
उत्तराखंड की मशहूर लोकगायिका कबूतरी देवी का हाल ही में निधन हो गया. उनके जीवन और गायन पर आधारित लेख के पहले हिस्से में हमने जाना कि उन्होंने अपने गायन से कैसे पहाड़ के लोक को आवाज दी. उनके गायन में प्राकृतिक दृश्यावलियों से लेकर प्रेम, वियोग और तात्कालिक सामाजिक चुनौतियों की भरमार रही. इसी के चलते उन्होंने समान समाज और संस्कृति होने के कारण उत्तराखंड और नेपाल में भी भरपूर ख्याति बटोरी. (पहला हिस्सा पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें )
कबूतरी के गायन के इस पहलू पर बहस हो सकती है कि एक लोकगायिका होने के नाते उनके गायन में लोक किस तरह से आया है, उसे बदलने की क्या कोशिशें हुई हैं और वह कितना जनपक्षधर रहा है. अगर हम कबूतरी के गायन की प्रतिध्वनियों को सुनें, उत्तराखंड की लोककलाओं की परंपरा की बात करें, उसमें कबूतरी के योगदान को टटोलें, उनके जाने के बाद उत्तराखंड की लोककलाओं की नियति पर बात करें और इसे गायन के व्यापक परिप्रेक्ष्य में लोक या शास्त्र के रूप में देखें तो हमारे सामने अलग-अलग मत आते हैं.
उत्तराखंड के लोक में कबूतरी की दस्तक
उत्तराखंड की लोकसंस्कृति, लोककलाओं का अध्ययन करने वाले डॉ. गिरिजा पांडे बताते हैं कि उत्तराखंड के पशुपालक और कृषिपोषित समाज के लिए लोकगायन मनोरंजन का साधन भी रहा है और लोकसाहित्य को जीवन शैली से अलग करके नहीं देखा जा सकता है. समाज की कठिनाइयों और उल्लास की अभिव्यक्तियां लोकसंगीत से ही जाहिर होती हैं. संस्कृतिकर्मी और पत्रकार राजीव नयन बहुगुणा इसे कष्टप्रद जीवन की पीड़ा भुलाने का साधन (जन दिया बौज्यू छाना बिलौरी, छाना बिलौरी को घाम...) मानते हैं. बहुगुणा कहते हैं कि जिस समाज में जीवन जितना कष्टप्रद होगा लोककलाएं उतनी समृद्ध होंगी. वह इसके लिए उत्तराखंड और राजस्थान के संघर्षपूर्ण जीवन और समृद्ध लोककलाओं का उदाहरण देते हैं.
गिरिजा पांडे कहते हैं कि जब पहाड़ों पर पूंजीवादी व्यवस्था नहीं थी तो खाली समय में (दलित) कलाकार लोगों के पास जाकर गीत गाते थे और बदले में अनाज पाते थे. यह सहअस्तित्व का लोक है. इसी समाज से आईं कबूतरी के गीतों में पहाडों की खूबसूरती और महिलाओं का पक्ष उजागर हुआ. प्रवासियों के लिए यह नॉस्टैलजिक अनुभव था. बाद में आर्थिकी बदलने से यहां का लोक भी बदला और लोककलाओं का स्वरूप भी. वह कहते हैं कि जब लोगों ने रेडियो में फरमाइशी गीतों के कार्यक्रम सुने तो कबूतरी से भी ऐसी ही मांग होने लगी, उन्होंने भी एक कलाकार होने के नाते अपने श्रोताओं को संतुष्ट करने को हिंदी गीत और गजलें भी गाईं.
संस्कृति और मीडिया के अध्येता डॉ. भूपेन ने कबूतरी देवी का संभवत: आखिरी इंटरव्यू (सामुदायिक रेडियो- ‘हेलो हल्द्वानी’ के लिए) भी लिया था, जिसके कुछ महीनों बाद ही उनकी मृत्यु हो गई. भूपेन कहते हैं कि कबूतरी के गायन में समकालीन गायकों के मुकाबले भगवान की आराधना या प्रभु वर्ग की शादियों में गाए जाने वाले गीत नहीं हैं. उनका अधिकांश गायन प्रकृति (पहाड़ौं ठंडो पाणि, बोलि कसि मीठी बाणि..) और वियोग केंद्रित है.
