
माओ त्से तुंग ने उत्तरी कोरिया के साथ चीन के करीबी रिश्ते के बारे में एक बार कहा था कि वह ''उतना ही करीब है जितने होंठ और दांत्य्य होते हैं. उत्तरी कोरिया दशकों तक चीन का इकलौता साझीदार बना रहा, लेकिन आज बीजिंग में एक नई कहावत चल पड़ी है जिसमें पाकिस्तान को ''बा ताइ" यानी फौलादी भाई कहा जाता है.
हाल के महीनों में चीन ने अहम द्विपक्षीय मसलों पर पाकिस्तान के हित में जिस हद तक पक्ष लेना शुरू किया है, भारत उसे लेकर चिंतित है. यह दो दशक पुराने उस चलन का तकरीबन उलट है जब चीन एक ओर पाकिस्तान के साथ अपने ऐतिहासिक रिश्ते तो दूसरी ओर भारत के साथ नाजुक लेकिन प्रगाढ़ होते रिश्ते के बीच संतुलन साधने की कोशिश में रहता था.
उड़ी हमले के बाद जिस तरह से भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव बढ़ा है और भारत ने चौतरफा प्रतिक्रिया देते हुए नियंत्रण रेखा के पार सर्जिकल स्ट्राइक भी किया है, साथ ही कूटनीतिक मोर्चे पर पाकिस्तान को अलग-थलग भी कर दिया है, ऐसे में पाकिस्तान के साथ चीन के रिश्तों की हद ही यह तय करेगी कि भारत के प्रयास सफल होते हैं या विफल.
गोवा में 15 अक्तूबर, 2016 को शुरू हो रहे ब्रिक्स देशों के शिखर सम्मेलन में जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मुलाकात चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ होगी, तो पाकिस्तान का साया मंडराता दिखेगा. यह भेंट शी के पिछले भारत दौरे से अलहदा होगी जब सितंबर, 2014 में प्रधानमंत्री ने गुजरात में उनका गर्मजोशी से स्वागत किया था.
मोदी की चीनी चुनौती
माना जा रहा है कि प्रधानमंत्री जोर देकर शी तक यह संदेश पहुंचाएंगे कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की 1267 सैंकशंस कमेटी में पाकिस्तानी आतंकवादी मसूद अजहर को प्रतिबंधित किए जाने के कदम को रोकने की चीन की कोशिश से भारत आहत है. ध्यान रहे कि 30 सितंबर को चीन ने इस कदम को रोकने के लिए मार्च में जताई अपनी तकनीकी आपत्ति को दोहरा दिया था, बावजूद इसके कि कमेटी ने पहले ही अजहर के संगठन जैश-ए-मोहम्मद को प्रतिबंधित कर डाला था. अब बीजिंग को साल के अंत तक यह तय करना है कि वह अपनी राय को खारिज करता है या उस पर कायम रहता है. बाद वाले विकल्प की ज्यादा संभावना दिखती है.
मोदी की चिंता का एक और विषय 48 सदस्यों वाले परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह (एनएसजी) में भारत के प्रवेश की दावेदारी पर चीन का निरंतर कायम विरोध है. जून में सोल में समूह के खुले सत्र में हालांकि चीन का विरोध अनपेक्षित तो नहीं था, लेकिन चौंकाने वाली बात यह थी कि उसने भारत के साथ इसमें पाकिस्तान को शामिल किए जाने का भी खुलकर पक्ष ले लिया. एक अधिकारी ने कहा कि यह स्पष्ट संकेत था कि चीन दोनों देशों के साथ समान दूरी बनाकर चलना चाह रहा है. बीजिंग ने अपना पक्ष साफ कर दिया जब उसने एनएसजी पर वार्ता के लिए अपने प्रतिनिधियों को दिल्ली भेजने के बमुश्किल दस दिन बाद उन्हें 23 सितंबर को इस्लामाबाद भी भेज दिया.
आतंक की राजनीति
वैश्विक मान्यता प्राप्त आतंकवादी को चीन का निरंतर समर्थन मोदी सरकार के लिए एक अड़ंगा बन गया है, जिसने चीन के साथ रिश्ते सुधारने की महत्वाकांक्षा पाली थी, खासकर मई, 2015 में हुई प्रधानमंत्री की उस ऐतिहासिक यात्रा के बाद जिसमें शी ने प्रोटोकॉल तोड़कर अपने गृह प्रांत शाक्शी में मेजबानी की थी.
भारत की बर्दाश्त की सीमा और समझदारी के दायरे में देखें तो चीन का उसके पुराने सहयोगी को आर्थिक और रणनीतिक समर्थन तथा अजहर का खुलकर लिया गया पक्ष, वह भी भारत में आतंकी हमलों की पृष्ठभूमि में खासकर भारत को बिदकाने वाला है. अतीत में चीन ने अंतरराष्ट्रीय मंचों पर जहां भारत के लिए अवरोध पैदा किए हैं, वहीं 2008 के मुंबई हमले के बाद लश्कर-ए-तैयबा के सरगनाओं को सूचीबद्ध करने के कदम का पक्ष लिया था.
