भारत में मौसम के आधार पर बांटे गए 36 प्रखंडों में से 11 में इस साल 1 जून से 3 सितंबर के बीच 20 से 59 फीसदी कम वर्षा हुई जो सामान्य मानसून के शुरुआती तीन महीनों में अपेक्षित वर्षा से काफी कम है. केंद्रीय भू-विज्ञान राज्यमंत्री जितेंद्र सिंह ने 12 अगस्त को ऐलान किया था कि इस साल मानसून की बारिश बीते पांच वर्षों में सबसे कमजोर रहने वाली है, जो दीर्घकालिक औसत (एलपीए) का 87 फीसदी होगी.
एलपीए 1951 से 2000 के बीच देश में हुई मौसमी बरसात का औसत आंकड़ा होता है जो अनुमान के मुताबिक 89 फीसदी है. जून में इसके 93 फीसदी रहने का पूर्वानुमान था. इस घोषणा के बाद देश की उस 83 करोड़ आबादी के कान खड़े हो गए जो कृषि पर निर्भर है. दक्षिण-पश्चिमी मानसून से 55 फीसदी फसली भूमि को 90 फीसदी वर्षा मिलती है, जो सिंचाई के लिए वर्षा पर ही निर्भर है.
अब जरा इस बात पर ध्यान दें. भारत में अब तक का सबसे बड़ा सूखा 1877 में पड़ा था. उस वक्त देश में 29 फीसदी कम बारिश हुई थी. 2002 के दौरान जब सूखा पड़ा था तो यह कमी 19.2 फीसदी थी, जबकि 2009 में जब सूखा पड़ा था तब 21.8 फीसदी कम बारिश हुई.
भारत का मौसम विभाग मानसून की स्थिति को समझ्ने के लिए किसी क्षेत्र पर हुई मौसमी बरसात को नापता है और उस क्षेत्र में मानसून के एलपीए के अनुपात में इसकी गणना करता है. सवाल उठता है कि इस साल का मानसून आखिर कितना खराब है? भू-विज्ञान मंत्रालय में वैज्ञानिक एम. राजीवन कहते हैं, ‘‘समूचे भारत की बात करें तो 10 फीसदी कम वर्षा को सूखा पडऩा माना जाता है. किसी मौसम आधारित प्रखंड में यह मानक 19 फीसदी का है.’’
विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग में जलवायु परिवर्तन कार्यक्रम के प्रमुख अखिलेश गुप्ता कहते हैं, ‘‘अगर बारिश 25 फीसदी तक कम हुई हो तो सूखा हल्के दर्जे का माना जाता है. बारिश की कमी 25 फीसदी से ज्यादा लेकिन 50 फीसदी से कम है तो इसका मतलब है सूखा मध्यम दर्जे का है. लेकिन बारिश में कमी 50 फीसदी से भी ज्यादा है तो इसका मतलब है कि सूखे की स्थिति गंभीर है.’’
इस साल 3 सितंबर तक देश में 622.5 मिलीमीटर (मिली) बारिश हुई है जो 734.7 मिली के सामान्य आंकड़े से 15 फीसदी कम है. हालांकि सरकार ने अब तक इसे सूखा घोषित नहीं किया है और इसे बारिश में कमी ही करार दे रही है. लेकिन मौसम विभाग के अपने मानक के हिसाब से देखा जाए तो देश में अब तक सूखा पड़ा हुआ है.
मौसम का पूर्वानुमान लगाने वाली नोएडा स्थित निजी एजेंसी स्काइमेट के सीईओ जतिन सिंह हैरानी जताते हुए कहते हैं, ‘‘यह अजीब बात है कि एलपीए से 13 फीसदी कम बारिश पर भी सरकार इसे सूखे का नाम नहीं दे रही.’’
हालांकि मौसम विभाग के पुणे स्थित दीर्घावधि पूर्वानुमान विभाग के प्रमुख शिवानंद पै कहते हैं, ‘‘अभी मौसम खत्म नहीं हुआ है इसलिए जल्दबाजी में कोई निष्कर्ष नहीं निकालना चाहिए.’’ अगर मौसम के आधार पर बांटे गए प्रखंडों को देखें तो इनमें से 21 में सामान्य वर्षा हुई है और वर्षा में कमी 19 फीसदी से ज्यादा नहीं रही है. गुप्ता के मुताबिक, भौगोलिक आधार पर वर्षा की कमी का यह वितरण मानसून में अंतर्निहित है.
