
सामाजिक अधिकारिता और न्याय मंत्रालय की एक योजना है—ओवरसीज स्कॉलरशिप. यह विदेश जाकर एमए, एमफिल और पीएचडी करने वाले दलित छात्रों को दी जाती है. नरेंद्र मोदी सरकार ने इसमें सीटों की संख्या 60 से बढ़ाकर 100 कर दी. लेकिन 2015-16 की सूची में महज 30 छात्र शामिल हुए हैं. डॉ. भीमराव आंबेडकर की 125वीं जयंती पर दलितों के हित की डफली बजाने वाली सरकार की इससे बड़ी विडंबना नहीं हो सकती कि इस स्कॉलरशिप के लिए मंत्रालय को सीटों के बराबर भी आवेदन नहीं मिल पा रहे.
ऐसा नहीं है कि दलित छात्रों की कमी है, बल्कि अभी भी जानकारी का अभाव है और प्रशासनिक तंत्र की पेचीदगियां उसे डराती हैं. बीजेपी के दलित नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री संजय पासवान इंडिया टुडे से कहते हैं, 'नई पीढ़ी के दलित युवाओं की आकांक्षाओं को कोई भी राजनैतिक दल समझ नहीं पा रहा. दलितों के साथ खाने और नहाने के दिखावटी प्रतीकों से कुछ नहीं होगा. यह समाज आंखों की भाषा समझता है, आंकड़ों की नहीं. अब हमें नई पीढ़ी के दलित युवाओं से बात करनी होगी." वे यह भी कहते हैं, ''कांग्रेस, कम्युनिस्ट और सोशलिस्ट पूरे चेतन मन के साथ जाति की बात करते हैं, जबकि बीजेपी हमेशा अवचेतन मन से करती है. इसलिए हाल की घटनाओं को समझने और परिस्थितियों को आंकने में हमसे गलतियां हुई हैं."
दरअसल, दलित राजनीति को लेकर बीजेपी की दुविधा ही उसे कभी रोहित वेमुला प्रकरण पर, कभी दयाशंकर सिंह के मायावती के खिलाफ अभद्र बोल तो कभी उना प्रकरण के रूप में बैकफुट पर धकेलती है.
क्या है बीजेपी का असमंजस
बीजेपी की सबसे बड़ी चुनौती मोदी लहर में लोकसभा 2014 के चुनाव में हासिल 24 फीसदी दलित वोट को अपने साथ बनाए रखने की है. इसमें उसने उत्तर प्रदेश में अनुसूचित जाति की सभी 17 सुरक्षित सीटों पर कब्जा जमाते हुए लोकसभा की कुल 84 में से 39 सुरक्षित सीटों पर जबरदस्त जीत दर्ज की थी. हिंदी पट्टी में बीजेपी को 34 फीसदी दलित वोट मिले थे. लेकिन हाल की घटनाओं ने जिस तरह पार्टी की छवि दलित विरोधी बनाई है, उससे उबरने को लेकर असमंजस है क्योंकि अगले साल यूपी में विधानसभा के चुनाव होने हैं. यूपी का चुनाव बीजेपी की नरेंद्र मोदी-अमित शाह जोड़ी के लिए अग्निपरीक्षा है क्योंकि राष्ट्रीय स्तर पर उनके उत्थान में इसकी निर्णायक भूमिका थी. एनडीए में रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी के शामिल होने के पांचवें दिन बतौर प्रधानमंत्री उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने 3 मार्च 2014 को बिहार के मुजफ्फरपुर की एक चुनावी सभा में कहा था, ''ब्राह्मण और बनियों की पार्टी कही जाने वाली बीजेपी अब दलितों-पिछड़ों की पार्टी बन गई है. आने वाला वक्त दलितों-पिछड़ों का ही है."
मोदी के इन बयानों के पीछे मुकम्मल आधार भी था. लोकसभा चुनाव के वक्त मायावती को छोड़कर बीजेपी ने सभी प्रमुख दलित चेहरों को अपने सामाजिक समीकरण के गुलदस्ते में सजा लिया था. दिल्ली में उदित राज जो खुलकर महिषासुर समारोह में जाते थे और हिंदू धर्म के खिलाफ बौद्ध धर्म अपनाया था, उन्हें साथ जोड़ा, तो बिहार में पासवान को साथ लिया, जिन्होंने मोदी के मुख्यमंत्री रहते गुजरात में हुए दंगे की वजह से ही अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार से इस्तीफा दे दिया था. इसी तरह महाराष्ट्र में रामदास आठवले की पार्टी आरपीआइ और तमिलनाडु में विजयकांत की पार्टी को जोड़ा था. लेकिन सत्ता में आने के बाद जिस तरह पार्टी को दलित मुद्दे पर विपरीत परिस्थितियों का सामना करना पड़ रहा है, उसने बीजेपी की पेशानी पर बल ला दिया है. बीजेपी के एक वरिष्ठ नेता कहते हैं, ''पिछले 20-25 सालों में दलित राजनीति इतनी धारदार और प्रतिक्रियावादी हो गई है कि बीजेपी के सामाजिक आधार से वह मेल नहीं खा पा रही. इसलिए रणनीतिक तौर पर कई बार विरोधाभास दिखने लगता है."
