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दशरथ मांझी के बारे में जो कहा जाए वह कम है. वे करिश्माई शख्स थे. जिस तरह मुगल बादशाह शाहजहां ने अपने प्यार की खातिर संगमरमर का ताज महल बना डाला था, उसी तरह उस इंसान ने अपनी पत्नी की खातिर पहाड़ का सीना चीर डाला और अपना पूरा जीवन सड़क बनाने के लिए झोंक दिया. उस शख्स ने दिन देखा, न रात देखी, उसका सिर्फ एक ही लक्ष्य था, पहाड़ को काटकर राह बनाना, जिससे उसका जीवन आसान हो सके, जिसे वे प्यार करते थे. जब केतन मेहता ने मुझे इस किरदार के बारे में बताया तो मैंने बिना सोचे-समझे, झट से इस रोल के लिए हामी भर दी. अगर कोई ऐक्टर इस भूमिका को निभाने से मना करता तो वह जरूर बुरा ऐक्टर होता.
दशरथ मांझी का बेजोड़ किरदार इस रोल को चुनने की एक वजह थी तो दूसरी वजह यह थी कि उनके जीवन और अपनी जिंदगी को मैं काफी रिलेट कर पाता हूं. बेशक उनकी कुर्बानी के आगे मेरी कुर्बानियां कुछ नहीं हैं लेकिन कई बातें ऐसी हैं, जो मुझे उनके करीब ले जाती हैं और मेरा मन अपने आप से उनसे गहरे तक जुड़ जाता है. जिस तरह उनका जीवन संघर्ष से भरा था, मैंने भी अपने जीवन में संघर्ष और रिजेक्शन का लंबा समय देखा है. जिस तरह वे सिर्फ छैनी-हथौड़े से पहाड़ काटते रहे, उसी तरह मैंने भी इस बात को नहीं छोड़ा कि एक दिन मेहनत रंग लाती है.
अपने बुलंद हौसलों और खुद को जो कुछ आता था, उसी के दम पर मैं मेहनत करता रहा. संघर्ष के दिनों में मेरी मां कहा करती थीं कि 12 साल में तो घूरे के भी दिन फिर जाते हैं. उनका यही मंत्र था कि अपनी धुन में लगे रहो. बस, मैंने भी यही मंत्र जीवन में बांध रखा था कि अपना काम करते रहो, चीजें मिलें, न मिलें इसकी परवाह मत करो. हर रात के बाद दिन तो आता ही है.
दशरथ मांझी का रोल एक्सेप्ट करना तो आसान था लेकिन उनको स्क्रीन पर उतारना मेरे फिल्मी करियर की सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक थी. मैंने कई वीडियो देखे. दशरथ मांझी की मानसिक अवस्था को समझने की खूब कोशिश की. कई तरह की किताबें पढ़ डालीं. कई लोगों से बातें कीं. और हर समय उस इंसान के बारे में ही सोचता था और उसके 22 साल के संघर्ष पर गौर करता रहता था.
मेरी कोशिश यही रही कि दशरथ मांझी के किरदार को मैं अपने में अच्छे से रचा-बसा लूं. जहां उन्होंने सड़क बनाई थी, मैं उस पहाड़ पर जाकर घंटों बैठा रहता और चुपचाप उस पूरे माहौल को अपने अंदर उतारने की कोशिश में करता. कई-कई बार तो आठ-दस घंटे वहीं निकल जाते और मुझे पता ही नहीं चलता. दशरथ के सड़क बनाने के लिए पहाड़ काटने के सीन की कल्पना करके मेरे पूरे शरीर में सनसनी दौड़ जाती थी. यह बात सोच से परे है कि एक अदना-सा इंसान ने अपने प्यार की खातिर पहाड़ का सीना चीर डाला. यह किसी जादुई कहानी से कम नहीं है लेकिन अंतर सिर्फ इतना है कि यह सच है.
अब फिल्म की शूटिंग पूरी हो चुकी है. द माउंटेन मैन इस साल रिलीज होगी. लेकिन यह कभी न भूलने वाला एक्सपीरिएंस रहा है. शूटिंग के दौरान इस बात का एहसास रोमांच पैदा कर देता था कि इन्हीं विशाल पहाड़ों को उस शख्स ने काटा होगा. इसमें सबसे खास बात केतन मेहता का डायरेक्शन है. वे बेहतरीन डायरेक्टर्स में से हैं. उन्होंने दशरथ मांझी को परदे पर जिंदा करने के लिए हर संभव कोशिश की है.
उन्होंने किरदार की बारीकियों को समझा, और मैंने इसे पूरी तरह अपने जेहन में उतारा. मैं तो यही कहना चाहूंगा कि ऐसी हिम्मत के धनी इंसान यदा-कदा ही जन्म लेते हैं. हमें इन्हें अपना प्रेरणास्रोत बनाना चाहिए. रंज उस शख्स से न मिल पाने का है क्योंकि 2007 में दशरथ मांझी इस दुनिया से विदा हो गए. लेकिन उनके किरदार को परदे पर जीकर ही मैंने काफी कुछ हासिल कर लिया है—बतौर एक कलाकार और एक इंसान के.