इस बार मसला थोड़ा अलग इस मायने में है कि चीन का समर्थन हद से ज्यादा बढ़ गया है. वहां के अधिकारी खुलकर भारत को दोष दे रहे हैं कि प्रतिबंध के रास्ते वह राजनैतिक बढ़त लेने की कोशिश में था, न कि वह देश जिस पर आतंकियों को पनाह देने का आरोप है.
चीन के उप विदेश मंत्री ली बाओदोंग ने 10 अक्तूबर को कहा, ''आतंकवाद पर दोहरी कसौटी नहीं होनी चाहिए." संयुक्त राष्ट्र में पूर्व प्रतिनिधि और वरिष्ठ राजनयिक बाओदोंग सैंक्शंस कमेटी के विशेषज्ञ हैं. उन्होंने जोर देकर कहा, ''किसी को आतंकवाद विरोध के नाम पर राजनैतिक बढ़त नहीं लेना चाहिए."
जनवरी, 2016 तक चीन में भारत के राजदूत तथा फिलहाल विवेकानंद इंटरनेशनल फाउंडेशन में प्रतिष्ठित फेलो अशोक कंठ कहते हैं कि चीन का समर्थन न सिर्फ पाकिस्तान की ओर से कोई कार्रवाई न किए जाने का बहाना बन रहा है बल्कि भारत के एक अहम सरोकार को भी नुक्सान पहुंचा रहा है. वे कहते हैं, ''चीन का कूटनीतिक संरक्षण पाकिस्तान को ज्यादा गैर-जिम्मेदार रवैया अपनाने को प्रोत्साहित कर रहा है, जिसमें हमारे सीधे मतलब के मुद्दे हैं जैसे आतंकवाद." चीन हालांकि इसे दूसरे तरीके से देखता है. जर्मन मार्शल फंड में चीन-पाकिस्तान रिश्तों के जानकार एंड्रयू स्मॉल कहते हैं, ''अगर वह पाकिस्तान पर अनावश्यक दबाव पड़ता देखेगा तो उसकी पीठ पर हाथ रख देगा."
असहज रिश्ते
हाल की घटनाओं ने पहले से ही जटिल भारत-चीन संबंधों को और तनाव में ला दिया है, जिसमें हमेशा से सहयोग और प्रतिस्पर्धा के बीच नाजुक संतुलन साधे रहने की जरूरत बनी रही है. दोनों पक्षों ने मोटे तौर पर सीमा विवाद को नियंत्रण में रखा है और वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर संलग्नता बनाए रखी है जहां दो दशक से ज्यादा वक्त से एक भी गोली नहीं चली है. दोनों देश विवादित सीमा पर भी परस्पर संलग्नता को विस्तारित करने की दिश में बढ़ रहे हैं. इस साल के आरंभ में पहली बार दोनों देशों की सेना ने एलएसी के करीब संवेदनशील पूर्वी लद्दाख क्षेत्र में रिलीफ ड्रिल का आयोजन किया. नवंबर के मध्य में दोनों सेनाओं के बीच आतंकवाद विरोधी छठवां आयोजन पुणे में किया जाएगा.
भारत के सोशल मीडिया पर सस्ते चीनी माल के बहिष्कार के आह्वान से इतर व्यापार और निवेश लगातार बढ़ रहा है. प्रधानमंत्री मोदी रेलवे, उत्पादन और स्मार्ट शहरों में चीन के निवेश को बढ़कर गले लगा रहे हैं. अधिकारी कहते हैं कि इस साल चीन का भारत में निवेश पिछले एक दशक में हुए 40 करोड़ डॉलर के मामूली निवेश का दोगुना था.
ध्यान देने वाली बात यह है कि इस नाजुक रिश्ते के बीच पाकिस्तान का दोबारा उभार नई चुनौतियां पेश कर रहा है. पूर्व राजनयिक कंठ कहते हैं, ''हम जानते हैं कि चीन और पाकिस्तान का पुराना रणनीतिक निवेश है, लेकिन एक बात जो हम आत्मविश्वास के साथ कह सकते हैं वह यह है कि उनके रणनीतिक संबंध पर कोई असर नहीं पड़ रहा है, बल्कि वह ज्यादा मजबूत हो रहा है." वे कहते हैं, ''चीन के लिए पाकिस्तान के साथ रिश्ता अहम है और कुछ लोग तो अब पाकिस्तान को चीन का इकलौता साझीदार भी बताने लगे हैं."
हिमालय से भी ऊंचा
पिछले दो दशक के दौरान चीन और पाकिस्तान ने अक्सर अपने रिश्तों के लिए ''हिमालय से ऊंचा, सागर से गहरा और शहद से मीठा" जैसे मुहावरे का जो इस्तेमाल किया है, वैसा हकीकत में दिखता नहीं है. यह रिश्ता साठ के दशक में काराकोरम हाइवे की ऊंचाइयों पर कायम हुआ था जब दोनों ही देश अपने साझा दुश्मन भारत के खिलाफ जंग में थे. इस रिश्ते का ऐतिहासिक रूप से जबरदस्त रणनीतिक महत्व रहा है, जिसमें चीन ने पाकिस्तान को मिसाइलें और विमान दिए हैं और परमाणु कार्यक्रम में उसकी नाजायज मदद की है.
