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दांव पर हेमंत सोरेन और बाबूलाल मरांडी की साख

अन्य राज्यों में जीत से उत्साहित बीजेपी जहां उम्मीदों पर सवार है, तो हेमंत सोरेन और बाबूलाल मरांडी जैसे स्थानीय दिग्गजों के लिए वास्तव में यह अस्तित्व की लड़ाई है.

अमिताभ श्रीवास्तव
  • ,
  • 03 नवंबर 2014,
  • अपडेटेड 1:23 PM IST

झरखंड में विधानसभा चुनाव का बिगुल बज चुका है और कभी शीर्ष पदों पर काबिज राज्य के नेताओं को अब तक की सबसे बड़ी चुनौती का सामना करना पड़ रहा है. बिहार से 15 नवंबर, 2000 को अलग कर नया राज्य बनाया गया झरखंड अब तक नौ मुख्यमंत्री देख चुका है. बीजेपी से तीन बार मुख्यमंत्री रह चुके अर्जुन मुंडा के सामने अब शीर्ष पद के लिए अपने पार्टी का पसंदीदा विकल्प बनकर उभरने की कड़ी चुनौती है. इसी तरह, पूर्व मुख्यमंत्री और एक विधायक वाली जय भारत सामंत पार्टी के मुखिया मधु कोड़ा भी राजनैतिक तराजू पर अपना कुछ वजन हासिल करने के लिए कड़ी मशक्कत कर रहे हैं.

दूसरे नेता जहां अपनी प्रासंगिता बनाए रखने के लिए संघर्ष कर रहे हैं, वहीं राज्य के पहले मुख्यमंत्री और झरखंड विकास मोर्चा (जेवीएम) के प्रमुख बाबूलाल मरांडी तथा मौजूदा मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के लिए तो यह अस्तित्व की लड़ाई है. दोनों को राजनैतिक ताकत संथाल परगना से मिली है, लेकिन दोनों एक-दूसरे से बिल्कुल अलग हैं. मरांडी जमीन से जुड़े नेता हैं. उन्होंने 1981 मेें बीजेपी ज्वाइन करने के लिए प्राइमरी टीचर की नौकरी छोड़ दी थी और अंतत: 2000 में मुख्यमंत्री बने. इसके विपरीत हेमंत पहली बार विधायक बने हैं और मुख्यमंत्री पद तक इसलिए पहुंचे क्योंकि वे झरखंड मुक्ति मोर्चा (जेएमएम) के मुखिया शिबू सोरेन के बेटे हैं.

अब मरांडी और हेमंत को एक ऐसी चुनावी जंग में अपना अस्तित्व बचाने के लिए एक-दूसरे से लडऩा है, जिसमें बीजेपी का पलड़ा भारी बताया जा रहा है. राज्य में बीजेपी विरोधी वोटों के लिए जगह है, पर दोनों के लिए चुनौती यह है कि वे बीजेपी विरोधी राजनैतिक जमीन का सबसे विश्वसनीय दावेदार कैसे बनें? शिबू सोरेन झरखंड के अलग राज्य के आंदोलन के दौरान अपने नेतृत्व के लिए प्रख्यात हैं. जनवरी, 2013 के बाद जब उन्होंने अर्जुन मुंडा के नेतृत्व वाली बीजेपी-जेएमएम सरकार गिरा दी थी तो उनके बेटे हेमंत को छह माह इंतजार करना पड़ा. आखिर जुलाई, 2013 में कांग्रेस हेमंत के नेतृत्व की सरकार को समर्थन देने पर राजी हुई.

39 वर्षीय हेमंत साधारण कद-काठी के हैं. उनके बड़े भाई और दिग्गज नेता दुर्गा सोरेन ने 2009 में अपने निधन से पहले तक जेएमएम की कमान संभाली थी. उनके विपरीत हेमंत बहुत चालाक माने जाते हैं. वैसे, भाई की मौत के बाद पार्टी में प्रभाव हासिल करने वाले हेमंत ने खुद को चतुर रणनीतिकार और निर्णायक प्रशासक साबित किया है. लोकसभा चुनाव में हेमंत के नेतृत्व में जेएमएम चार सीटों पर लड़ी थी जिसमें दो पर उसे जीत मिली. यह जीत ऐसे वक्त में मिली जब राज्य में बीजेपी ने समूचे विपक्ष को चित कर दिया और 14 में से 12 सीटें जीती थीं.

