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गत 3 नवंबर को गैरसैंण में हुई कैबिनेट बैठक के बाद जमीन को लेकर मचे हो-हल्ले से सरकार भी सतर्क हो गई है. जैसे ही सरकार ने गैरसैंण में विधानसभा भवन बनाने और हर साल एक शीतकालीन सत्र करने का ऐलान किया, वैसे ही बड़े पैमाने पर भू-माफिया भी गैरसैंण में सक्रिय होने लगा. कहीं हाल गौचर जैसा न हो जाए, इससे बचने के लिए सरकार ने गैरसैंण में जमीन की खरीद-फरोख्त पर ही रोक लगा दी है. गौचर में 1994 में हवाई पट्टी बनाने की घोषणा के समय जमीन के दाम लखनऊ के बराबर पहुंचे थे. कैबिनेट बैठक के बाद 9 नवंबर को मुख्यमंत्री ने अगले आदेश तक गैरसैंण में जमीन की खरीद-फरोख्त पर रोक लगा दी है.
9 नवंबर, 2000 को उत्तराखंड राज्य गठन के बाद देहरादून को अस्थायी राजधानी बनाया गया और राजधानी बनते ही देहरादून की अधिकांश जमीन भू-माफिया के कब्जे में चली गई. स्थिति यह हुई कि शहर के आसपास सचिवालय, मंत्री आवास, राजभवन, विभिन्न सरकारी कार्यालय और आवासीय कॉलोनियां बनाने के लिए जमीन ही नहीं मिली. इससे सबक लेते हुए अब सरकार ने यह फैसला किया है.
राजधानी बनने के बाद पहले बीजेपी की अंतरिम सरकार और बाद में कांग्रेस की नारायणदत्त तिवारी सरकार (2002-2007) तक जमीन की इस लूट पर मौन रही. इन सात सालों के दौरान देहरादून शहर से लगे 30 वर्ग किमी से भी बड़े क्षेत्र में, जिसे अब सरकार आउटर देहरादून का नाम दे रही है, में सबसे अधिक जमीन का खेल हुआ. देश की नामचीन रियल एस्टेट कंपनियों सहित दो दर्जन से अधिक बिल्डर इस समय देहरादून में सक्रिय हैं, जिन्होंने यहां सरकार द्वारा तय किए गए सर्कि ल रेट से ही जमीन खरीदी है, लेकिन अब इसी जमीन को सर्किल रेट से आठ से दस गुना महंगे दामों में बेचा जा रहा है. राजा रोड स्थित होटल रंगमहल के मालिक शेख अमीर अहमद ने देहरादून को रंग बदलते देखा है. बकौल शेख राज्य गठन के चार साल पहले 1996 में डालनवाला में जो मकान उन्होंने 1 लाख 12 हजार में खरीदा था, आज प्रॉपर्टी डीलर उसकी कीमत 70 लाख रु. लगा रहे हैं.
आज देहरादून 25-30 किमी दूर तक फैल गया है. राजपुर रोड स्थित द्रोण प्रोपर्टीज के अनूप कुमार कहते हैं कि देहरादून में प्रॉपर्टियों का पूरा खेल दिल्ली-नोएडा के बिल्डरों ने खेला है. मेहूंवाला, जोगीवाला, डोईवाला सहित बाईपास के सैकड़ों गांवों की खेती खत्म कर वहां प्लाटिंग हो गई है, जबकि नगर निगम के बाहर, खेती की जमीन का लैंड यूज चेंज करना इतना आसान नहीं है. लेकिन बाहर के बड़े बिल्डर कुछ भी आसानी से कर लेते हैं. बकौल अनूप देहरादून मसूरी विकास प्राधिकरण भी इन बिल्डरों के सामने नतमस्तक रहता है.
देहरादून शहर में निम्न-मध्यम आयवर्ग के लोगों के घर के सपने को साकार करने की जिम्मेदारी भी इसी प्राधिकरण के पास है, लेकिन प्राधिकरण एक भी हाउसिंग प्रोजेक्ट नहीं बना पाया. प्रस्तावित योजनाएं सालों से लंबित हैं. जबकि बिल्डर कई गुना दाम पर घर और जमीन का सौदा कर रहे हैं. देहरादून सहित राज्य के अन्य भागों में मची जमीन की लूट को रोकने के लिए निवर्तमान बीजेपी सरकार के मुख्यमंत्री भुवन चंद्र्र खंडूड़ी ने 2008 में बाहरी व्यक्तियों के उत्तराखंड में जमीन खरीदने-बेचने पर रोक लगा दी थी. लेकिन 2011 में उत्तराखंड हाइकोर्ट ने इसे खारिज कर दिया. गैरसैंण में जमीन की खरीद-फरोख्त रोकने के लिए सरकार ने अभी तक कोई कानून नहीं बनाया है.
मुख्यमंत्री के आदेश के बाद जमीन को लेकर मची हलचल फिलहाल थम गई है. लंबी कवायद और राज्य गठन के 12 साल बाद भले ही राज्य सरकार ने गैरसैंण में साल में एक सत्र चलाने और गैरसैंण के विकास का मास्टर प्लान बनाने का वायदा किया हो, लेकिन असल में गैरसैंण अब तक वंचित क्षेत्र रहा है. राज्य आंदोलनकारी और गैरसैंण निवासी पुरुषोत्तम असनोड़ा कहते हैं, ''सरकार ने जमीन की खरीद-फरोख्त पर रोक लगाकर अच्छा फैसला लिया है. लेकिन यहां जमीन की कोई कमी नहीं है. दीक्षित आयोग ने राजधानी के लिए 480 हेक्टेयर जमीन की जरूरत बताई है, जो गैरसैंण और आसपास के क्षेत्रों में आसानी से उपलब्ध है. ''
गैरसैंण के सामाजिक कार्यकर्ता मनीष मठपाल कहते हैं, ''गैरसैंण से लगातार हल्द्वानी, रुद्रपुर, काशीपुर, हरिद्वार और देहरादून के लिए पलायन हो रहा है. जिनके पास गुजर-बसर करने लायक पैसा है, वे गांव छोड़कर मैदान में बस रहे हैं. सरकार अगर इच्छाशक्ति दिखाए तो पहाड़ के केंद्र में बसे गैरसैंण से सरकार चलेगी. ''