नब्बे के दशक में जब चीन की अर्थव्यवस्था खुलने लगी, तो उसने अपने इस पड़ोसी के प्रति रूमानियत वाला भाव छोड़कर सतर्कता और निजी हित का रवैया अपना लिया जो रह-रहकर कुछ समय के भीतर उथल-पुथल का आदी हो चुका था और जिसे खुंजराब दर्रे के पार काफी एहतियात से देखा जाने लगा था. यह बात और ज्यादा साफ हुई भारत के साथ संबंधों के सामान्य होने के बाद, जब राजीव गांधी ने 1988 में चीन का दौरा किया और बीजिंग को यह बात समझ में आ गई कि उसे पश्चिम में स्थित अपने बड़े पड़ोसी से रिश्ते सुधारने ही होंगे—और ऐसा करने के लिए उसे ऐसी छवि कायम करनी होगी जिसे एक अधिकारी भारत और पाकिस्तान के साथ ''बेहतर संतुलन" का नाम देते हैं.
चीन के अंदरूनी लोग हालांकि बताते हैं कि दो दशक पुराना यह ''रणनीतिक बदलाव" अब एक निर्णायक मोड़ पर हो सकता है, जब चीन एक बार फिर अपने पुराने साझीदार की ओर झुकने लगा है. अफसरों का कहना है कि इस बदलाव के संकेत 2009 में ही मिलने लगे थे जब पाकिस्तान के प्रमुख सैन्य और वित्तीय देनदार अमेरिका ने अफगानिस्तान से खुद को समेटना शुरू किया था. अमेरिका ''आतंक के खिलाफ जंग" में पाकिस्तान को अपना आवश्यक साझीदार मानता था, लेकिन अमेरिका ने जैसे ही खुद को समेटना शुरू किया, चीन ने दोस्ती बढ़ानी शुरू कर दी.
सीपीईसी का मामला
चीन में शी की नई सरकार के 2013 में आने के फौरन बाद पाकिस्तान में नाटकीय तरीके से उसकी दावेदारी बढऩी शुरू हो गई. उसी साल शी ने कम्युनिस्ट पार्टी की केंद्रीय कमेटी को बताया कि उनका जोर ''परिधिगत कूटनीति" पर होगा, जिसकी शुरुआत प्राचीन सिल्क रूट की बहाली की एक योजना से की जाएगी जिसके लिए मध्य एशिया में जमीन की एक ''पट्टी" निर्मित की जाएगी तथा हिंद महासागर तक ''समुद्री सिल्क रोड" बनाई जाएगी. शी ने फैसला किया ''बेल्ट ऐंड रोड" नाम की इस योजना के केंद्र में पाकिस्तान होगा क्योंकि जमीन और समुद्र की पट्टी, दोनों ही पाकिस्तान के बलूचिस्तान स्थित बंदरगाह ग्वादर में जाकर मिलेगी, जिसका प्रबंधन चीन के पास आ चुका था क्योंकि भारी नुक्सान का हवाला देकर सिंगापुरी प्रबंधक उसे छोड़ कर जा चुके थे.
अगले दशक में चीन इस कथित चीन- पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (सीपीईसी) को पूरा कर लेगा जो चीन के पश्चिमी शिंजियांग प्रांत के काशगर को ग्वादर के साथ जोड़ेगा और जिसके अंतर्गत 35 अरब डॉलर के ऊर्जा सौदे तथा 11 अरब डॉलर की इन्फ्रास्ट्रक्चर परियोजनाएं शामिल होंगी. पेकिंग यूनिवर्सिटी में दक्षिण एशिया की रणनीतिक जानकार हान हुआ कहती हैं कि इसके पीछे उद्देश्य पाकिस्तान के साथ चीन के रिश्ते में असंतुलन को दुरुस्त करना है. वे कहती हैं, ''हमारा संबंध मोटे तौर पर सैन्य तक सीमित रहा, लेकिन अब हम एक समूचा नया आयाम इसमें जोड़ रहे हैं." इसलिए पहली बार चीन अपने हजारों इंजीनियरों, मजदूरों और कर्मचारियों को पाकिस्तान में भेजेगा और अरबों डॉलर वहां झोंकेगा. अब चाहे इसे जो कहें, लेकिन चीन ने पाकिस्तान की कामयाबी में भारी निवेश कर डाला है.
चीन को पाकिस्तान की जरूरत क्यों है
चीन सीपीईसी से दो हित पूरा होते देखता हैः अपने करीबी सहयोगी की बिखरती अर्थव्यवस्था में जान फूंकना, जो बदले में चीन के लिए एक स्थिर पश्चिमी परिधि बनाएगा. साथ ही अपने उद्यमों के लिए एक नई जगह मुहैया कराना ताकि उनकी परियोजनाओं को एकमुश्त तट पर ले जाया जा सके, जो चीन में क्षमता की अधिकता से जूझ रहे हैं. चीन के नियोजकों के लिए इस परियोजना का एक रणनीतिक मूल्य भी है, क्योंकि यह ऊर्जा के आयात के लिए अरब सागर तक उसकी पहुंच बनाएगा, जिसके चलते मलक्का जलडमरूमध्य से उसकी जान छूटेगी—लंबे समय से उसके मन में यह आशंका है कि कोई प्रतिद्वंद्वी ताकत मलक्का के संकरे मार्ग को बाधित करके चीन की अर्थव्यवस्था को कहीं बंधक न बना ले.