इस समय शिबू सोरेन अद्र्ध रिटायरमेंट वाले दौर में हैं और उनके सक्रिय नेतृत्व संभालने की संभावना नहीं है. दूसरी ओर हेमंत ने कई वरिष्ठों को नाराज कर दिया है क्योंकि उन्हें वे फैसले लेने की प्रक्रिया से दूर ही रखते हैं. इसलिए हेमंत को लड़ाई की कमान खुद ही संभालनी होगी. यदि वे नाकाम रहते हैं तो एक स्वतंत्र नेता के रूप में उनकी इस संक्षिप्त पारी पर ग्रहण लग जाएगा.


(बाबूलाल मरांडी के सामने करो या मरो जैसी स्थिति है)

2009 से 2014 के बीच मरांडी के लिए तो लगता है कि दुनिया ही पलट गई. उनकी जेवीएम ने 2009 में 25 सीटों पर चुनाव लड़ा था और 11 सीटें जीती थीं. उस वक्त उनकी सरकार न बन पाने की एकमात्र वजह यह थी कि उन्होंने 81 विधानसभा सीटों में से सिर्फ  25 पर चुनाव लड़ा था और बाकी 56 सीटेंअपनी साझीदार कांग्रेस के लिए छोड़ दी थीं, जो सिर्फ 14 सीटें जीत पाई थी. लेकिन मरांडी 2014 के लोकसभा चुनाव में उम्मीदों के मुताबिक नतीजे पाने में नाकाम रहे.

अब, विधानसभा चुनाव की तैयारी के वक्त मरांडी के पास सिर्फ  तीन विधायक बचे हैं. जेवीएम में ताजा बगावत महाराष्ट्र और हरियाणा में बीजेपी को मिली जीत के तुरंत बाद 28 अक्तूबर को हुई. बाघमारा से उसके विधायक ढुल्लू महतो और गढ़वा से विधायक सत्येंद्र नाथ तिवारी बीजेपी में चले गए. मरांडी आम चुनाव में खराब प्रदर्शन के बाद सबसे कठिन चुनौती का सामना कर रहे हैं. जेवीएम अपनी प्रतिष्ठापूर्ण जमशेदपुर सीट बचाने में तो नाकाम रही ही, दुमका सीट से शिबू सोरेन को चुनौती देने के मरांडी के दुस्साहसपूर्ण फैसले से उनका कद भी घटा है. वे वहां तीसरे स्थान पर रहे थे. जेवीएम ने सभी 14 लोकसभा सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे थे, पर वह सिर्फ  जमशेदपुर और गोड्डा सीट पर ही कुछ दम दिखा सकी. वहां उसके उम्मीदवारों अजय कुमार को करीब 3 लाख और प्रदीप यादव को 1.9 लाख वोट मिले.

संयोग से दुमका में, जिसे अक्सर राज्य की दूसरी राजधानी कहा जाता है, शिबू सोरेन की जीत हेमंत के लिए काफी मायने रखती है. हेमंत दुमका सीट से विधायक हैं और फिर वहीं से चुनाव लड़ेंगे. राज्य में धारणा है कि बीजेपी औरों से आगे है. मरांडी और हेमंत के लिए सबसे बड़ी चुनौती इसी धारणा को बदलने की है.