उत्तराखंड के मूल निवासियों की पहली आवाज
उत्तराखंड के उभरते रंगकर्मी और साहित्यकार डॉ. अनिल कार्की कबूतरी के गायन को दो देशों की साझी विरासत, दोस्ती के इतिहास, उत्तराखंड के रहवासी या मूल निवासी (दलित) के साथ ही निम्न वर्ग की पहली आवाज, तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियों के चित्रण, प्रकृति के स्वर से सामंजस्य बिठाने वाली और श्रम के सहउत्पादन (बायप्रोडक्ट) की आवाज के रूप में देखते हैं. वह बताते हैं कि कबूतरी के समय में शांति शाह, बीना तिवारी, भाषा पंत, शांति सुआकोटी जैसी गायिकाएं सक्रिय थीं. कबूतरी इन सबसे बड़ी गायिका इसलिए बनीं क्योंकि वह रहवासी की आवाज बनीं. उन्होंने अभिजन घर की महिलाओं के गीतों के केंद्र में आने के क्रम को तोड़ा.
कबूतरी से पहले उत्तराखंड में गोपाल बाबू गोस्वामी ने ‘घुघूति नि बासा...’ गाया, जिसमें ‘स्वामी मेरा लद्दाख...’ में अप्रत्यक्ष रूप से सैनिक की पत्नी का वियोग यानी मध्य वर्ग का चित्रांकन है जो ललित मोहन जोशी के गायन तक प्रकट रूप में आ जाता है. कबूतरी के ‘आज पनि जौं-जौं’ में बेरोजगारी के चलते मजदूर का पलायन भी केंद्र में है. उनका गायन बताता है कि केवल पोषित पतियों की पत्नियों का ही वियोग नहीं होता, मजदूर की पत्नी का भी होता है. अनिल कहते हैं कि कबूतरी उत्तर-पूर्वी उत्तराखंड से लेकर पश्चिमी नेपाल के समाज और संस्कृति से अपने गायन के संस्कार लेती हैं, इसलिए उन्हें दोनों देशों में इतनी मोहब्बत मिली है.
सामाजिक अंतर्विरोध या विद्रोह की आवाज गायब
दूसरी ओर, युवा आंबेडकरवादी और मार्क्सवादी अध्येता मोहन आर्या कहते हैं कि उन्होंने कबूतरी को बहुत नहीं सुना है, लेकिन जितना भी सुना है, उसमें सामाजिक अंतर्विरोध या उसके प्रति विद्रोह नजर नहीं आता. वह कहते हैं कि उत्तराखंड के ऋतुरैण (मौसम के गीत) में भी दलित अपने प्रभु वर्ग की जय-जयकार ही करता है. शादियों में (दलित) छोलिया नृतक को पैसा और दाद तो मिलती है, पर खाना उसे कोने में बिठाकर ही दिया जाता है. दलितों को इस सामाजिक भेदभाव का अपमानबोध होना जरूरी है. उत्तराखंड की एक लोककला- छोलिया नृत्य को बचाने के लिए बनी सरकारी कमेटियों में दलित नृतक को छोडकर बाकी सभी लोग होते हैं. इस तरह श्रम और कला के व्यापार में दलित जातियों का नुकसान ही होता है. वह कहते हैं कि जिस दिन सवर्ण अपनी शादी में खुद ही छोलिया नृत्य करने लग जाएंगे, उस दिन इस कला को बचाने की चिंता समाज को नहीं करनी पड़ेगी.
