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36 साल पहले दिल्ली में एक दंगा हुआ था. जिसमें करीब तीन हजार लोग मारे गए थे. तब इलज़ाम लगा था कि दंगे के दौरान पुलिस जानबूझ कर गायब हो गई थी. उसे 84 के दंगे के रूप में याद किया जाता है. अब उत्तर-पूर्वी दिल्ली में पिछले तीन दिनों में जो कुछ हुआ उससे नाराज़ दिल्ली हाई कोर्ट ने बुधवार को कहा कि वो दिल्ली में फिर से 84 नहीं होने देंगे. दिल्ली हाई कोर्ट का बयान ये ज़ाहिर करता है कि दंगाइयों से निपटने को लेकर वो दिल्ली पुलिस से नाराज है.
84 यानी दिल्ली का 84. दर्द, नफरत, बदला, गुस्सा, बेबसी, बेचारगी और बर्बादी की ये वो दस्तान थी जिसका हर लफ्ज खून की स्याही में डूबा था. ये वो दास्तान थी, जहां इंसान हैरान था. उस इंसान से जो खुद इंसानी बस्तियां जलाने में सबसे आगे रहा. दंगे ने तब दिल्ली में 2733 लोगों की जान ली थी. बदले के नाम पर हैवानियत की दास्तान का ये मंज़र यानी 84 का 31 अक्तूबर. इसी 84 का ज़िक्र दिल्ली हाईकोर्ट को करना पड़ा और कहना पड़ा कि दिल्ली को एक और 84 नहीं बनने दे सकते.
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84 को 36 साल बीत गए. दिल्ली का पूरा हुलिया बदल गया. दिल्ली बदली. दिल्लीवाले बदल गए. यहां तक कि दिल्ली पुलिस भी बदली. तब दिल्ली पुलिस में 40 हज़ार के करीब जवान अफसर हुआ करते थे. आज ये तादाद 90 हज़ार के पार पहुंच गई है. पिछले चार दिनों से उत्तर पूर्वी दिल्ली के जो इलाके दंगों की भेंट चढ़े हुए हैं. उस उत्तर पूर्वी ज़िले की कुल आबादी 30 लाख से ज़्यादा है. इस ज़िले के अंदर 12 थाने आते हैं. इन थानों में 3000 पुलिसवाले तैनात हैं.
उत्तर पूर्वी दिल्ली के करीब करीब 12 पुलिस थाने से लगते इलाकों में रविवार से ही तनाव था. हर एक को पता था कि हालात खराब हो रहे हैं. सड़कों का मंज़र चीख चीख कर कह रहा था कि कुछ करो, वरना देर हो जाएगी. लेकिन सबकुछ जानने समझने के बावजूद उत्तर पूर्वी ज़िले के महज़ 3 हज़ार पुलिसवाले 12 इलाकों को संभाल रहे थे. संभालना भी क्या एक तरह से तमाशबीन बने हुए थे. गलती इन 3 हज़ार पुलिसवालों की भी नहीं थी. ये तादाद में कम थे और सामने दंगाई इनसे कहीं कहीं ज़्यादा. मगर इसके बावजूद पूरे रविवार और फिर पूरा सोमवार. इन्हीं 3 हज़ार जवानों के सहारे इलाके को छोड़ दिया गया. नतीजा लाशों की बढ़ती गिनती और शोलों में तब्दील घरौंदों की इन तस्वीरों की शक्ल में सामने आई.
अब सवाल ये है कि आखिर रविवार और सोमवार यानी पूरे 48 घंटे तक सरकार और पुलिस ने हालात क्यों बिगड़ने दिए? दिल्ली हाईकोर्ट ने बुधवार को कहा कि पुलिस को नौकरशाहों के बजाए आम लोगों की मदद करनी चाहिए. शायद हाईकोर्ट का इशारा दिल्ली में ट्रंप के दौरे की तरफ था. ट्रंप सोमवार शाम को दिल्ली पहुंचे थे. लेकिन उनकी सुरक्षा के लिए दिल्ली पुलिस के 10 हज़ार से ज़्यादा जवानों की ड्यूटी रविवार को ही असाइन कर दी गई थी. दिल्ली पुलिस के हज़ारों जवानों के अलावा ट्रैफिक पुलिस, स्वॉट कमांडोज, स्नाइपर्स, बॉम्ब स्क्वायड, ड्रोन और तमाम आला अफसरों समेत दिल्ली के कोतवाल यानी पुलिस कमिश्नर अमूल्य पटनायक ट्रंप की ड्यूटी बजाने में ही मशगूल थे.
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सोमवार को एक तरफ उत्तर पूर्वी दिल्ली सुलगनी शुरु हो चुकी थी तो वहीं दूसरी तरफ दिल्ली के तमाम आला पुलिस अफसर ट्रंप की सुरक्षा में बिज़ी रहे. सोमवार रात यूं ही गुज़र गई. दिल्ली पुलिस के कोतवाल या उनके सीनियर साथी कोई भी मौके पर नहीं पहुंचा. मंगलवार पूरे दिन ट्रंप दिल्ली में थे. दिल्ली पुलिस के कोतवाल और उनके साथी पूरे दिन फिर ट्रंप में बिज़ी रहे. उधर, तब तक उत्तर पूर्वी दिल्ली में दंगाईयों का दायरा लगातार बढ़ता जा रहा था. रात करीब 11 बजे ट्रंप दिल्ली से रवाना हो जाते हैं. उनके जाने के बाद तब सरकार और पुलिस को याद आता है कि दिल्ली का एक इलाका जल रहा है.
फिर क्या था, मंगलवार को अचानक मीटिंग का दौर शुरु हो जाता है. गृहमंत्री, मुख्यमंत्री, उप राज्यपाल, पुलिस कमिश्नर सभी अब अचानक एक्टिव नज़र आने लगते हैं. 48 घंटे बाद उन्हें अहसास होता है कि इलाके में और फोर्स भेजनी चाहिए. आनन-फानन बाकी ज़िलों की पुलिस, रैपिड एक्शन फोर्स, अर्ध सैनिक बल और यहां तक की बीएसएफ को भी मैदान में उतार दिया जाता है. दंगे से सबसे ज़्यादा प्रभावित चार इलाकों में कर्फ्यू लगा दिया जाता है. दंगाईयों को देखते ही गोली मारने का हुक्म दिया जाता है.
खुद एनएसए अजीत डोभाल मंगलवार रात दंगा ग्रस्त इलाके का दौरा करने निकल पड़ते हैं. और तब पहली बार दिल्ली के पुलिस कमिश्नर अमूल्य पटनायक भी इस इलाके में आते हैं डोभाल के साथ. सरकार और पुलिस के देर से ही जागने. पर जागने का असर अब दिखने लगता है. मंगलवार रात से छिटपुट घटनाओं को छोड़कर हालात काबू में नज़र आने लगते हैं. हालांकि तनाव अब भी बराबर बना हुआ है. काश, सरकार और पुलिस यही काम रविवार को ही कर लेती. तो दिल्ली हाईकोर्ट को 84 की दिल्ली को याद नहीं करना पड़ता.