सीपीईसी सिर्फ हवाई मामला नहीं है, यह साबित करने में चीन के अफसर काफी मशक्कत करते हैं. पाकिस्तान स्थित चीनी दूतावास में मिशन के उप प्रमुख झाओ लिजियान के मुताबिक, 14 अरब डॉलर का पहले ही 30 ''अर्ली हारवेस्ट" यानी जल्दी नतीजे देने वाली परियोजनाओं में निवेश किया जा चुका है, जिनमें 16 निर्माणाधीन हैं. इनमें अधिकतर ऊर्जा परियोजनाएं हैं, जिनका लक्ष्य पाकिस्तान में गहराते ऊर्जा संकट को कम करना है. इनमें सहीवाल में बन रहा कोयला आधारित एक पावर प्लांट है जो जून में चालू हो जाएगा. कराची-लाहौर एक्सप्रेस-वे पर सुक्कर-मुलतान वाले खंड में स्थित करोट में बन रहा एक बांध है तथा काराकोरम हाइवे का दूसरा चरण शामिल है जो थकोट से खैबर पक्चतूनख्वा के हवेलियां तक जाएगा.
बेल्ट ऐंड रोड और सीपीईसी के लिए चीन नए वैश्विक वित्तीय संस्थान भी स्थापित करने की दिशा में आगे बढ़ रहा है. इसके तहत वह 40 अरब डॉलर का सिल्क रोड फंड और 100 अरब डॉलर का एशियन इन्फ्रास्ट्रक्चर इन्वेस्टमेंट बैंक गठित करेगा, जिसमें सबसे बड़ा हिस्सेदार खुद चीन होगा जिसका योगदन इसमें एक-तिहाई होगा. भारत इसमें दूसरा बड़ा हिस्सेदार है जिसने 8 अरब डॉलर की वचनबद्धता जाहिर की है. भारत की निगाह यह तय करने में है कि इस बैंक में उसका और अन्य देशों का यह दावा शामिल हो कि कैसे यह नया बैंक एशियन डेवलपमेंट बैंक के बरअक्स चलाया जाएगा. एआइआइबी की आरंभिक परियोजनाओं में 30 करोड़ डॉलर की लागत से पाकिस्तान में बनाया जा रहा एक मोटर वे है जो सीपीईसी का ही हिस्सा है.
चीनी अधिकारियों का कहना है कि सीपीईसी का लाभ आखिर में अकेले पाकिस्तान को ही नहीं बल्कि भारत और समूचे क्षेत्र को होगा, क्योंकि यह पाकिस्तान को स्थिर करने में मदद कर रहा है. वे इस बात पर जोर देते हैं कि चीन की प्राथमिक दिलचस्पी अपने पड़ोस में स्थिरता कायम करना है जो निवेशों के कामयाब होने की पूर्वशर्त है. विदेश मंत्रालय के एक अधिकारी के शब्दों में, ''इसीलिए यह आखिर में भारत को भी लाभ पहुंचाएगा."
सैन्य आयाम
जरूरी नहीं कि भारत में हर कोई इस आकलन से सहमत हो. आखिरकार, पाकिस्तान को इतना प्रोत्साहन देने की चीन की बड़ी वजह उसके रणनीतिकारों के मुताबिक, दक्षिण एशिया में ''अनुकूल संतुलन" कायम करना है. दूसरे शब्दों में, पाकिस्तान को चीन द्वारा दी जा रही शह यह आश्वस्त करने के लिए है कि भारत अपने पड़ोस में फंसा रहे और उससे उसे चुनौती मिलती रहे, बजाए इसके कि वह चीन के क्षेत्रीय प्रतिस्पर्धी के तौर पर उभर सके.
सैन्य मोर्चे पर चीन यह काम दशकों से करता चला आ रहा है. चीन की कम्युनिस्ट पार्टी और पीपल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) के नेतृत्व का पाकिस्तान की फौज के साथ गहरा संस्थागत और ऐतिहासिक रिश्ता रहा है, जिसे बीजिंग में बैठे कई लोग रिश्ते करीबी रखने में अहम भूमिका निभाने वाला मानते हैं, बावजूद इसके कि पाकिस्तान में समय-समय पर उथल-पुथल होती रही.
''आतंक के खिलाफ जंग" के दौरान जिस तरह पाकिस्तान के सैन्य रिश्ते अमेरिका के साथ तेजी से बढ़े हैं, उस लिहाज से चीन के निर्यात किए पुराने हथियारों का मूल्य कम होता गया है. अब अमेरिका पीछे हट रहा है और यहां तक कि एफ-16 लड़ाकू विमानों के निर्यात की समीक्षा तक कर रहा है, तो ऐसे में चीन का सहयोग निर्णायक हो चला है. चीन इस फर्क को भरने का इच्छुक है. दोनों देश इसीलिए संयुक्त रूप से जेएफ-17 थंडर नाम का हल्का लड़ाकू विमान बना रहे हैं जबकि चीन के नए पांचवीं पीढ़ी वाले स्टेल्थ फाइटर के निर्यात संस्करण पर बातचीत जारी है. पिछले अगस्त में दोनों देशों ने चीन का सबसे बड़ा सैन्य समझौता पूरा किया—पांच अरब डॉलर में आठ हमलावर पनडुब्बियों की पाकिस्तान को बिक्री, जिन्हें अरब सागर में तैनात किया जाएगा.
