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पिछले हफ्ते आई भारतीय रिजर्व बैंक की वार्षिक रिपोर्ट को उस नोटबंदी पर एक फैसले के तौर पर देखा जा सकता है जिसे नरेंद्र मोदी सरकार ने अपने सबसे बड़े प्रयासों में से एक बताया था. सरकार ने अचानक भारत की कुल प्रचलित मुद्रा में से 86 प्रतिशत नोटों को प्रचलन से बाहर घोषित कर दिया था. नोटबंदी की घोषणा के 22 महीने बाद अब जाकर यह बताया गया है कि वास्तव में उसके क्या परिणाम रहे, हालांकि परिणाम उत्साहजनक नहीं हैं.
जिन 15.3 लाख करोड़ रुपए मूल्य के नोटों को रद्द किया गया था उनमें से 99 प्रतिशत से अधिक नोट बैंकिंग सिस्टम में वापस आ गए. जब तक सरकार कुछ और नहीं बताती तब तक हम यही मान लेते हैं कि चूंकि सारा पैसा वापस बैंकों में आ चुका है इसलिए काला धन तो है ही नहीं. हालांकि हमें पता है कि यह हकीकत नहीं है.
उस समय बताया गया था कि करीब तीन लाख करोड़ रुपए सिस्टम में कभी वापस ही नहीं आएंगे और अगर ऐसा हुआ होता तो यह केंद्र सरकार के लिए अप्रत्याशित उपलब्धि होती. अब सरकार यह पता लगाने के भारी-भरकम काम में जुट गई है कि बैंकिंग प्रणाली में लौटकर आए पैसे में से कितना काला धन था.
प्रधानमंत्री मोदी न तो भारतीय लोगों की चतुराई की थाह ले पाए और न ही यह अंदाजा लगा पाए कि देश का बैंकिंग सिस्टम किस हद तक बिका हुआ है. यह समय मूल्यांकन का समय है कि उनके इस साहस, जिसे कुछ लोग ढिठाई भी कहते हैं, ने देश का कुछ भला किया भी या नहीं?
भारतीय रिजर्व बैंक की रिपोर्ट ने पुराने जख्मों को फिर से हरा कर दिया है. 8 नवंबर 2016 को भारतीय अर्थव्यवस्था पर हुए आघात के बाद लोगों को निजी तौर पर जो परेशानियां झेलनी पड़ीं, बैंकों के बाहर अंतहीन लंबी कतारें, खत्म होती नौकरियां और भारत के लिए सबसे ज्यादा रोजगार का इंतजाम करने वाले अनौपचारिक क्षेत्र और कृषि पर पड़ी मार, सबकी यादें ताजा हो गईं.
सरकार भाग्यशाली है कि भारतीय, विशेष रूप से वंचित वर्ग को बड़े सदमे चुपचाप झेल जाने की आदत है. नकदी-प्रभुत्व वाली किसी अन्य अर्थव्यवस्था में सरकार ने इस तरह के कदम उठाए होते, तो वहां निश्चित तौर पर दंगे हो जाते.
नोटबंदी की घोषणा के वक्त सरकार ने इसके तीन उद्देश्य गिनाए थे--काला धन की समाप्ति, नकली नोटों का पता लगाना और आतंकवाद की फंडिंग रोकना. सरकार ने एक तीर से कई शिकार करने के दावे किए थे.
दुर्भाग्य से, सरकार का तीर एक भी शिकार नहीं कर सका. कहा जा रहा है कि काला धन अब बैंकों में पहुंच गया है लेकिन अभी तक उसकी पहचान नहीं हुई है. चूंकि सारा पैसा वापस आ गया, तो अर्थव्यवस्था में नकली नोटों का अस्तित्व भी अब एक रहस्य है.
आतंकवाद में कोई कमी नहीं आई और रिपोर्ट बताती है कि पहले के मुकाबले अर्थव्यवस्था में आज ज्यादा नोट सर्कुलेशन में हैं. यानी, अर्थव्यवस्था के डिजिटलीकरण के बड़े-बड़े दावे भी खोखले ही हैं.
प्रधानमंत्री मोदी 2014 में, सुशासन और भ्रष्टाचार पर प्रहार के वादे के साथ सत्ता में आए थे. वैसे यह भी सच है कि उन्होंने काले धन की पुरानी बीमारी से निजात के लिए कई प्रयास भी किए हैं. नोटबंदी को बिना तैयारी के हुआ एक सनकी प्रयास बताकर खारिज किया जा सकता है लेकिन प्रधानमंत्री को करीब से जानने वाले लोग मुझे बताते हैं कि वह जो कुछ भी करते हैं, वह कभी यूं ही नहीं होता.
पहली नजर में ऐसा लग सकता है कि उन्होंने बिना अच्छे से सोचे-समझे अचानक कोई फैसला कर लिया है, लेकिन बाद में आपको समझ में आता है कि वह निर्णय तो किसी बड़ी योजना का हिस्सा था और नोटबंदी के साथ भी ऐसा ही कुछ था.
