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चीन के साथ कदमताल

चीन के साथ व्यापार असंतुलन के मामले में देखें तो प्रधानमंत्री मोदी का “मेक इन इंडिया” अभियान चीन से होड़ लेने की बजाए उसे साथ लेकर चलने की ही कोशिश है.

aajtak.in
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  • 11 मई 2015,
  • अपडेटेड 2:20 PM IST

नई दिल्ली के विज्ञान भवन में 29 दिसंबर, 2014 को भारी गहमागहमी थी. सरकार के “मेक इन इंडिया” अभियान को साकार करने की खातिर एक समग्र योजना का खाका खींचने के लिए वहां सरकारी अफसरों के साथ शीर्ष उद्योगपति जुटे थे. इनमें कुमार मंगलम बिड़ला, सज्जन जिंदल और बाबा कल्याणी शामिल थे. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दूसरे दौर में वहां पहुंचे. उन्होंने सारी प्रस्तुतियां देखीं और उद्योगपतियों के विचार सुनते रहे.

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इस बैठक में मोटे तौर पर नियमों को आसान बनाने, भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया तेज करने और बुनियादी ढांचे को सुधारने जैसे मसलों पर बात हुई. इसके अलावा एक पड़ोसी देश के बढ़ते आर्थिक प्रभाव से जुड़े कुछ सवाल भी उठे. मसलन, चीन आखिर भारत का सबसे बड़ा निर्यातक क्यों बन गया है? भारत अपनी उत्पादन क्षमताओं को बढ़ाने के लिए ऐसे कौन-से कदम उठाए, जिससे वह चीन से मुकाबला करने लगे?

चीन के बारे में ऐसे सवाल कोई नए नहीं हैं. वह दुनिया का सबसे बड़ा निर्यातक है जो अपने यहां बनाए आधे से ज्यादा माल का निर्यात करता है. वित्त वर्ष 2013-14 में चीन ने भारत को 51 अरब डॉलर का माल निर्यात किया था जो भारत के 450 अरब डॉलर के कुल आयात के 11 फीसदी से ज्यादा था (और 355 अरब डॉलर के भारत के कुल गैर-तेल आयात का 14 फीसदी था). अप्रैल से दिसंबर 2014 के बीच चीन से आयात 46 अरब डॉलर को छू गया था जो भारत के कुल आयात के 13 फीसदी से ज्यादा था और भारत के दूसरे नंबर के निर्यातक संयुक्त अरब अमीरात से आए माल का दोगुना था.

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भारत में चीन से निर्यात का बड़ा हिस्सा इलेक्ट्रॉनिक उत्पादों का है जिसके बाद मशीनरी, इंजन, पंप, ऑर्गेनिक रसायन, उर्वरक, लोहा और स्टील व प्लास्टिक आते हैं. इसकी तुलना में भारत से चीन को निर्यात अप्रैल से दिसंबर 2014 के बीच सिर्फ 9 अरब डॉलर का था. यानी फासला 37 अरब डॉलर का है. आदित्य बिड़ला समूह के मुख्य अर्थशास्त्री और चीन पर भारतीय उद्योग परिसंघ (सीआइआइ) के कोर समूह के सदस्य अजित रानाडे कहते हैं, “भारत-चीन व्यापार में चीन का पलड़ा भारी होता जा रहा है.”

अधिकारियों की मानें तो नरेंद्र मोदी जब 14 मई को शिआन, बीजिंग और शंघाई के तीन दिवसीय दौरे पर चीन पहुंचेंगे तो उनके एजेंडे में शीर्ष पर इसी बढ़ते व्यापार फासले को संबोधित करना शामिल होगा. पिछले सितंबर में मोदी और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने व्यापार को संतुलित करने के तरीकों पर बात की थी जब शी गुजरात और दिल्ली के दौरे पर भारत आए थे. इसका नतीजा यह हुआ कि चीन ने अगले पांच साल में 20 अरब डॉलर के निवेश का वादा कर डाला. इसके अलावा गुजरात और महाराष्ट्र में उत्पादन के लिए चीनी औद्योगिक पार्क की स्थापना की घोषणा भी की गई. इसके बावजूद दोनों नेताओं के बीच रेलवे से लेकर स्मार्ट सिटी तक पर बनी सहमति की घोषणाओं पर अब तक मामूली प्रगति ही देखने को मिली है. इसके चलते चीनी निवेशकों में यह धारणा पैदा हुई है कि “मेक इन इंडिया” अभियान के बावजूद जमीन पर कुछ नहीं बदला है.