बीजेपी की दलित दुविधा को समझने के लिए इतिहास पर नजर डालना होगा. बीजेपी का सामाजिक आधार आम तौर पर मध्य और सवर्ण वर्ग तक था. संघ-बीजेपी की संगठनात्मक संरचना की अगली कतार में हमेशा सवर्ण ही हावी रहे हैं. इसलिए संघ भी इस छवि को बदलने की रणनीति पर काम कर रहा था. संघ से जुड़े एक पदाधिकारी बताते हैं, ''1967 में दलितों के संगठन डीएस-4 और बाद में बीएसपी ने ब्राह्मण-बनियों के खिलाफ तिलक-तराजू और तलवार जैसे कई नारे गढ़े और खुलकर विरोध किया. लेकिन दलितों में संदेश देने के लिए संघ ने ही तीन बार बीजेपी को मायावती से गठजोड़ करने की सलाह दी थी." सबसे पहले राम मंदिर आंदोलन के उफान के बावजूद जब 1993 के चुनाव में बीजेपी यूपी में सरकार नहीं बना पाई तो 1995 में मायावती को समर्थन देने का फैसला लिया. तब कल्याण सिंह पूरी तरह से खिलाफ थे, लेकिन संघ ने दलितों में संदेश देने के लिए समर्थन का फैसला किया. 1997 में भी इसे दोहराया गया. इसी तरह 2002 में राजनाथ सिंह की अनिच्छा के बावजूद बीजेपी ने फिर मायावती को समर्थन दिया.
लेकिन इस तरह के प्रतीकों से दलितों में पैठ बनाने की संघ-बीजेपी की कोशिश परवान नहीं चढ़ पाई. संघ ने प्रतीकों की राजनीति करते हुए राम मंदिर के शिलान्यास में भी पहली ईंट दलित नेता कामेश्वर पासवान से रखवाई थी. प्रतीकों के जरिए दलितों का हिमायती दिखने की कवायद बीजेपी की मध्य प्रदेश सरकार ने डॉ. आंबेडकर की जन्मस्थली महू में स्मारक बनाकर की तो केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के समय दिल्ली के अलीपुर रोड स्थिति आंबेडकर निवास को आंबेडकर नेशनल मेमोरियल के तौर पर बनाया. और अब मोदी सरकार ने लंदन स्थित उनका घर खरीदने और उनकी 125वीं जयंती के जरिए सामाजिक दायरा बढ़ाने की पहल की. संघ के मुखपत्र पांचजन्य ने तो अप्रैल 2015 में आंबेडकर विशेषांक छापा था.
संघ की संस्था सेवा भारती दलित इलाकों में तो वनवासी कल्याण आश्रम और एकल विद्यालय आदिवासियों के लिए काम करते हैं. लेकिन इन कामों के जरिए संघ जो आधार तैयार करता है, उस पर बीजेपी नेताओं की बयानबाजी पानी फेर देती है. हालांकि मायावती के खिलाफ अभद्र टिप्पणी करने वाले दयाशंकर को बीजेपी ने चंद घंटों में पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया. उना की घटना ने भी संसद में पार्टी को बचाव की मुद्रा में ला खड़ा किया.
दयाशंकर प्रकरण के फौरन बाद संघ के सह-सरकार्यवाह कृष्ण गोपाल ने राजनाथ सिंह के निवास पर बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह और अन्य वरिष्ठ नेताओं के साथ दो दौर की मंत्रणा की. इसमें आगे की रणनीति पर विचार किया गया. बीजेपी के एक नेता की दलील है, ''रोहित वेमुला प्रकरण हो या उना की घटना, साजिश के तहत सेकुलर ब्रिगेड इसमें बीजेपी को घसीट रही है क्योंकि सेकुलर खेमे को एहसास हो गया है कि सांप्रदायिकता के मुद्दे पर बीजेपी को कटघरे में खड़ा करना उसे सियासी फायदा देता है. इसलिए अब सामाजिक एजेंडे पर बीजेपी को बदनाम करने की कोशिश हो रही है." हालांकि वे यह मानते हैं कि सामाजिक धारणाओं की लड़ाई में पार्टी बैकफुट पर है.