हेमंत मुख्यमंत्री के रूप में अपनी पारी के दौरान फैसला लेने में सक्षम नेता के तौर पर भी उभरे हैं. कांग्रेस के तुनकमिजाज मंत्री चंद्रशेखर दुबे उर्फ दादाई दुबे को हटाने और वरिष्ठ जेएमएम नेता हेमलाल मुर्मू को बीजेपी ज्वाइन करने के लिए मजबूर करने के अलावा हेमंत ने कैबिनेट के वरिष्ठ सहयोगी साइमन मरांडी को भी बाहर का रास्ता दिखा दिया. लोकसभा चुनाव के बाद उन्होंने कांग्रेस के एक और नेता योगेंद्र साव को भी मंत्रिमंडल छोडऩे को मजबूर किया. वास्तव में हेमंत राज्य के अकेले ऐसे मुख्यमंत्री हैं जिन्होंने अपनी पारी में तीन मंत्रियों को अक्षमता के लिए बाहर किया है. लेकिन वे वैसे जननेता नहीं हैं, जैसा कि उनके पिता रहे हैं. इसलिए बीजेपी से लड़ाई में हेमंत को अपने पिता की छत्रछाया की बेहद जरूरत होगी.

इस तरह बहुकोणीय मुकाबला होने जा रहा है, जिसमें हेमंत के सामने बीजेपी से लडऩे की कठिन चुनौती है. ऐसे में आजसू जैसे छोटी पार्टियां किंगमेकर बनने के लिए जी-तोड़ कोशिश कर रही हैं. बीजेपी को उम्मीद है कि वह विधानसभा में सबसे बड़े दल के रूप में उभरेगी. आम धारणा है कि कांग्रेस और दूसरे दलों के अलावा हेमंत और मरांडी गठबंधन बनाकर बीजेपी का रास्ता रोकने की कोशिश करेंगे जिससे वे 81 सदस्यों वाली विधानसभा में बहुमत के करीब पहुंच सकें.

फिलहाल कांग्रेस, आरजेडी और जेडी (यू) ने एक साथ लडऩे का निर्णय लिया है और हेमंत इन तीनों को मनाने की कोशिश कर रहे हैं कि वे जेएमएम को वरिष्ठ सहयोगी मानते हुए उसके साथ गठबंधन बनाएं. हेमंत कुछ ऐसी सीटों पर भी दावेदारी कर रहे हैं जिन पर 2009 में कांग्रेस लड़ चुकी है. वे ऐसी कम-से-कम 45 सीटों पर दावेदारी जता रहे हैं जो कांग्रेस को स्वीकार्य नहीं है. इस बारे में अंतिम फैसला आना बाकी है. लेकिन कांग्रेस-जेएमएम गठजोड़ टूटने की संभावना भी बन रही है.

वहीं मरांडी ने सभी 81 सीटों पर अकेले लडऩे का संकेत दिया है. वहीं उनकी पार्टी के कांग्रेस और आरजेडी से गठबंधन के संकेत भी मिल रहे हैं. उन्हें हमेशा ही कमबैक करने वाले शख्स के रूप में देखा जाता रहा है. 1991 में दुर्भाग्यपूर्ण चुनावी शुरुआत के बाद, जब शिबू सोरेन ने उन्हें 1.34 लाख वोटों से हरा दिया था, मरांडी ने 1996 में फिर इसी सीट पर उन्हीं के खिलाफ चुनाव लडऩे का फैसला लिया. मरांडी फिर हार गए थे, पर इस बार हार का अंतर 6,000 से भी कम रहा. 1998 और 1999 में मरांडी विजेता बनकर उभरे और उन्होंने लगातार दो चुनावों में शिबू और उनकी पत्नी रूपी सोरेन को हरा दिया. इस वजह से अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में उन्हें केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्री बनाया गया. फिर मरांडी झरखंड के पहले मुख्यमंत्री बने.

मार्च, 2003 में मरांडी की जिंदगी में एक और मोड़ आया, जब समता पार्टी के चार और जेडी (यू) के एक मंत्री कर बगावत के कारण उन्हें पद छोडऩा पड़ा. सरकार से उनके बाहर हो जाने के बाद बीजेपी ने उन्हें पूरी तरह से साइडलाइन कर दिया. तब मई, 2006 में उन्होंने अलग पार्टी बना ली. वे जानते हैं कि उनके लिए ये विधानसभा चुनाव करो या मरो जैसे हैं.

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