यहां तक कि सीपीईसी का भी एक स्पष्ट सैन्य आयाम है, जो पाकिस्तान के विकास में वहां की फौज की बढ़ती भूमिका को साफ करता है. उसकी फौज ने 15,000 सैनिकों की एक विशेष सुरक्षा टुकड़ी खड़ी की है, जिसका काम परियोजनाओं की निगरानी करना है जबकि सैन्य प्रमुख जनरल राहील शरीफ ने इस बीच चीन की कई यात्राएं करके निजी रूप से चीनी कर्मियों की सुरक्षा की गारंटी जाहिर की है. चीन के कई अधिकारी निजी रूप से पाकिस्तानी सेना को सीपीईसी का काम आगे बढ़ाने के लिहाज से ज्यादा अनुकूल मानते हैं, बजाए चुनी हुई एक कमजोर सरकार के.
सीपीईसी की एक अन्य अहम परियोजना पाकिस्तानी कब्जे वाले कश्मीर में इन्फ्रास्ट्रक्चर की तरक्की करना है जिसकी शुरुआत काराकोरम हाइवे से होगी. भारत और पाकिस्तान के बीच किसी टकराव की सूरत में इस लिंक से चीन काफी तेजी से सहयोग और सामग्री पाकिस्तान को भेज सकेगा, भले ही वह अपनी सैन्य टुकडिय़ों को सीधे उसमें शामिल न करे. अधिकारियों का मानना है कि बस यह समय की बात है कि कब पीओके की धरती पर पीएलए के कदम पड़ जाएं जिसका बहाना चीनी कर्मचारियों की सुरक्षा करना हो. इस साल चीन और पाकिस्तान ने पहली बार पीओके और शिंजियांग के सरहद वाले इलाकों में संयुक्त गश्त शुरू की है.
नई धुरी?
पाकिस्तान के लिए अमेरिका की ओर से घटते आर्थिक व सैन्य सहयोग से खाली हुई जगह को भरने के लिए चीन से बेहतर दांव और कुछ नहीं हो सकता. जर्मन मार्शल फंड के स्मॉल कहते हैं कि चीन भले ही ''एक के बदले दूसरे की अमेरिकी तर्ज पर आर्थिक सहयोग न मुहैया करा सके्य्य, लेकिन ''फिर भी बड़े पैमाने पर कर्ज, निवेश और कुछ अनुदानों की गुंजाइश बनी रहेगी." वे कहते हैं, ''इस बात पर कहीं ज्यादा जोर दिया गया है कि पाकिस्तान आर्थिक रूप से कमजोर न होने पाए."
पाकिस्तान हालांकि अकेले चीन का मुंह नहीं देख रहा. रूस ने 2014 में पाकिस्तान को हथियारों की बिक्री पर लगी रोक हटा दी थी. पिछले साल उसने पाकिस्तान को चार एमआइ-35 हेलिकॉप्टर गनशिप की बिक्री की. इस बिक्री से दिल्ली में हलचल पैदा हो गई क्योंकि यह अतीत की अप्रत्यक्ष सैन्य बिक्री से एक प्रस्थान था—रूस ने पहले जेएफ-17 के लिए आरडी-93 जेट इंजन बेचे थे. हाल ही में पहली बार रूस और पाकिस्तान का साझा सैन्य अभ्यास सितंबर में आयोजित किया गया, जिस पर भारत ने मॉस्को के सामने अपना सशक्त विरोध दर्ज कराया था.
रूस में राजदूत रह चुके अजय मल्होत्रा कहते हैं, ''रूस को पाकिस्तान के साथ अपने रक्षा संबंध आगे बढ़ाने से पीछे हटना चाहिए क्योंकि यह देश लंबे समय से आतंकवाद को बढ़ावा देने, वित्तपोषित करने, प्रायोजित करने और निर्यात करने में लगा हुआ है. पाकिस्तान को हथियार देने के मामले में हमारी संवेदनशीलता को लेकर रूस हमेशा से सावधान रहा है और हमें राष्ट्रपति पुतिन के समक्ष गोवा में होने वाले द्विपक्षीय शिखर सम्मेलन में अपनी चिंताएं रखनी होंगी."
रूस-पाकिस्तान के रिश्तों में आया यह नया उभार दरअसल रूसी और चीनी हितों के एक बार फिर समान होने का परिणाम है. सीरिया से लेकर अफगानिस्तान तक विभिन्न मुद्दों पर हाल के वर्षों में चीन ने रूस का पक्ष लिया है. इसके अलावा 1992 से ही रूस से सैन्य हार्डवेयर की खरीद के मामले में चीन अव्वल देशों में रहा है. उसने अरबों डॉलर के युद्धक जेट विमान, युद्धक पोत और पनडुब्बियां रूस से खरीदी हैं. रूस और चीन ने हाल ही में दक्षिणी चीन सागर में सैन्य अभ्यास किया था.