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प्रधानमंत्री जब चीन पहुंचेंगे तो इतने बड़े निवेश सौदे के अलावा और भी बहुत कुछ दांव पर लगा होगा. परस्पर अविश्वास के इतिहास वाले इन दोनों पड़ोसियों के बीच जिस दौर में रिश्तों में कारोबार शायद सबसे अहम चीज साबित हो रहा हो, सवाल खड़ा हो रहा है कि क्या मोदी ऐसे व्यापार संबंध में दोबारा जान फूंक सकेंगे, जो टिकाऊ भी हो?

भारी लाभ, ऊंची लागत

करीब एक दशक पहले भारत के बाजार में चीनी उत्पादों की बाढ़ आई थी. इसके पीछे कमजोर युआन (चीन की मुद्रा), मूल्यों को प्रतिस्पर्धी बनाए रखने में सहयोग करने वाले थोक उत्पादन पर बल और भारत की अपनी उत्पादन क्षमताओं में कमियां जिम्मेदार थीं. सस्ते माल पाकर भारतीय काफी खुश हुए थे और इसी के चलते धीरे-धीरे देश भर के शहरों-कस्बों में चीनी सामान का ढेर लग गया. इसकी मार कमजोर देसी उत्पादकों पर पड़ी. कई छोटी भारतीय इकाइयों पर ताला पड़ गया, जबकि बड़ी इकाइयां अपने उत्पाद बनाने के लिए दूसरे ठौर तलाशने लगीं. विडंबना देखिए कि ऐसी जगहों में चीन भी शामिल था.

चीनी निर्यात पर भारत की निर्भरता से जुड़ा द्वंद्व सबसे बेहतर ऊर्जा क्षेत्र के उदाहरण से समझा जा सकता है. आज भारतीय परियोजनाओं के लिए करीब 80 फीसदी पावर प्लांट उपकरण चीन से मंगाए जा रहे हैं. तात्कालिक फायदा यह हुआ है कि ऊर्जा की कमी के इस दौर में चीनी उपकरणों ने भारतीय कंपनियों को अपनी क्षमता बढ़ाने में मदद की है. इसका दीर्घकालिक प्रभाव हालांकि बहुत साफ नहीं है. जाहिर है, इससे भारत के घरेलू उत्पादन क्षेत्र को झटका लगा है. लार्सन ऐंड टुब्रो के अध्यक्ष (भारी इंजीनियरिंग) और बोर्ड सदस्य एम.वी. कोतवाल कहते हैं, “ऐसे कई कारोबार जो स्वाभाविक तौर पर भारत में आने चाहिए थे, वे चीन में चले गए.” नतीजतन, कई बड़ी फैक्ट्रियां, जैसे गुजरात के हजीरा में एलऐंडटी का उपयोग नहीं हो पाया है.

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अभाव से मिली शह

अकेले ऊर्जा उत्पादकों को ही चीनी आयात की ताकत से रू-ब-रू नहीं होना पड़ा है. चीन में उत्पादन की अधिकता भले ही भारत में उसके निर्यात को प्रोत्साहन देती है, लेकिन तथ्य यह है कि भारत में उत्पादों की कमी इसका मुख्य कारण है. उदाहरण के लिए पीवीसी पाइप निर्माण को लीजिए. चीन से थोक में पीवीसी पाइप मंगवाने वाले दिल्ली स्थित रमेश गुप्ता कहते हैं कि भारत में पिछले कई वर्षों से क्षमता संवर्धन का काम हुआ ही नहीं है. सिंचाई परियोजनाओं के कारण पीवीसी पाइपों की मांग जहां लगातार बढ़ती जा रही है, चीन से आयात करने में आसानी हो रही है. वे कहते हैं, “मुंबई से सटे नावा शेवा बंदरगाह पर चीन से आने वाला एक टन पीवीसी पाइप 910 डॉलर का पड़ता है जबकि घरेलू उत्पाद की कीमत 1050 डॉलर है.”

