
जब भी चुनाव नजदीक आने लगते हैं, राजनैतिकों का दलितों के घर आना-जाना बढ़ जाता है. कुछ लोग और पार्टियां भोजन की राजनीति करने लग जाती हैं. दलितों के घर भोजन करके उन्हें अपना बनाने की कोशिश कोई नई नहीं है. यह काम हालिया नेताओं में राहुल गांधी ने शुरु किया था. यह बात और है कि इसका कोई खास असर पड़ा नहीं था.
राहुल गांधी जब-तब दलितों के घर रुककर उनके यहां भोजन करते हैं. भाजपा अध्यक्ष अमित शाह भी करते रहे हैं. शाह ने तो बनारस में एक दलित के घर भोजन किया था पर उनका वह दांव उल्टा पड़ गया था. अमित शाह ने दलित के घर भोजन किया और उसके बाद देश भर में दलित उत्पीड़न की इतनी अधिक घटनाएं हुईं कि सरकार सकते में आ गई. उसे रक्षात्मक मुद्रा में आना पड़ा.
हालांकि, दलितों को अपनी पार्टी से जोड़ने के लिए भारतीय जनता पार्टी ने अपने नेताओं से दलितों के घरों में जाकर भोजन करने का निर्देश दिया था, लेकिन पार्टी का कोई निर्देश संभवतया जबान संभालकर बोलने के बाबत नहीं था. सो जब-जब दलितों के घर भोजन कर आए नेताओं की जबान फिसली, पार्टी की भद पिटती नजर आई.
योगी सरकार में मंत्री अनुपमा जायसवाल ने कहा, ''सरकार के मंत्री रातभर दलितों के घर जाते हैं और उन्हें मच्छर काट रहे हैं. मच्छर काटने के बावजूद दलितों के घर रुकते हैं.''
इससे पहले योगी सरकार में मंत्री राजेंद्र प्रताप ने खुद की तुलना भगवान राम के साथ की थी. राजेंद्र प्रताप ने कहा, ''राम ने भी शबरी के जूठे बेर खाए थे.''
यूपी सरकार के ही गन्ना विकास मंत्री सुरेश राणा ने दलित परिवार के यहां हलवाइयों के हाथ के बनाए पालक पनीर, मखनी दाल, छोला, रायता, तंदूर, कॉफी, रसगुल्ला और मिनरल वाटर लुत्फ उठाया था.
लेकिन क्या राजनीतिक दलों के इस कदम की वाकई कोई अहमियत है या फिर यह दलितों का उद्धार करने जैसा अहंमन्यता भरा कोई कदम ही है?
क्या दलितों के घर भोजन करना वोटबैंक पक्का करने की गारंटी है? यह सवाल इसलिए क्योंकि बदलते सामाजिक दौर में भी दलितों को इस्तेमाल किया जा रहा है. विकास योजनाओं का लाभ उन्हें मिले या ना मिले, दलित वोट बैंक जरूर बन जाता है. ऐसे कदम दलितों को एक कैडर वोटबैंक में बदलने के लिए ही उठाए जाते हैं.
उत्तर प्रदेश में दलित वोटर तकरीबन 20.5 फीसदी हैं. असल में, दलितों के पास नेतृत्व के मामले में विकल्पों की कमी रही है शायद इसलिए उनका इस्तेमाल करना थोड़ा ज्यादा आसान है और दलित के घर भोजन का ‘ड्रामा हिट’ हो जाता है.
बहरहाल, भारत में साथ खाने की समस्या कहीं ज्यादा गंभीर है. यह बहस मांसाहारी-शाकाहारी से जुड़ा होने के साथ-साथ क्या शाकाहार और क्या मांसाहार इस पर भी निर्भर करता है.
अगर भारतीय गांवों में जाएं, तो आपको कच्चा और पक्का खाने की परिभाषा समझना होगा और यह भी जानना होगा कि कच्चा खाना कब खाया जा सकता है और पक्का खाना कब?
यह सिर्फ जाति से जुड़ा मसला नहीं है. एक ही जाति में भी रिश्ते तय होने से पहले भी कच्चा खाना साथ नहीं खाया जाता.
साथ ही खाना हो, तो उमा भारती की सलाह को अपनाना अहम होगा कि दलितों को अपने घर (सिर्फ नेता ही क्यों?) बुलाकर साथ बैठकर खाना चाहिए.
बहरहाल, सवाल यह है कि पोस्ट-आंबेडकर, पोस्ट-मंडल सियासी दौर में, दलितों के यहां उन्हीं के यहां पकाया और उन्हीं के बरतनों में साथ खाना कितना महत्वपूर्ण है? जबकि दलितों से जुड़े दूसरे मुद्दे कहीं ज्यादा अहम हैं.
खासकर पिछले दो साल में जब दलित उत्पीड़न, सामाजिक जुड़ाव, रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य, गरिमा और उचित प्रतिनिधित्व का सवाल अधिक महत्वपूर्ण है, साथ खाने जैसे प्रतीकात्मक बातों को गौण ही रखना चाहिए.