संयोग से यह बदलाव भारत और अमेरिका के बीच बढ़ती करीबी के समानांतर आया है, जिसकी स्पष्ट परिणति 31 अगस्त को दोनों देशों की फौजों के बीच संपन्न लॉजिस्टिक्स एक्सचेंज समझौते (एलईएमओए) में दिखती है. मॉस्को में भारत और अमेरिका के बीच बढ़ती सैन्य साझीदारी को लेकर एक हताशा और आश्चर्य का भाव है. पिछले तीन वर्ष में भारत को अमेरिका द्वारा 4.4 अरब डॉलर के विमानों और हेलिकॉप्टरों की ब्रिकी इसी अवधि में रूस द्वारा की गई 5 अरब डॉलर की बिक्री के बाद दूसरे नंबर पर रही.
क्या रूस-पाकिस्तान-चीन की धुरी का बनना कोई संभावना है? कार्नेगी मॉस्को सेंटर के अप्रसार कार्यक्रम में एसोसिएट पेत्र तोपिचकानोव इसे छोटी और मध्यम अवधि का घटनाक्रम मानते हैं. वे कहते हैं, ''किसी भी किस्म की धुरी बनने के लिए रूस के लिहाज से दीर्घकालिक रणनीतिक हित का अभाव है, वह भी चीन और पाकिस्तान जैसे अप्रत्याशित और खतरनाक खिलाडिय़ों को साथ लेकर." मसलन, रूस के सैन्य बलों के लिए चीन द्वारा परंपरागत और परमाणु क्षमताओं का विकास एक गंभीर चिंता की बात हो सकती है. दूसरी ओर पाकिस्तान बराबर अमेरिका, सऊदी अरब, चीन और अब रूस के साथ भी दोस्ती निभा रहा है. वे कहते हैं, ''रूस के दीर्घकालिक हित जरूरी नहीं कि पाकिस्तान के दूसरे दोस्तों के हितों के साथ अनिवार्यतः साझा हों."
पाकिस्तान का ऊहापोह
हालिया अतीत ने दिखाया है कि पाकिस्तानी हितों को आगे बढ़ाने के मामले में चीन की अपनी एक सीमा भी है. यह '60 या '70 का दशक नहीं है. शीत युद्ध के बाद लगातार बहुध्रुवीय होती इस दुनिया में स्थायी गठजोड़ या खेमे नहीं होते बल्कि निजी हितों के आधार पर रिश्ते बदलते रहते हैं.
तथ्य यह है कि चीन की रणनीतिक चिंता भारत को लेकर नहीं है. वह कहीं ज्यादा अमेरिकी चुनौती और अपनी परिधि पर पड़ोसियों को लेकर चिंतित है. पार्टी के एक अकादमिक खुलकर कहते हैं कि ''बीजिंग का सबसे बड़ा डर यह है कि भारत जापान या दक्षिण कोरिया न बन जाए." वे संकेत देते हैं कि चीन इतना लापरवाह नहीं होगा कि भारत को ऐसी स्थिति में धकेल दे.
इसीलिए जैसा कि कुछ लोग कहते हैं, चीन फिलहाल पाकिस्तान को लेकर एक ऊहापोह में है क्योंकि साथ ही वह भारत-अमेरिका गठजोड़ के डर से भारत के लिए एक क्षेत्रीय प्रतिसंतुलन भी कायम करना चाह रहा है. यह एजेंडा खास तौर से सेना और सुरक्षा एजेंसियों के माध्यम से आगे बढ़ाया जा रहा है जो भारत को एक स्पष्ट खतरे के तौर पर देखते हैं.
यही चीज भारत के प्रति चीन के अस्पष्ट नजरिये को समझाती है. वह निवेश और व्यापार संबंधों को विकसित करने के प्रति उत्साहित है, इसीलिए वह भारत में निवेश करने के लिए अपनी कंपनियों को प्रोत्साहित कर रहा है क्योंकि घरेलू मोर्चे पर सुस्ती छाई है. वैश्विक वित्तीय संस्थानों में सुधार और व्यापार वार्ता जैसे मुद्दों पर वह भारत का समर्थन चाह रहा है क्योंकि दोनों के हित इन मामलों में समान हैं.
आतंकवाद समेत सुरक्षा संबंधी मसलों पर हालांकि ऐसा लगता है कि चीन अपनी सुरक्षा एजेसियों के हितों को साध रहा है, जो पाकिस्तान को न सिर्फ पश्चिमी शिंजियांग क्षेत्र में स्थिरता तय करने के लिहाज से अहम मानती हैं जहां चीन के सामने जेहादी खतरा मौजूद है, बल्कि अफगानिस्तान में भी पाकिस्तान की भूमिका को वे निर्णायक मानती हैं. यही तथ्य इस बात को साफ करता है कि आखिर क्यों चीन अक्सर भारत विरोधी आतंकियों को हवा देने के पाकिस्तानी रवैये को बर्दाश्त करने को तैयार रहता है. चीन की दलील यह है कि चीन को निशाना बनाने वाले समूहों जैसे कि ईस्ट तुर्किस्तान इस्लामिक मूवमेंट का दमन करने के प्रति इस्लामाबाद जब तक अपनी इच्छा जताता है—जो कि उसकी नजर में उसने कर भी डाला है—उसके पास शिकायत की कोई वजह नहीं है.