वे कहते हैं, ‘‘इसमें कई तंत्र होते हैं, जैसे मध्य भाग में कम दबाव का क्षेत्र, गुजरात और सौराष्ट्र में मिड-ट्रोपोस्फेरिक घुमाव, पश्चिमी तट पर तटीय भंवरें तथा उत्तरी भारत में पश्चिमी विक्षोभ इत्यादि, जिनके चलते बारिश होती है. ये तंत्र अलग-अलग वक्त पर अलग-अलग जगहों पर निर्मित होते हैं. कुछ वर्षों में ये आंशिक हो सकते हैं या पूरी तरह गायब भी रह सकते हैं और कभी-कभार इनकी संख्या ज्यादा हो सकती है. यही वजह है कि हर समय हर जगह मानसून की बारिश नहीं होती है.’’
क्या हम वर्षा पर निर्भर रह सकते हैं? हाल के वर्षों में 2002, 2004 और 2009 के दौरान खराब मानसून के कारण इस तंत्र के टिकाऊ होने को लेकर सवाल खड़े हुए हैं. इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ ट्रॉपिकल मेटीरियोलॉजी के पूर्व निदेशक प्रोफेसर देवराज सिक्का की मानें तो 1960 और 2010 के बीच मानसून की बारिश में औसतन पांच फीसदी की कमी आई है. वे कहते हैं, ‘‘1994 के बाद एक भी साल ऐसा नहीं रहा जब अतिरिक्त वर्षा हुई हो. सिर्फ पिछले साल सामान्य से ज्यादा बारिश हमने देखी थी.’’
इन असामान्य रुझनों के बावजूद वैज्ञानिक अब तक मानते रहे हैं कि मानसून तंत्र बहुत कारगर है चूंकि यह परिघटना हर साल लगभग एक ही समय के करीब लगातार घटती है. पिछले 150 साल में एक बार भी मानसून नाकाम नहीं रहा है. केरल में मानसून के आगमन की औसत तारीख 1 जून रही है लेकिन बीते 100 साल के दौरान समय से बहुत पहले ही 1918 में 11 मई को और 1972 में यह 18 जून को केरल पहुंचा था. सिक्का कहते हैं, ‘‘इसीलिए हम विश्वास से कह सकते हैं कि हर साल 15 मई से 15 जून के बीच मानसून केरल के तट पर आएगा ही.’’
गुप्ता कहते हैं, ‘‘इसी टिकाऊपन के कारण हर क्षेत्र में सालभर में फसलों के बुआई और काटने का समय निश्चित होता है. देश में सबसे बुरा सूखा 1877 में पड़ा था जब 29 फीसदी कम बारिश हुई थी. इसका मतलब यह हुआ कि कम-से-कम 70 फीसदी बारिश तो हमेशा होनी ही है. इसके अलावा, बीते 150 साल में 70 फीसदी अवधि में सामान्य वर्षा देखी गई है.’’
मानसून के आगमन से कहीं ज्यादा अहम हालांकि उसका सक्रिय (जब बारिश जारी रहती है) और सुप्त रहने वाला चरण है (जब बारिश रुक जाती है). एक सामान्य चक्र40 दिनों का होता है लेकिन एक दशक से ज्यादा हुए जब भारत में यह चक्र स्वस्थ रहा हो-या तो लगातार बारिश हुई या फिर लगातार सूखा रहा.
गोवा में नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ ओशियनोग्राफी के मुख्य वैज्ञानिक एम.आर. रमेश कुमार कहते हैं, ‘‘कभी-कभार यह 40 से 50 सेंटीमीटर या फिर जैसा कि मुंबई में कुछ साल पहले हुआ था, 94 सेंटीमीटर भी रह सकता है. फिर अचानक हमें एक लंबा अवकाश देखने को मिल जाता है. एक ही मौसम में बारिश का इतना असमान वितरण खतरनाक है.’’ टोक्यो स्थित जैम्सटेक की एप्लिकेशन लैबोरेटरी सीवीपीएआरजी के ग्रुप लीडर स्वाधीन बहेड़ा के मुताबिक यदि मानसून के सुप्त चरण उसके सक्रिय चरणों से ज्यादा लंबे हैं, तब देश में सूखे जैसी स्थिति होती है. कुछ ऐसा ही हमने 2002 में देखा था.
क्या ग्लोबल वार्मिंग इसकी वजह है?पॉट्सडैम इंस्टीट्यूट फॉर क्लाइमेट इंपैक्ट रिसर्च के वैज्ञानिकों की 2013 में जारी एक रिपोर्ट कहती है कि भविष्य में ग्लोबल वार्मिंग के चलते भारतीय मानसून का रुझान बदलेगा. वैज्ञानिकों ने पाया है कि एक डिग्री सेल्शियस की गर्मी के चलते भारत में रोजाना की बारिश में 4 से 12 फीसदी तक बदलाव आ सकता है.
