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बीजेपी के गढ़ हाड़ौती के किसानों में असंतोष, अपने ही घर में घिरीं महारानी

एक तरफ मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे को अपने विधानसभा क्षेत्र  झालरापाटन में कांग्रेस के उम्मीदवार के तौर पर मानवेंद्र सिंह टक्कर तो दे ही रहे हैं, तो वहीं किसानो की नाराजगी भी उनके सामने मुश्किले खड़ी कर सकता है.

भामाशाह मंडी में लहसुन की बोरियां (फाइल फोटो-Twitter/@GramRajasthan) भामाशाह मंडी में लहसुन की बोरियां (फाइल फोटो-Twitter/@GramRajasthan)
विवेक पाठक
  • नई दिल्ली,
  • 02 दिसंबर 2018,
  • अपडेटेड 2:07 PM IST

राजस्थान का हाड़ौती क्षेत्र यानी कोटा संभाग राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, पहले जनसंघ और अब बीजेपी का मजबूत गढ़ रहा है. यह मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे का गृह क्षेत्र भी है जहां के झालरापाटन विधानसभा से वो लगातार चुनाव जीतती आईं हैं. लेकिन बीजेपी के संस्थापक सदस्य रहे जसवंत सिंह के पुत्र मानवेंद्र सिंह के कांग्रेस में शामिल होने और सीएम के खिलाफ चुनाव लड़ने से यहां की लड़ाई दिलचस्प हो गई है.

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बूंदी जिले की केशोरायपाटन विधानसभा की बात करें तो यहां कांग्रेस के उम्मीदवार बदलने के बाद त्रिकोणीय मुकाबला देखने को मिल रहा है. कांग्रेस ने पहले सीएल प्रेमी को उम्मीदवार बनाया था, लेकिन बाद में उनका टिकट काटकर राकेश बोयत को दे दिया गया. प्रेमी अब निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर कांग्रेस को नुकसान पहुंचा सकते हैं. वहीं बीजेपी ने रामगंज मंदी की विधायक चंद्रकांता मेघवाल को इस सीट से टिकट दिया है.   

कोटा की लाडपुरा सीट पर बीजेपी ने कोटा राजघराने की बहु और पूर्व कांग्रेस सांसद इज्यराज सिंह की पत्नि कल्पना राजे को मैदान में उतारा है. पीपल्दा में दोनों ही दलों के उम्मीदवार बाहरी हैं. बीजेपी ने इस सीट से पूर्व कांग्रेस विधायक और महिला आयोग की पूर्व अध्यक्ष ममता शर्मा को मैदान में उतारा है, जो बूंदी से चुनाव लड़ा करती थी. तो कांग्रेस ने देवली-उनियारा सीट से पूर्व विधायक रामनारायण मीणा को टिकट दिया है.

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बारां जिले की अंता सीट से कृषि मंत्री प्रभुलाल सैनी चुनाव लड़ रहे हैं जिन्हें कांग्रेस के दिग्गज नेता प्रमोद कुमार भाया से कड़ी टक्कर मिल रही है. बता दें कि 2013 के चुनाव में मोदी लहर के दौरान सैनी बड़ी मुश्किल 3399 वोटों से जीते थे और सीट बदलना चाहते थे, लेकिन पार्टी ने मना कर दिया.

साल 2013 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने हाड़ौती क्षेत्र की 17 सीटों में 16 सीटों पर जीत दर्ज की थी. लेकिन इस बार जनता की नाराजगी बीजेपी के लिए परेशानी का सबब बन सकती है. राजस्थान का हाड़ौती क्षेत्र उपजाऊ होने के चलते कृषि प्रधान क्षेत्र माना जाता है. सबसे बड़ी अनाज मंडी रामगंज मंडी भी यहीं स्थित है. लेकिन एमएसपी, फसल को नुकसान और युवाओं में बेरोजगारी जैसे मुद्दे इस बार होने वाले चुनावी परिणाम पर असर डाल सकते हैं.

हाड़ौती में बूंदी, कोटा, झालावाड़ और बारां चार जिले आते हैं. और पिछले 30 साल से इस क्षेत्र में बीजेपी का वर्चस्व रहा है. गेंहू, चावल, मक्का, चवना, उड़द, सरसों और सब्जियां यहां की मुख्य फसले हैं. लेकिन किसानों की शिकायत है कि यूरिया की कमी के कारण खाद की कालाबाजारी हो रही है जिस वजह से 265 रुपये में बिकने वाली यूरिया 320 से 380 रुपये में बिक रही है.

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यह भी पढ़ें-वसुंधरा और गहलोत की सियासी अदला-बदली में राजस्थान को क्या मिला?

किसानों की शिकायत है कि सरकार आंकड़ों के लिए एमएसपी तो बढ़ा देती है लेकिन सरकारी खरीद न होने के कारण उन्हें अपनी फसल को निजी हाथों में बेचना होता है, जिससे उनकी फसलों का सही दाम नहीं मिलता. फिर चाहे बाजरा, मक्का, सरसो या लाहसुन ही क्यों न हो. किसानों की बदहाली के साथ-साथ युवाओं में बेरोजगारी भी बड़ा विषय है जिसे विपक्षी दल कांग्रेस प्रमुखता से उठा रही है.

हाड़ौती की 13 लाख हेक्टेयर जमीन में 2 लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल में लहसुन की खेती होती है. पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के खाते में आने वाली एकमात्र सीट हिंडोली की भामाशाह मंडी गेंहू और अन्य फसलों की खरीद और बिक्री की बड़ी मंडी है. बीजेपी सरकार ने जब लहसुन की खरीद सरकारी मंडियों द्वारा कराने का फैसला लिया था कि इससे हाड़ौती के लहसुन किसानों को दामों में स्थिरता आने से फायदा होगा. लहसुन की खरीद के लिए सरकार द्वारा निर्धारित एमएसपी 3257 रुपये प्रति क्विंटल तय की गई लेकिन लेकिन सरकार ने केवल 7 फीसदी ही लहसुन खरीदा. शेष 93 फीसदी निजी एजेंसियों द्वारा खरीदा गया जिन्होंने 200-2500 रुपये प्रति क्विंटल की दर से लहसुन खरीदा.

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पिछले पांच सालों से इस क्षेत्र में कांग्रेस ने काफी मेहनत की किसानों के समर्थन में पदयात्राएं की गईं जिसमें कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी भी शामिल हुएं. किसानों के परिवार के युवक खेती-किसानी मुनाफे का सौदा न होने के होकर इस पेशे से दूर जाना चाहते हैं लेकिन रोजगार के साधन न होने के चलते इनके पास कोई बेहतर विकल्प नहीं है. ये सारे फैक्टर सत्ताधारी बीजेपी के सामने उसके गढ़ मुश्किलें खड़ी कर सकते हैं.

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