ऑटो पार्ट्स एक और क्षेत्र है जिसे चीनी आयात की बाढ़ से संघर्ष करना पड़ रहा है. 2013-14 में चीन से इंजन पिस्टन, ट्रांसमिशन ड्राइव, स्टीयरिंग और बॉडी कंपोनेंट का आयात कुल 2.6 अरब डॉलर रहा है और भारत में होने वाले ऑटो पार्ट्स आयात का 21 फीसदी रहा है जिसने आयात के मामले में 15 फीसदी वाले जर्मनी को पीछे छोड़ दिया है. दूसरी ओर भारत ने सिर्फ 30 करोड़ डॉलर के पार्ट्स चीन को निर्यात किए. ऑटोमोटिव कंपोनेंट मैन्युफैक्चरर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष रमेश सूरी कहते हैं कि चीन के आयात सबसे ज्यादा मात्रा में बाजार में हैं जिनकी गुणवत्ता अपेक्षाकृत खराब है. वे कहते हैं, “भारत में इसका बाजार अनुमानित 6 अरब डॉलर का है और इसमें 36 फीसदी से ज्यादा का नकली बाजार है. अधिकतर माल चीन का है.”

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उत्पादन में पिछड़े

पूर्व यूपीए सरकार की राष्ट्रीय उत्पादन नीति हर साल उत्पादन क्षेत्र में 12 से 14 फीसदी वृद्धि पर केंद्रित थी जिसमें दस करोड़ रोजगार का सृजन होना था और 2022 तक जिसे जीडीपी में 25 फीसदी हिस्सेदारी हासिल कर लेनी थी जो फिलहाल 15 फीसदी के आसपास है. यह प्रयास साकार नहीं हो सका क्योंकि सरकार एकाधिक घोटालों में फंस गई जिसके कारण निर्णय प्रक्रिया पर ही विराम लग गया. मोदी का “मेक इन इंडिया”

अभियान चीन के मुकाबले बढ़ रही उत्पादन की इसी खाई को पाटने के उद्देश्य से लाया गया है ताकि भारत को उत्पादन इकाइयां स्थापित करने के मामले में शीर्ष स्थल के रूप में गढ़ा जा सके. चुनौती यह है कि पिछले दस से पंद्रह वर्षों के बीच बाकी देशों ने प्रतिस्पर्धा में खुद को इस हद तक सुधारा है कि भारतीय कंपनियां न तो मूल्य में और न ही गुणवत्ता में उनका मुकाबला कर सकती हैं.

दरअसल, वित्त वर्ष 2013-14 में उत्पादन क्षेत्र में 0.7 फीसदी तक गिरावट आ गई थी जो पिछले पांच वर्षों के औसत 5.6 फीसदी से काफी नीचे थी. इसकी वजह सरकारी व्यय में कटौती, परियोजना कार्यान्वयन पर रोक और निजी निवेश में विलंब था. जीडीपी में उत्पादन क्षेत्र की हिस्सेदारी 2012-13 के 15.8 फीसदी से गिरकर 2013-14 में 14.9 फीसदी पर आ गई. इसके अलावा पिछले साल अक्तूबर में विश्व बैंक द्वारा जारी किए गए कारोबार में सहूलियत से संबंधित सूचकांक में भारत दो पायदान नीचे गिरकर 189 देशों के बीच 142वें स्थान पर आ गया. भारत की सबसे बड़ी कार निर्माता कंपनी मारुति सुजुकी के चेयरमैन आर.सी. भार्गव कहते हैं, “भारतीय उत्पादन क्षेत्र की समस्या बहुत गहरी है और इसे एक साल में दुरुस्त नहीं किया जा सकता.” वे कहते हैं, “इसके अलावा एक समाजवादी विरासत भी है जो इस भावना को व्यापक बनाती है कि निजी क्षेत्र की मदद करना बुरा काम है. इसे भी बदलना होगा.” चीन ने इस विरासत को बहुत पहले तिलांजलि दे दी है.

