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सब कुछ दांव पर लगाकर लड़े गए बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजे जब सामने आए तो बाकी बीजेपी नेता तो हाय-तौबा मचाने लगे, लेकिन वित्त मंत्री अरुण जेटली ने दार्शनिक अंदाज में कहा कि महागठबंधन बनने के बाद चुनाव का अंकगणित एनडीए के खिलाफ चला गया था, इसलिए हारे. इतने बड़े वकील की बात को खारिज नहीं किया जा सकता. लेकिन अगर पार्टी की किस्मत नरेंद्र मोदी के करिश्मे की जगह अंकगणित से तय होनी है तो 2016 में 5 राज्यों और 2017 में 7 राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों को लेकर पार्टी को बहुत उत्साहित होने की जरूरत नहीं होगी.
बिहार चुनाव के बाद बाकी दल बीजेपी के खिलाफ कुछ ऐसी गोलबंदी करने की कोशिश कर रहे हैं, जैसी गोलबंदी सत्तर के दशक में कांग्रेस के खिलाफ हुआ करती थी. इस गोलबंदी की धुंधली तस्वीर नीतीश कुमार के शपथग्रहण में पहुंचने वाले नेताओं की लिस्ट से सामने आएगी.
वैसे, 2016 में पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, पुदुच्चेरी, केरल और असम में चुनाव होने हैं. पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस, तमिलनाडु में एआइएडीएमके और पुदुच्चेरी में एआइएनआरसी जैसी क्षेत्रीय पार्टियों का कद्ब्रजा है. पहले दो राज्यों में तो मुख्य विपक्षी दल भी कांग्रेस न होकर डीएमके और वाम मोर्चा जैसे दल हैं. वहीं असम और केरल में कांग्रेस की सरकारें हैं. केरल में विपक्ष में वाममोर्चा है तो असम में पिछले विधानसभा चुनाव में बीजेपी चौथे नंबर की पार्टी थी.
लेकिन यहीं असम बीजेपी के प्रभारी महेंद्र सिंह याद दिलाते हैं, “नरेंद्र मोदी जी के नेतृत्व में लोकसभा चुनाव में असम में करिश्मा हो चुका है. हमारा वोट बैंक एक झटके में 11 फीसदी बढ़कर 37 फीसदी हुआ और हमने सबसे ज्यादा 7 सीटें जीतीं.” कांग्रेस के 10 विधायक बीजेपी में शामिल हो चुके हैं. ऐसे में इतिहास में पहली बार असम में कमल खिल सकता है. लेकिन इस उत्साह के बावजूद बीजेपी जान रही है कि अगर कहीं कांग्रेस ने बदरुद्दीन अजमल के ऑल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (एआइयूडीएफ) से दोस्ती कर ली तो पार्टी की राह कठिन हो सकती है. ऐसे में बीजेपी भी असम गण परिषद के साथ नए रिश्तों की संभावना तलाशने में जुट गई है. यानी दोनों बड़ी पार्टियों को अपने अस्तित्व के लिए गठबंधन की बूटी की दरकार है. उधर, पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस जिस तरह लगातार बेहतर प्रदर्शन दोहरा रही है, उसमें लगता नहीं कि विधानसभा चुनाव ममता बनर्जी के सामने कोई अप्रत्याशित चुनौती लेकर आने वाला है.
दूसरी तरफ 2017 में उत्तर प्रदेश, पंजाब, गुजरात, गोवा, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और मणिपुर राज्यों में चुनाव हैं. जाहिर है, सबसे दिलचस्प और फैसलाकुन मुकाबला यूपी का होगा. एक तथ्य यह भी है कि बिहार के जिस गठबंधन ने बीजेपी को धूल चटाई, उसकी सारी भूमिका समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव के दिल्ली वाले बंगले पर रची गई. यह बात दीगर है कि हर बार की तरह इस बार भी यादव सबसे पहले अपने ही बनाए गठबंधन से छलांग मार गए. उनकी उलझन जमीनी है. उत्तर प्रदेश में पिछले लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने इतने वोट हासिल किए थे कि सपा और बीएसपी के वोट जोड़ भी लिए जाएं तो भी कमल से कम ही थे. ऐसे में यहां बिहार की तर्ज पर सपा-बीएसपी-कांग्रेस का महागठबंधन जीत की गारंटी हो सकता है, लेकिन फिलहाल इसकी कोई संभावना नहीं दिखती.
हां, कांग्रेस या अजित सिंह का राष्ट्रीय लोकदल किसी पार्टी के साथ जुड़कर गठबंधन जरूर करा सकता है. हालांकि उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष निर्मल खत्री कहते हैं, “बीएसपी पहले भी बीजेपी के साथ जा चुकी है और सपा बिहार में बीजेपी को जिताने के लिए ही लड़ रही थी. कांग्रेस अपने दम पर तैयारी में जुटी है.” लेकिन गठबंधन की सारी संभावनाओं को वे निरस्त भी नहीं कर रहे हैं. उधर सपा के राष्ट्रीय महासचिव नरेश अग्रवाल का सतर्क जवाब है, “गठबंधन पर कोई भी फैसला नेताजी ही करेंगे.” हालांकि अग्रवाल इस बात से इत्तेफाक रखते हैं कि बिहार की हार के बाद देश में बीजेपी के खिलाफ माहौल बन रहा है और इससे विभिन्न राजनैतिक दलों के बीच खास किस्म की समझदारी बन सकती है.
उत्तराखंड का गणित और दिलचस्प है. 2012 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और बीजेपी के बीच सिर्फ एक सीट और आधे फीसदी वोटों का अंतर था, वहीं बीएसपी को 12 फीसदी वोट मिले थे. ऐसे में बीएसपी से मधुर रिश्ते कांग्रेस का भाग्य जगा सकते हैं. पंजाब में बीजेपी स्थानीय ताकत शिरोमणि अकाली दल (बादल) के दम पर चुनाव लड़ती है. इस बार अकालियों की हालत कमजोर बताई जा रही है तो आम आदमी पार्टी ने चौथी ताकत के तौर पर प्रवेश किया है. यानी राज्य का गठजोड़ चारों दलों के तात्कालिक रिश्तों पर निर्भर करेगा. हां, बीजेपी का गुजरात दुर्ग फिलहाल किसी भी तरह के गठजोड़ से सुरक्षित है, अब अगर पटेल आरक्षण का मुद्दा तूल पकड़ जाए तो अलग बात.