उन्होंने एक विशेष जांच दल गठित किया, काले धन पर अंकुश लगाने के लिए बेनामी लेनदेन (निषेध) संशोधन अधिनियम लेकर आए, भारत से निकलकर काला धन विदेशों में न जमा होने पाए इसके लिए उन्होंने साइप्रस, सिंगापुर और मॉरिशस जैसे टैक्स हेवन समझे जाने वाले देशों के साथ कर संधियों और सूचनाओं को साझा करने से जुड़े समझौतों की शर्तों की समीक्षा की और काले धन को वापस सिस्टम में लाने के लिए स्वैच्छिक आय घोषणा योजना लेकर आए. नोटबंदी के रूप में काले धन रूपी दैत्य पर अंतिम प्रहार किया गया था.
साथ ही, हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि मोदी एक राजनेता हैं. उनके सभी कार्यों के आर्थिक औचित्य के अलावा राजनीतिक अर्थ भी होते हैं और नोटबंदी भी एक राजनीतिक फैसला था. उन्होंने एक संकेत दिया कि वे बेईमानी से मालामाल हुए लोगों को छोड़ने वाले नहीं और उनसे पैसा छीनकर गरीबों की भलाई में लगाएंगे. इसका फायदा भी मिला. उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में भाजपा को मिली भारी जीत इसका प्रमाण है.
सरकार द्वारा शुरू की गई कई योजनाओं के जरिए 44,000 करोड़ रुपए का काला धन वापस भी आया और कर वसूली में भी बढ़ोतरी हुई है. इसकी सराहना होनी चाहिए लेकिन नोटबंदी ने जितना दर्द दिया, क्या उसके अनुरूप लाभ हुआ? इस पर बहस-मुबाहिसे का दौर जारी है.
डिप्टी एडिटर एम.जी. अरुण और सीनियर एडिटर श्वेता पुंज द्वारा तैयार हमारी कवर स्टोरी, क्या खोया, क्या पाया, नोटबंदी के परिणामों और काले धन के खिलाफ युद्ध को रेखांकित करती है. हमारे पास पांच अर्थशास्त्र विशेषज्ञों का एक पैनल भी है जिन्होंने इस विषय की सूक्ष्म विवेचना की है.
यह बात समझ लेनी चाहिए कि अवैध धन के खिलाफ युद्ध एक दीर्घकालिक प्रक्रिया है. इसे रातोरात नहीं हासिल किया जा सकता. अब जबकि हम नोटबंदी से उबर चुके हैं, तो उसका एक छोटा सा ही सही पर सुखद परिणाम भी दिख रहा है. प्रत्यक्ष करदाताओं की संख्या, चार करोड़ से बढ़कर करीब पौने सात करोड़ हो गई है.
भारत के लोग कर चुकाने से कतराने के लिए कुख्यात हैं. क्या आप कल्पना कर सकते हैं, हमारे देश में केवल 60,000 व्यक्ति ही ऐसे हैं जिनकी कुल सालाना आय 1 करोड़ रुपए है? हमें अपने चारों ओर जितनी दिखावटी फिजूलखर्ची नजर आ जाती है उसे देखते हुए यही कहा जा सकता है कि हमें एक ईमानदार राष्ट्र बनाने के लिए सरकार को अभी बहुत कुछ करने की जरूरत है. अतीत में, किसी भी अन्य सरकार ने काले धन पर प्रहार का ऐसा संकल्प नहीं दिखाया है.
सरकार के दृष्टिकोण में मूल दोष यह है कि इसके सभी प्रयास काले धन की आपूर्ति को कम करने की दिशा में हैं; भ्रष्ट लोगों द्वारा काले धन की मांग को कम करने की दिशा में उसने बहुत कम प्रयास किए हैं. इसे केवल मिनिमम गवर्नमेंट या न्यूनतम सरकार के वादे को पूरा करके किया जा सकता है, एनडीए सरकार अपना यह वादा पूरा नहीं कर सकी. इसलिए इस पर कोई हैरानी नहीं होनी चाहिए कि सारा काला धन वापस सिस्टम में आ गया है.
सरकार उन 18 लाख बैंक खातों को भी खंगाल रही है जिनमें नवंबर 2016 के तुरंत बाद बहुत ज्यादा पैसे जमा हुए. ऐसे 3,00,000 से अधिक लोगों को आयकर नोटिस भेजे गए हैं जिन्होंने अपने बैंक खातों में 10 लाख रुपए तक जमा किए थे लेकिन उन्होंने आयकर रिटर्न नहीं दाखिल नहीं किया था.
सरकार को इन उच्च मूल्य वाली जमाराशि की निगरानी और काले धन को चिन्हित करने के लिए आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस-आधारित टूल्स की मदद लेने की जरूरत है. और यह सब, लोगों को आतंकित किए बिना या फिर अर्थव्यवस्था की गति पर ब्रेक लगाए बिना किया जाना चाहिए. इससे सांप भी मर जाएगा और लाठी भी नहीं टूटेगी यानी फायदा तो होगा ही, लोगों को कोई परेशानी भी नहीं झेलनी पड़ेगी.
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