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इसके अतिरिक्त भारत के कर ढांचे में मौजूद असंगतियां कुछ निश्चित उत्पादों के आयात को सस्ता बनाती हैं. भारत के उद्योग जगत ने सरकार से दिसंबर में मांग की थी कि विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) में तय दायरे के भीतर आयात शुल्क को बढ़ा दिया जाए ताकि घरेलू उत्पादकों को सस्ते चीनी उत्पादों के आतंक से बचाया जा सके. डब्ल्यूटीओ द्वारा मंजूर आयात शुल्क की अधिकतम सीमा बाध्यता शुल्क है. भारत में जहां औसत बाध्यता शुल्क 48.6 फीसदी है, औसत प्राथमिक उत्पाद शुल्क करीब 14 फीसदी है जिसके चलते शुल्क बढ़ाने की गुंजाइश मौजूद है. वित्त मंत्रालय अब कथित रूप से कपड़ा उद्योग, पूंजीगत माल, इंजीनियरिंग उत्पादों, अल्युमिनियम, स्टील और तांबे के उत्पादों में शुल्कों के इस उलट ढांचे की पड़ताल कर रहा है ताकि विसंगतियां दूर की जा सकें. 

चीन के साथ-साथ

भारत जहां इस चुनौती से दो-चार है, वहीं इस बात के कोई संकेत नहीं हैं कि चीन को उत्पादन क्षेत्र में मिले लाभ में कोई कमी आने जा रही है. वहां तेजी से बढ़ते भत्तों-दक्षिणी चीन के कुछ हिस्सों में यह इजाफा सालाना 25 फीसदी से भी ज्यादा है जहां उत्पादन इकाइयां केंद्रित हैं-के बावजूद चीन में स्थापित कंपनियों का मानना है कि बुनियादी ढांचे से लेकर पहले से स्थापित आपूर्ति श्रृंखला अब भी लागत पर भारी ही पड़ेगी. चीन में मौजूद भारतीय कंपनियां भी यही मानती हैं.

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चीन के उत्पादन क्षेत्र को प्रतिस्पर्धा में पीछे छोड़ने के किसी प्रयास की बजाए मोदी सरकार यह उम्मीद कर रही है कि चीन की इस ताकत का लाभ उठाया जाए तथा “मेक इन इंडिया” अभियान को प्रोत्साहन देने के लिए चीन की विशेषज्ञता का सहयोग लिया जाए. राष्ट्रपति शी जिनपिंग को सितंबर में ही यह संदेश दे दिया गया था और यही बात अप्रैल में बीजिंग में आयोजित निवेशकों की एक बैठक में औद्योगिक नीति व संवर्द्धन विभाग के सचिव अमिताभ कांत ने निवेशकों से भी कही थी. स्टील और निर्माण जैसे क्षेत्रों में चीन की अतिरिक्त क्षमता की समस्या को ध्यान में रखते हुए कांत तो यहां तक कह गए कि “चीनी कंपनियों का भविष्य चीन में नहीं, भारत में है.”

सितंबर में मोदी और शी ने आर्थिक रिश्ते का कायाकल्प करने के लिए एक खाका बनाया था जिसे उस वक्त अधिकारियों ने “पांच वर्षीय ब्लूप्रिंट” का नाम दिया था. दोनों पक्षों ने एक संयुक्त बयान जारी करते हुए “उत्पादन और आपूर्ति शृंखला को संयोजित करने” की एक महत्वाकांक्षी योजना घोषित की थी. इस संयुक्त बयान ने वास्तव में भारत और चीन के आर्थिक सहयोग का एक व्यापक नजरिया सामने रखा था. इसके तहत पहली बार चीन के बैंकों को भारत में अपनी शाखाएं खोलने की अनुमति दी गई और सबसे पहली मंजूरी बैंक ऑफ चाइना को मुंबई में पहली शाखा खोलने की दी गई. इस योजना के तहत दोनों देश स्मार्ट शहर बनाने के लिए संयुक्त रूप से परियोजनाओं का अन्वेषण करेंगे जिसके तहत दोनों देशों में एक-एक शहर की पहचान की जाएगी. व्यापार असंतुलन को पाटने के लिए यह तय किया गया कि चीन के बाजार में भारतीय दवा कंपनियों को पहुंच दी जाएगी. इसके लिए दोनों देशों के स्वास्थ्य मंत्रालयों के अधीन दवा नियामकों के बीच एक एमओयू पर दस्तखत हुए. चीन रेलवे में अपनी विशेषज्ञता का लाभ भारत को देगा, स्टेशन बनाने में सहयोग देगा, चेन्नै-बेंगलुरू-मैसूर लाइन पर गति को बढ़ाने में मदद करेगा, हेवी हॉल में भारतीय अधिकारियों को प्रशिक्षित करेगा और हाइ स्पीड रेल परियोजना का अध्ययन करेगा.