चीन को पाकिस्तान के भीतर के सुरक्षा हालात की भी चिंता है. यहां तक कि चीन ने भी पाकिस्तान पर रवैया बदलने का दबाव डाला है और मसूद अजहर को बार-बार बचाने के तर्क पर सवाल खड़ा कर रहा है. यह बात पाकिस्तान के विदेश सचिव एजाज चौधरी के हवाले से 6 अक्तूबर के पाकिस्तानी दैनिक डॉन की एक रपट में सामने आई थी जो उन्होंने एक आंतरिक बैठक में आला अधिकारियों से कही थी.
उड़ी हमले और भारत के किए सर्जिकल हमले पर बीजिंग की सतर्क प्रतिक्रिया इस ऊहापोह को रेखांकित करती है. उसका तरीका कुछ ऐसा लगता है कि न तो भारत को संतुष्ट किया जाए और न ही पाकिस्तान को. बीजिंग ने हालांकि उड़ी हमले की निंदा की, लेकिन उसने ऐसा एकतरफा तरीके से नहीं किया बल्कि भारत और पाकिस्तान दोनों का आह्वान एक साथ किया कि वे स्थिरता की पहल करें. पाकिस्तान ने हालांकि कश्मीर मसले पर जब दो विशेष दूत बीजिंग भेजे, तो वे एक कनिष्ठ विदेश मंत्री से ही मिल पाए और चीन ने पाकिस्तान के पक्ष के समर्थन में कोई बयान जारी नहीं किया. यहां तक कि यूएनएससी में भी चीन ने पाकिस्तान द्वारा बार-बार कश्मीर का मसला उठाए जाने की कोशिशों को चुनौती दी है और अपना पक्ष दोहराया है कि यह मसला भारत और पाकिस्तान के बीच का है.
संतुलन की कोशिश
पाकिस्तान के प्रति नए सिरे से उपजे चीन के प्रेम-और उस देश में उसके बढ़ते हित—ने हाल के हफ्तों में संतुलन बनाने के काम को काफी जटिल बना दिया है. लगता है, उड़ी हमले के जवाब में भारत की अनपेक्षित आक्रामकता और सर्जिकल स्ट्राइक के साथ-साथ बलूचिस्तान का मसला उठाने के कदम ने चीन को बहुत चिंतित कर दिया है. इससे पहले पाकिस्तान के साथ भारत के टकरावों का असर चीन और भारत के रिश्तों पर नहीं पड़ रहा था. करगिल युद्ध के समय भी चीन मोटे तौर पर तटस्थ बना रहा था. इसके अलावा 2008 में जब मुंबई पर हमला हुआ था तो भी चीन ने चुपचाप अपने प्रतिनिधियों को दिल्ली और इस्लामाबाद भेजकर आपस में तनाव कम करने की सलाह दी थी और बाद में बीजिंग ने यूएनएससी में लश्कर नेता जकीउर्रहमान लखवी और उससे जुड़े संगठन जमात-उद-दावा पर प्रतिबंध लगाने की भारत की कोशिश का समर्थन भी किया था.
लेकिन पाकिस्तान के साथ हाल के तनावों को अलग नजरिए से देखा गया है, और बलूचिस्तान की स्थिति पर प्रधानमंत्री मोदी के बयानों ने बीजिंग को चौकन्ना कर दिया है, हालांकि मोदी के ये बयान जम्मू-कश्मीर में विरोध प्रदर्शनों पर चीन की ओर से जुलाई में अनपेक्षित रूप से ''चिंता" जताने वाले बयान से ज्यादा भिन्न नहीं थे.
हु शिशेंग चाइना इंस्टीट्यूट ऑफ कंटेंपरेरी इंटरनेशनल रिलेशंस में रणनीतिक विशेषज्ञ हैं. उनके अनुसार पाकिस्तान के प्रति इस बदले प्रेम का कारण यह है कि सीपीईसी के बाद दोनों देश उस दिशा में बढ़ रहे हैं, जहां ''दोनों के हित एक-दूसरे से जुड़ जाएंगे." वे भारत को साफ संदेश देते हुए कहते हैं, ''इसका मतलब यह होगा कि पाकिस्तान में संकट होने से चीन के हितों को नुक्सान होगा." हु का कहना है कि इससे भारत और चीन के रिश्तों में पाकिस्तान ''एक बड़ा कारक" बन जाएगा.