उत्तराखंड के लोकजीवन में दलित
कबूतरी इस मामले में महत्वपूर्ण हैं कि उनके गायन में पहाड़ पर जीवन उसी सच्चाई से आता है जिस तरह से शैलेश मटियानी की कहानियों में आता है. इसी समाज की लोककलाओं की बात करें तो इसे आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी दलित समुदाय और महिलाओं के कंधों पर ही रही है फिर चाहे वह ऋतुरैण गाना (मौसम के आगमन और नई फसलों का काम पूरा होने पर दलित महिलाओं द्वारा अनाज के बदले में सवर्णों के घर जाकर गाए जाने वाले गीत) हो छोलिया नृत्य (सवर्णों की शादी और दूसरे खुशी के मौकों पर तलवार और ढाल के साथ दलित पुरुषों द्वारा किया जाने वाला युद्धात्मक नृत्य) करना. इसके अलावा न्यौली (घसियारियों (घास काटने वाली महिलाओं) द्वारा गाए जाने वाले विरह के गीत), चांचरी जैसे सामूहिक गीत आदि. देश के दलितों के मुकाबले उत्तराखंड के दलित समुदाय की अपनी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत रही है. डॉ. अनिल इसे चिंताजनक मानते हैं कि बावजूद इस परंपरा के उत्तराखंड के साहित्य से दलित और महिला विमर्श गायब रहा है. वह कहते हैं कि कबूतरी को तो आकाशवाणी का सहारा मिल गया, लेकिन शांति सुआकोटी, पार्वती उप्रेती, कमला सुआकोटी को ऐसा प्रोत्साहन नहीं मिल सका. इस लिहाज से, उत्तराखंड की लोककलाओं के अलावा साहित्यिक जगत भी दलितों और महिलाओं के साथ न्याय नहीं कर सका है.
ये कलाएं दलितों की मुक्ति की वाहक नहीं
वहीं, उत्तराखंड में शिल्पकार समुदाय के लोककलाओं को ढोने की परंपरा को मोहन आर्या सकारात्मक नजरिए से नहीं देखते. उनका मानना है कि लोकजीवन को आवाज देकर कबूतरी देवी कभी सेलिब्रिटी नहीं बन सकीं, हमेशा गरीबी में रहीं या दूसरे दलित कलाकार भी सामाजिक अवरोधों की वजह से ऊंचा मुकाम हासिल नहीं कर सके. न ही दलित समुदाय अपने पेशे के तौर पर नृत्य, गायन या कला से विद्रोह कर सका. वह उत्तराखंड के दलितों के संदर्भ में कहते हैं कि कई बार लोककलाओं को लेकर अतीतग्रस्तता इतिहासबोध को पैदा नहीं होने देती है. वह मानते हैं कि गायन, नृत्य एक समय में दलितों के लिए आजीविका का साधन रहे होंगे, लेकिन आज के समय में अगर रोजगार और आजीविका के बेहतर विकल्प उपलब्ध हैं तो वे इन्हें क्यों अपनाएं? साथ ही वह कहते हैं कि अगर लोककलाओं को बचाना है तो उसकी जिम्मेदारी सिर्फ एक समुदाय के कंधों पर नहीं होनी चाहिए. अगर समाज को इन कलाओं को बचाने की चिंता है तो सभी वर्गों को इसकी जिम्मेदारी लेनी होगी.
मोहन आर्या आगे कहते हैं कि दलित समुदाय लोककलाओं को जीवन के दूसरे फलक तक ले जाने में असफल रहा है. वह उदाहरण देते हैं कि उत्तराखंड में लोहार और छोलिया नृत्य करने वाले (दोनों दलित समुदाय से) के हाथों में तलवार रही, लेकिन उन्हें कभी इसका इस्तेमाल (अन्यायपूर्ण समाज में विद्रोह) करना नहीं आया. इसका इस्तेमाल हमेशा क्षत्रियों ने अपने हितों के लिए किया. वह कहते हैं कि लोककलाएं अपने स्वरूप में सामंती रही हैं, इसलिए इनका खत्म होते जाना सांस्कृतिक रूप से चिंताजनक तो हो सकता है, लेकिन जो समाज इन कलाओं को ढो रहा था, उसके विकास के लिए इनका विलुप्त होना अच्छा ही है. वह कहते हैं कि ऐसी कला दलितों की मुक्ति की वाहक नहीं, गुलामी की निशानी है, क्योंकि ये कलाएं उनके सामाजिक और राजनीतिक विकास में बाधक रही हैं. वह उत्तराखंड में दलित जागरण न होने की एक वजह इसी बाधित मानसिक विकास को भी मानते हैं.