प्रवेश का इंतजार

प्रधानमंत्री मोदी अब जब चीन जा रहे हैं, तो इस कागजी योजना को जमीन पर उतारने का काम बेहद मामूली हुआ है. जिन चीनी कंपनियों ने भारत में निवेश करने और उत्पादन करने की इच्छा जताई थी, वे लालफीताशाही और नीतिगत अनिश्चयों के चलते खुद को फंसा हुआ पा रही हैं. चीन के अधिकारियों और कंपनी कार्यकारियों ने साक्षात्कारों में बताया कि ऐसे तमाम सौदे हैं जिनके पिछले साल पूरा होने की उन्हें उम्मीद थी लेकिन वे नौकरशाही में फंस कर रेंग रहे हैं. वे इसे राजनैतिक इच्छाशक्ति की कमी मानते हैं.

-बैंक ऑफ चाइना का कहना है कि दिल्ली से करीब साल भर पहले ही सैद्धांतिक मंजूरी मिल जाने के बाद भी वह मुंबई में अपनी शाखा खोलने के लिए अनुमति का इंतजार कर रहा है.

- दोनों देशों के दवा नियामकों के बीच एक एमओयू अब भी अधूरा पड़ा है. बीजिंग के दौरे पर मार्च में गए स्वास्थ्य मंत्री जे.पी. नड्डा के सहयोगी स्वीकार करते हैं कि दोनों पक्षों के बीच बैठक इसलिए नहीं हो सकी क्योंकि दोनों ओर से जो कार्यसमूह गठित किया गया था उसकी “संरचना अप्रभावी” थी. नड्डा ने जब अपने समकक्ष ली बिन से मुलाकात की, तब दोनों पक्ष बैठक करने पर राजी हो सके. 

-रेलवे के मामले में चीनी अधिकारियों का कहना है कि दूसरी जगहों पर उनकी परियोजनाओं की अपेक्षा भारत में प्रगति बहुत धीमी है. अब भी गति बढ़ाने या उच्च गति वाली रेल पर काम शुरू होना बाकी है.

-भारत में संयुक्त स्मार्ट सिटी परियोजना पर चीन को जो काम शुरू करना था, वह बिल्कुल आगे नहीं बढ़ा है.

सबसे अहम यह है कि चीन की कंपनियां अब भी इंतजार में हैं कि “मेक इन इंडिया” नीति के विवरण सामने आएं. उनके पास चीनी भाषा में सिर्फ एक चमकदार पावर पॉइंट प्रस्तुति पहुंची है जिसमें भारत के सबसे ज्यादा संपन्न क्षेत्रों का सार है. जैसा एक अधिकारी कहते हैं, यह सूचना तो ऑनलाइन उपलब्ध है. चीन में लोगों को उम्मीद यह थी कि नरेंद्र मोदी की सरकार कुछ हटकर होगी. उन्हें उम्मीद थी कि गुजरात में जिस रफ्तार से चीनी कंपनियां काम करने की आदी हैं उसे दिल्ली में भी निर्णय प्रक्रिया के मामले में लागू किया जाएगा, लेकिन चीनी उद्योग जगत इस निष्कर्ष पर पहुंचा है कि नई सरकार में कुछ नहीं बदला है.