पै और उनके साथी अब भी ग्लोबल वार्मिंग के प्रभावों को लेकर मुतमईन नहीं हैं, लेकिन वे इतना मानते हैं कि मौसम आधारित प्रखंडों के स्तर पर कुछ असर देखने को मिल सकता है. पै कहते हैं, ‘‘विभिन्न अध्ययनों में हमने यह पाया है कि इक्कीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में मौसमी मानसूनी बारिश आज की स्थिति से बहुत अलग नहीं होगी हालांकि सक्रिय और सुप्त चरणों की तीव्रता और अवधि में बदलाव आ सकता है.’’ वे चेतावनी देते हैं कि बड़े मॉडल के साथ जो अनिश्चय जुड़े होते हैं, उसकी वजह से ऐसे आकलन सामने आते हैं. वे कुछ क्षेत्रों में बारिश के रुझानों में बदलाव की ओर इशारा भी करते हैं.
मसलन, झारखंड, छत्तीसगढ़, पूर्वोत्तर राज्यों और केरल में पिछले 50 वर्षों के दौरान बारिश में कमी आई है जबकि पश्चिम बंगाल, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, जम्मू और कश्मीर, कोंकण, गोवा, मध्य महाराष्ट्र, रायलसीमा, तटीय आंध्र प्रदेश और उत्तरी कर्नाटक के भीतरी इलाकों में बारिश में इजाफा हुआ है. मध्य भारत में बारिश की तीव्रता और बारंबारता में भी इजाफा हुआ है. लेकिन साथ ही मद्धिम बारिश में कमी आई है जिससे औसत बारिश के आंकड़ों में कोई बदलाव नहीं आया. सिक्का कहते हैं, ‘‘ग्लोबल वार्मिंग से भारी बारिश में कमी आ सकती है और कम देर के लिए हल्की बरसात के मामले बढ़ सकते हैं.’’
अल-निनो का मानसून पर असरदक्षिणी अमेरिका के करीब प्रशांत महासागर की सतह के तापमान में वृद्धि को अल-निनो प्रभाव कहते हैं और माना जाता है कि भारत में औसत से कम बारिश के साथ इसका लेना-देना है. अगस्त में मौसम विभाग ने कमजोर अल-निनो रहने की 50 फीसदी संभाव्यता का पूर्वानुमान जताया था. इसके बाद 12 अगस्त को ऑस्ट्रेलिया के मौसम विभाग ने कहा कि प्रशांत महासागर में अल-निनो के नए सिरे से विकसित होने के कुछ संकेत मिले हैं.
गुप्ता के मुताबिक, असमान मानसून के पीछे बेशक अल-निनो एक कारण है. मौसम विभाग के पूर्व निदेशक पी.वी. जोसफ सहमति जताते हुए कहते हैं, ‘‘हालिया शोधों में पता चला है कि जिस साल अल-निनो मजबूत होता है, मानसून की बारिश में सुप्त चरण सामान्य से लंबी अवधि के होते हैं.’’
1901 से 2011 के बीच 20 बार पड़े सूखे में 13 या कहें 65 फीसदी का संबंध अल-निनो से रहा है. राजीवन हालांकि मानते हैं कि आधे अल-निनो का संबंध सूखे से होता है लेकिन वे इतना सीधा रिश्ता दोनों के बीच नहीं देखते. वे कहते हैं, ‘‘अल-निनो का असर उसकी तीव्रता, समय और समुद्र के गर्म होने के भौगोलिक वितरण पर निर्भर करता है.’’
पै का मानना है कि हाल के वर्षों में भारतीय उपमहाद्वीप में अल-निनो और मानसून का रिश्ता कमजोर हुआ है. वे बताते हैं, ‘‘इसका बढिय़ा उदाहरण इस सदी के दो बड़े अल-निनो हैं जो 1982-83 और 1997-98 में आए. पहले वाले में खतरनाक सूखा पड़ा जबकि दूसरे वाले में सामान्य से कुछ ज्यादा बारिश हुई.’’
अल-निनो से मुकाबलामजबूत अल-निनो के बावजूद 1997 में सामान्य से ज्यादा बारिश होने की पहेली को 1999 में इंडियन ओशियन डाइपोल (आइओडी) की खोज के साथ सुलझा लिया गया. हिंद महासागर के इंडोनेशिया के करीब स्थित पूर्वी छोर और अफ्रीकी तट पर स्थित पश्चिमी छोर पर भी अल-निनो जैसे प्रभाव देखने को मिलते हैं. समुद्र के गरम होने की यह परिघटना हिंद महासागर के विषुवतीय क्षेत्र में अप्रैल-मई से शुरू होती है और अक्तूबर में अपनी ऊंचाई पर पहुंचती है.