संघ इस मसले पर फिलहाल चुप है क्योंकि नागपुर की प्रतिनिधि सभा की बैठक के बाद शुरू सामाजिक समरसता अभियान को धक्का लगा है. संघ ने एक मंदिर, एक कुंआ, एक श्मशान के नारे के साथ अभियान शुरू किया था जिसमें सामाजिक आधार को बढ़ाने की पहल की गई. लेकिन हाल की घटनाओं ने संघ के एजेंडे पर पानी फेर दिया. अब संघ ने 18 अगस्त को रक्षा बंधन के मौके पर मनाए जाने वाले रक्षा पर्व के लिए इस बार खास तैयारी की है. स्वयंसेवकों को दलित बहनों से राखी बंधवाने और उनके घरों में जाकर बातचीत करने का निर्देश दिया गया है, ताकि सामाजिक सद्भावना का माहौल फिर से बनाया जा सके. संघ अब गोरक्षक दल जैसे अपने संपर्क के संगठनों पर निगरानी रखने की रणनीति बना रहा है. गुजरात में मुख्यमंत्री पद से आनंदीबेन पटेल की विदाई में भी उना की घटना तात्कालिक कारण बनी है. बीजेपी के एक नेता का कहना है कि अगर उम्र पैमाना होता तो उन्हें मई 2014 में मुख्यमंत्री बनाया ही नहीं जाता.
बीजेपी अध्यक्ष शाह ने भी यूपी की टीम को चेतावनी दी है कि चुनावी रौ में बयानबाजी पर नियंत्रण रखें. इसके बाद यूपी बीजेपी अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्य ने पदाधिकारियों की बैठक में भी इस चेतावनी को दोहराया. यूपी में बीजेपी ने अपने सभी 17 दलित सांसदों को सद्भावना समारोह करने और दलित क्षेत्रों में प्रवास बढ़ाने का निर्देश दिया है, जबकि अन्य राज्यों में दलित नेताओं को अपने स्तर से नव सामाजिक मंच बनाकर दलितों का भरोसा कायम रखने वाले अभियान चलाने को कहा है. बिहार में संजय पासवान ने 21 (बिहार के पूर्व सीएम भोला पासवान की जयंती), 23 (दिनकर जयंती), 25 सितंबर (दीनदयाल उपाध्याय जयंती) को नेशनल सोशल समिट का आयोजन किया है. राष्ट्रीय स्तर पर धारणा की लड़ाई के लिए पार्टी ने चार स्तरीय रणनीति बनाई है. पहली—योजनाबद्ध तरीके से जवाब देना, जिसमें दलित अत्याचार के आंकड़ों को तुलनात्मक रूप में रखना. दूसरी—निचले स्तर पर दलितों से सीधा संपर्क स्थापित करना, खास तौर से गैर जाटव दलितों से. यूपी से पासी समाज की कृष्णा राज को मंत्री बनाकर पार्टी ने गैर जाटवों को संदेश दिया है. इसमें स्टैंड-अप इंडिया के तहत दलितों को मिलने वाले लोन से नए उद्यमी खड़ा होने की बात और मुद्रा बैंक योजना के फायदे गिनाना है. तीसरी—संघ के नेटवर्क का इस्तेमाल कर दलितों में छवि सुधार की कवायद. इसके तहत रक्षा पर्व में शामिल होना. चौथी—ज्यादातर दलित नेताओं को बीजेपी से जोडऩे की कोशिश, ताकि यह संदेश जाए कि पार्टी दलितों के साथ है. सूत्रों के मुताबिक, इस रणनीति के तहत बीएसपी से काफी दलित नेताओं को पार्टी में लाने की रणनीति बन गई है.
बीजेपी मान चुकी है कि दलितों में जाटव वोट को तोड़ पाना मुमकिन नहीं, इसलिए पार्टी गैर जाटव वोट पर ही फोकस कर रही है. लेकिन बीजेपी के ही दलित नेता और चिंतकों का मानना है कि इसके लिए भी मानवता से बड़ी गाय वाली छवि उसे बदलनी होगी. साथ ही दलितों का विश्वास जीतने के लिए पहले उसे परिक्रमा नहीं, पराक्रम वाले दलित नेता खड़े करने होंगे.