हु शायद चीन में लोगों की आम भावनाओं को व्यक्त करते हुए कहते हैं कि ''मोदी सरकार ने अगर पाकिस्तान को दुश्मन मानना शुरू कर दिया और वहां संकट खड़ा करने लगी या पाकिस्तान में छद्म युद्ध शुरू करके वह सीपीईसी को नुक्सान पहुंचाने की कोशिश करने लगी तो इससे न सिर्फ पाकिस्तान के साथ, बल्कि चीन के साथ भी भारत के रिश्ते बहुत बिगड़ जाएंगे." हु के विचार में ''चीन की पाकिस्तान नीति एक रचनात्मक रूप में लगातार गतिशील होती जा रही है, जबकि भारत की पाकिस्तान नीति विनाशकारी रूप में ज्यादा से ज्यादा गतिशील और आक्रामक होती जा रही है." वे चेतावनी देते हुए कहते हैं, ''इसलिए इस तरह की परिस्थितियों में यह सचमुच बड़ी चिंता का विषय है."
भारत के सामने विकल्प
विडंबना यह है कि चीन के नीति-निर्माता इस बात से वाकिफ हैं कि इस क्षेत्र में उसके दीर्घकालीन लक्ष्य पाकिस्तान की अपेक्षा भारत से ज्यादा जुड़े हुए हैं. कश्मीर में चीन एक ऐसा समाधान चाहता है जिससे उसकी परियोजनाएं अबाधित रूप से जारी रहें. चीन की राय में, जिसे अक्सर भुला दिया जाता है, कश्मीर का समाधान भारत के साथ उसके सीमा विवाद के समाधान की दिशा में पहली आवश्यकता है. बीजिंग पाकिस्तान की संवेदनशीलता के कारण ही पश्चिमी सेक्टर में भारत के साथ सीमा के मसले के अंग के तौर पर पीओके-चीन की स्थिति पर बात करने के लिए तैयार नहीं रहा है.
यहां तक कि अफगानिस्तान में भारत की तरह ही चीन भी तालिबान के बढ़ते प्रभाव से चिंतित है और बुनियादी ढांचे और विकास की परियोजनाओं को आगे बढ़ाने के लिए एक स्थिर माहौल चाहता है. बीजिंग ने संयुक्त परियोजनाओं पर काम करने के लिए दिल्ली से बात भी की है. इससे पड़ोसी देशों में धीरे-धीरे आपसी भरोसा कायम करने का मौका मिल सकता है. बीजिंग को यह भी पता है कि दोनों ही क्षेत्रों में पाकिस्तान के हित स्थिरता लाने में नहीं, बल्कि अस्थिरता पैदा करने में निहित हैं. चाइना वेस्ट नॉर्मल यूनिवर्सिटी में सेंटर फॉर इंडिया स्टडीज के निदेशक लांग जिंगचुन कहते हैं, ''भारत और पाकिस्तान के बीच समस्याएं चीन की समस्या नहीं है. चीन तो भारत और पाकिस्तान के बीच संबंधों की बेहतरी का स्वागत करता है और उनकी समस्याएं हल करना चाहता है. चीन चाहता है कि पाकिस्तान और भारत, दोनों के साथ उसके रिश्ते मजबूत हों. सीपीईसी सिर्फ चीन और पाकिस्तान की परियोजना नहीं है, बल्कि भविष्य में इसे भारत, ईरान और अफगानिस्तान तक बढ़ाया जा सकता है, और संबंधित देश अगर आपसी विवाद व मतभेद दूर कर सकें तो उससे पूरे क्षेत्र को इससे फायदा होगा. चीन सीपीईसी के जरिए भारत के प्रति किसी दुष्चक्र का इरादा नहीं रखता है."
चीन के गणित में भारत का बाजार महत्वपूर्ण स्थान रखता है. बीजिंग को अच्छी तरह पता है कि भारत का बाजार उसके पश्चिमी इलाके में सबसे बड़ा है. चीन के जैक मा व वांग जियानलिन जैसे ई-कॉमर्स और रियल स्टेट अरबपति साल में तीन-तीन बार भारत का दौरा करते हैं, न कि पाकिस्तान का. दोनों ही देश चाहते हैं कि उनके बीच आर्थिक रिश्ते समांतर पटरी पर चलते रहें, लेकिन भारत में इन दिनों आम लोगों की राय इसके उलट है. सोशल मीडिया पर चीन में निर्मित सामान का बहिष्कार करने के लिए कहा जा रहा है और बताया जा रहा है कि किस तरह ''मेड इन चाइना" के बारकोड की पहचान की जाए.
पूर्व राजदूत कंठ का कहना है कि यह दोनों देशों के सामने एक चुनौती पेश करता है कि दिनोदिन जटिल होते जा रहे रिश्ते को कैसे संभाला जाए. दोनों देशों के बीच पाकिस्तान के एक महत्वपूर्ण कारक बन जाने से यह काम और भी मुश्किल हो गया है. कंठ के मुताबिक, ''चीन भी दोनों देशों के बीच संतुलन बनाने का इच्छुक है. हम उससे यही चाहते हैं कि वह हमारे सरोकार पर गौर करे." वे कहते हैं, ''भारत-चीन संबंधों को लेकर घटनाक्रम थोड़ा विषाक्त होता जा रहा है. यह दोनों ही देशों के लिए वांछनीय नहीं है." गोवा में मोदी और शी जब मिलेंगे तो दोनों के लिए इस स्थिति को बदलना शायद सबसे महत्वपूर्ण काम होगा.