आइओडी के इस तरह दो चरण होते हैं-एक सकारात्मक और एक नकारात्मक. सकारात्मक चरण के दौरान अरब सागर गर्म होता है और भारत में ज्यादा वर्षा होती है. नकारात्मक चरण में ठीक उलटा होता है. बहेड़ा कहते हैं, ‘‘सकारात्मक आइओडी से अल-निनो का प्रभाव कम होता है और यह सामान्य मानसून को स्थापित करने में मदद देता है.’’ इस साल हालांकि सकारात्मक आइओडी संभवतः अक्तूबर में शुरू होगा जब मानसून का मौसम खत्म हो चुका होगा.
क्या हम मानसून के अच्छे दौर में हैं?जोसफ के मुताबिक, दशक-दर-दशक मानसून की बारिश में होने वाले बदलाव को दो चक्रीय दौर में बांटा जा सकता है-शुष्क और आर्द्र. मसलन, 1901 और 1930 के बीच के तीन दशक और 1961 से 1990 के बीच के तीन दशक सूखे के दौर थे. सूखे के इस दौर में आठ मानसून वर्षाविहीन रहे जबकि तीन मानसून अतिवृष्टि वाले रहे. इसी तरह 1871 से 1900 और 1931 से 1960 के तीन-तीन दशकों के दौरान सूखा मामूली रहा जो हर 15 साल में एक बार आता था.
जोसफ बताते हैं, ‘‘इस तरह 1871 से 1990 के बीच 120 वर्षों के दौरान शुष्क और आर्द्र के दो चक्र 30-30 साल पर बदल-बदल कर आते रहे. यानी 1991 से 2020 के बीच का दौर आर्द्र चक्र का दौर है और यही वजह है कि पिछले 23 साल में हमारे यहां सिर्फ तीन बार 2002, 2004 और 2009 में सूखा पड़ा है. हालांकि स्थितियां तब काफी मुश्किल हो जाएंगी जब हम 2021 से सूखे के चक्र में प्रवेश करेंगे.’’
चौंकाने वाला सह-अस्तित्वउत्तराखंड में 2013 की बाढ़ या फिर 2010 में दिल्ली की बारिश जैसी कुछ छिटपुट घटनाओं ने मानसून और पश्चिमी विक्षोभ के बीच के अजीबोगरीब रिश्तों की ओर विशेष ध्यान खींचा है. पश्चिम से पूरब की ओर आने वाली सूखी और ठंडी हवाएं जो उत्तर से होकर गुजरती हैं और हिमालयी क्षेत्र और उससे लगे हुए मैदानों को प्रभावित करती हैं, उन्हें पश्चिमी विक्षोभ कहते हैं.
इन हवाओं का मानसून पर मिश्रित असर होता है. मानसून के दौरान पश्चिमी विक्षोभ हिमालयी क्षेत्र में बारिश को बढ़ाता है, खासकर उत्तर-पश्चिमी भारत के इलाकों में इससे ज्यादा बारिश होती है. बाकी के भारत के लिए हालांकि पश्चिमी विक्षोभ का मतलब सूखी और ठंडी हवाओं का आना है जो मानूसन को कमजोर करती हैं.
वैज्ञानिकों के मुताबिक, मानसून की लहर जब उत्तरी भारत पर मजबूत होती है तो यह पश्चिमी विक्षोभ को रोके रखती है. यदि इस चरण में पश्चिमी विक्षोभ उत्तरी भारत से गुजरता है तो दोनों की आपसी क्रिया से भारी बारिश हो सकती है. गुप्ता कहते हैं, ‘‘दिल्ली और उत्तराखंड में दरअसल यही हुआ था. इस साल उत्तर प्रदेश में हुई भारी बारिश के लिए भी यही परिघटना जिम्मेदार है.’’
मानसून अरबी शब्द ‘‘मौसिम’’ से आया है जिसका अर्थ है हवाओं के रुख में मौसमी बदलाव. बरसों से वैज्ञानिक इस अजीबोगरीब परिघटना को समझने की कोशिश कर रहे हैं. जाहिर है, सदियों से बिना नागा हर साल पलट कर आने वाला मानसून टिकाऊ तो है लेकिन इसमें अंतर्निहित बदलाव अब भी वैज्ञानिकों के लिए चुनौती बना हुआ है. हिमालय की बर्फ से लेकर प्रत्याशित अल-निनो और अप्रत्याशित आइओडी तक इतने सारे विविध वातावरणीय कारकों से यह संचालित होता है कि मानसून के बारे में कोई अंतिम शब्द कह पाना अब भी बरसों दूर की कौड़ी है.