चीन के निवेशकों का कहना है कि भारत में निवेश का वातावरण अब भी अप्रत्याशित है. दुनिया में पोर्ट कंटेनर क्रेन की सबसे बड़ी निर्माता शंघाई झेनहुआ हेवी इंडस्ट्रीज कंपनी (जेडपीएमसी) का ही उदाहरण लें, जिसका दुनिया के 70 फीसदी बाजार पर कब्जा है. जेडपीएमसी 2005 के बाद से गुजरात में बंदरगाहों के इन्फ्रास्ट्रक्चर से जुड़ी सबसे बड़ी सेवा प्रदाता है. कंपनी ने अब तक 100 क्रेन और भारी उपकरण अडानी के बंदरगाह को बेचे हैं जो भारत में उसके एक अरब डॉलर से ज्यादा की बिक्री का आधे से ज्यादा है. मुंद्रा और चेन्नै के बंदरगाहों पर आज जेडपीएमसी के उपकरण इस्तेमाल किए जाते हैं.

चीन की पुकार

“मेक इन इंडिया” जब तक कागजी अभियान बना रहेगा, न केवल चीनी बल्कि वहां उत्पादन कर रही भारतीय कंपनियों को भी तब तक चीन में ही कारोबार करते रहने में आसानी होगी क्योंकि वहां सड़क और बंदरगाहों का पुराना स्थापित ढांचा एकीकृत आपूर्ति श्रृंखला के साथ मिलकर ऐसा करने की सहूलियत देता है. चीन में पहले पहल कारखाना लगाने वाली शुरुआती भारतीय कंपनियों में एक एस्सेल प्रोपैक थी जिसने 1997 में गुआंगझू में पहली फैक्ट्री खोली थी. गुआंगझू चीन के सबसे पुराने स्पेशल इकोनॉमिक जोन में आता है. आज यह कंपनी चीन में पांच कारखाने चला रही है. पांचवां कारखाना पिछले साल दिसंबर में खुला है. कंपनी का कहना है कि पिछले एक दशक में चीन से होने वाला उसका निर्यात 300 गुना से भी ज्यादा बढ़ा है.

आखिर इस कंपनी ने चीन में अपना उत्पादन करने का फैसला क्यों लिया? कंपनी का अंतरराष्ट्रीय कारोबार देखने वाले मुरुगप्पन रामास्वामी कहते हैं, “हमने जब 1997 में अपना कारखाना चालू किया था, उस वक्त शहर के अधिकारियों से लेकर डेवलपमेंट जोन, पावर ब्यूरो, वॉटर ब्यूरो तक समूची नौकरशाही एक कमरे में हमारी जरूरतों पर चर्चा करने के लिए जुट गई थी. चीन में अपनी पहली यात्रा के सिर्फ छह महीने बाद हमारा काम शुरू हो चुका था.”

जाहिर है, कोई बना-बनाया समाधान नहीं हो सकता. तानाशाही राज वाले चीन के बरअक्स भारत में यह काम कहीं ज्यादा जटिल है क्योंकि केंद्रीय स्तर पर निर्णय लिया जाना ही यहां पर्याप्त नहीं होता. चूंकि कारोबार करने में आसानी का मसला राज्यों का विषय है इसलिए उन्हें भी साथ लिया जाना होता है. 

विदेश मंत्रालय में निवेश और प्रौद्योगिकी संवर्द्धन विभाग के निदेशक के. नागराज नायडू का कहना है कि ये बदलाव रातोरात नहीं हो सकते. नायडू हाल तक गुआंगझू में भारत के महावाणिज्य दूत थे और छह साल तक चीन में राजनयिक रह चुके हैं. वे कहते हैं, “हमें “मेक इन इंडिया” का इस्तेमाल एक पैमाने की तरह करना चाहिए और अगले पांच से दस साल में टिकाऊ निवेश, इन्फ्रास्ट्रक्चर व आपूर्ति श्रृंखला के निर्माण को लक्ष्य बनाना चाहिए. आप घरेलू उत्पादन को प्रोत्साहन दीजिए लेकिन इसका मतलब आयात को रोक देना नहीं है. आपको उत्पादन को आकर्षक बनाना होगा.”

नायडू का कहना है कि एकाध साल के भीतर उत्पादन का एक महान केंद्र बन जाने की आकांक्षा अवास्तविक है. वे कहते हैं, “पैर के नीचे जमीन नहीं होगी तो उड़ नहीं पाएंगे.” उम्मीद है, मोदी को अपनी यात्रा में इस सच्चाई की एक झलक मिलेगी.

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