लोक का महिमामंडन सही नहीं
दूसरी, डॉ. भूपेन लोकजीवन और लोककलाओं को व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखते हैं. वह कहते हैं कि लोक हमेशा अनुकरणीय या जनपक्षधर नहीं होता. लोक में अनगढ़, पिछड़ापन और शोषित विचार भी उपस्थित हो सकता है. वह जर्मनी के मशहूर नाटककार और लोककलाओं पर काम करने वाले विद्वान बर्तोल्त ब्रेष्ट के कथन को दोहराते हैं कि लोग अक्सर लोकजीवन को नहीं जीना चाहते हैं. भूपेन कहते हैं कि इसी वजह से लोक को महिमामंडित करना उचित नहीं है, उसे नई दिशा दी जा सकती है, उसमें बराबरी की बात हो सकती है. लोक को न तो पूरी तरह स्वीकार किया जाना चाहिए और न ही इसे संपूर्णता में दुत्कारा जाना चाहिए. उनके मुताबिक उत्तराखंड के लोकगीत जिस सामाजिक ढांचे में बने, उस ढांचे को नष्ट होना चाहिए, न कि लोककलाओं और कोलगीतों को. वह कहते हैं कि कला और संगीत के बिना समाज की कल्पना नहीं की जा सकती और न ही यह आधुनिकता की ओर बढ़ सकता है. साथ ही वह यह भी मानते हैं कि अगर कोई समाज लोककलाओं को अपनी थाती मानता है तो इसे सहेजने की जिम्मेदारी पूरे समाज की होनी चाहिए न कि जाति विशेष पर इसकी जिम्मेदारी डाल देनी चाहिए.
कबूतरी देवी के संदर्भ में हम पाते हैं कि वह अपने गायन से उत्तराखंड के लोक की, अपने समाज की आवाज बन जाती हैं. ऐसे में अगर कलाकार लोक का सजीव चित्रण करने में सफल है तो क्या उसकी भूमिका वहां पर समाप्त हो जाती है? या उससे लोक को बदलने की अपेक्षा भी करनी चाहिए? कबूतरी देवी के निधन के साथ ही यह प्रश्न भी विचारणीय हो जाता है कि उत्तराखंड के लोक में इस समय किस तरह का गायन हो रहा है, क्या वह वहां के समाज की अपेक्षाओं का प्रतिनिधित्व करता है या वैश्वीकरण की चकाचौंध में कुछ देख पाने या दिखा पाने में असमर्थ है और मुंबइया फिल्मों की संस्कृति को ढो रहा है? दुनिया भर की लोककलाओं के लिए वैश्वीकरण का बुलडोजर इस समय की सबसे बड़ी चुनौती है. इन सवालों को उत्तराखंड की लोकसंस्कृति के जानकार को कैसे देखते हैं, यह हम लेख के अगले हिस्से में समझने की कोशिश करेंगे.
कबूतरी देवी का संभावित आखिरी इंटरव्यू
(लेख के दो हिस्सों में हमने कबूतरी देवी के जीवन संघर्ष और उनके गीतों में लोक के चित्रण को समझने की कोशिश की. इस लेख के तीसरे और अंतिम हिस्से में हम कबूतरी देवी के गायन में आए लोक को उत्तरांखड के ही मशहूर जनकवि गिरीश तिवाड़ी उर्फ गिर्दा के गीतों में आए लोक के सापेक्ष देखेंगे. इसके साथ ही कबूतरी के गायन को जन, लोक और शास्त्र की कसौटी पर भी देखने की कोशिश करेंगे और उनके जाने के बाद उत्तराखंड की लोककलाओं के सामने वैश्वीकरण की चुनौतियों को समझने की कोशिश करेंगे.)