लिए यूरिया का उत्पादन बढ़ाना आसान नहीं है. फर्टिलाइजर एसोसिएशन ऑफ इंडिया के महानिदेशक सतीश चंद्र कहते हैं, ‘‘यूरिया की मांग में बेतहाशा वृद्धि की एक वजह यह भी है कि यूरिया पर 75 फीसदी सब्सिडी दी जा रही है. 12 साल से यूरिया की कीमत तकरीबन स्थिर बनी हुई है. दूसरी तरफ डीएपी और दूसरी कुछ खादों की कीमत पर सब्सिडी कम है. ऐसे में किसान इस तरफ आकर्षित नहीं हो रहा.’’
आंकड़ों को देखें तो 2000-01 में घरेलू उत्पादन से ही यूरिया की मांग पूरी हो जाती थी, जबकि 2013-14 में 70 लाख टन यूरिया का आयात करना पड़ा. दरअसल, सतीश चंद्र इशारा कर रहे हैं कि सब्सिडी का असंतुलन दूर करने से ही इस समस्या का स्थायी हल तलाशा जा सकता है. लेकिन ऐसा करना राजनैतिक रूप से बेहद जोखिम भरा फैसला हो सकता है. इसीलिए न तो यूपीए सरकार और न अब एनडीए सरकार इस मामले में हाथ लगाने की हिम्मत कर पा रही है. देश में खाद सब्सिडी का सालाना बिल एक लाख करोड़ रु. के स्तर तक पहुंच चुका है.
(मध्य प्रदेश के विदिशा में यूरिया न मिलने से परेशान किसानों ने सड़क पर ही धरना दे दिया)
उर्वरक उत्पादन करने वाली सबसे बड़ी सहकारी संस्था इफको के सीईओ और प्रबंध निदेशक यू.एस. अवस्थी स्थायी हल के बारे में सुझाते हैं, ‘‘हमारी बड़ी चिंता जमीन की उपज क्षमता और उसमें पोषक तत्वों के बने रहने की है. रासायनिक और ऑर्गेनिक खाद का इस्तेमाल संतुलन के साथ होना चाहिए. हमारे किसान यूरिया का अत्यधिक उपयोग कर रहे हैं. इससे खेतों की उपज क्षमता घट रही है.’’ साथ ही अवस्थी एक महत्वपूर्ण बात और कहते हैं, ‘‘फिलहाल किसान की सबसे बड़ी जरूरत यूरिया है.
हमें यूरिया पर किसानों को सीधे सब्सिडी देनी चाहिए.’’ यानी जिस तरह रसोई गैस के सिलेंडर पर मिलने वाली सब्सिडी का पैसा उपभोक्ता के बैंक अकाउंट में ट्रांसफर करने का फैसला किया गया है, वैसे ही किसान बाजार मूल्य पर यूरिया खरीदे और सब्सिडी की रकम उसके खाते में सीधे पहुंच जाए. यह पहल यूरिया की कालाबाजारी रोकने में मददगार होगी, क्योंकि निजी दुकानों पर छापे और यूरिया की बोरियां जब्त होने की घटनाएं यहीं से जुड़ी हैं.
इस तरह की शिकायतें बड़े पैमाने पर आ रही हैं कि सहकारी समिति में खाद उपलब्ध नहीं होती लेकिन निजी दुकानों पर ऊंचे दाम पर यूरिया मिल रही है. उधर नेपाल से सटे उत्तरी बिहार और उत्तर प्रदेश के इलाकों में यूरिया की अंतरराष्ट्रीय तस्करी बड़ी समस्या है. नेपाल में यूरिया के दाम भारत से कई गुना ज्यादा हैं.
इन समस्याओं के अलावा राज्य सरकारों की लचर वितरण प्रणाली भी किसान की दुश्मन बनी है. मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने इंडिया टुडे को बताया, ‘‘मैंने केंद्रीय ऊर्जा मंत्री से मुलाकात की और दिसंबर में 120 रैक के कोटे की जगह 134 रैक यूरिया प्रदेश के लिए जारी करवाई. इसके अलावा सहकारी समितियों से अब 50 की जगह 70 फीसदी यूरिया बेची जा रही है.’’ लेकिन शायद सरकार ने कदम उठाने में कुछ देर कर दी. होशंगाबाद के किसान सुमेर पटेल कहते हैं, ‘‘बुआई के समय सरकार हमें खाद नहीं दे पाई. खाद की जमकर कालाबाजारी हुई.’’
इसीलिए मध्य प्रदेश के अखबार किसानों के प्रदर्शन और यूरिया की मांग की खबरों से पटे हैं.
इसी तरह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने 24 दिसंबर को केंद्र सरकार से मांग की कि फूलपुर की इकाई से दो लाख टन यूरिया उत्पादन जल्द सुनिश्चित किया जाए. इस पर आने वाला सब्सिडी का 66 करोड़ रु. सरकार खुद उठाने को तैयार है. लेकिन यह सक्रियता आग लगने पर कुआं खोदने जैसी है. झांसी के मंडलायुक्त के. राममोहन राव स्वीकार करते हैं, ‘‘जालौन के लिए 75,000 मीट्रिक टन, झांसी में तीन रैक और ललितपुर के लिए दो रैक की मांग भेजी गई थी. लेकिन आपूर्ति शुरू होने के साथ ही इफको के फूलपुर संयंत्र में खराबी आने से हालात बिगड़ गए.’’
इन हालात पर समाजवादी पार्टी सांसद और भारतीय राष्ट्रीय सहकारी संघ के चेयरमैन चंद्रपाल सिंह यादव कहते हैं, ‘‘सरकार हर साल खाद कारखानों को एक लाख करोड़ रु. की सब्सिडी देती है, लेकिन कारखानों का 20,000 करोड़ रु. अभी बकाया है, इसलिए बड़ी संख्या में कारखाने बंद हो गए.’’ सरकार को कारखानों और किसान, दोनों की सोचनी पड़ेगी क्योंकि किसान दुखी हुआ तो कोई सुखी नहीं रह सकता.
(साथ में संतोष पाठक और शुरैह नियाज़ी)