भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन ने हाल ही में भरतराम स्मारक व्याख्यान के दौरान एक अजीब बात कही. उनकी राय थी कि विश्व अर्थव्यवस्था की ‘‘चाल पहले से कहीं धीमी और अपने बाजारों तक सीमित है इसलिए हमें अपनी वृद्धि के लिए क्षेत्रीय और घरेलू मांगों पर फोकस करना होगा. उनका आशय यह था कि ‘‘मेक इन इंडिया’’ का लक्ष्य मुख्य रूप से देसी बाजार को बनाना होगा.’’ राजन ने इस तरह से देश के लिए निर्यातोन्मुखी वृद्धि की अवधारणा को खारिज कर दिया. उनकी पेशकश की एक दलील यह भी निकलती है कि बड़े पैमाने पर उत्पादन ‘‘मेक इन इंडिया’’ अभियान का आधार नहीं हो सकता.
यकीनन, मुख्यधारा के अर्थशास्त्री राजन की इन नीतिगत सिफारिशों से शायद ही असहमत हों. निर्यात पर सब्सिडी देना निर्यातोन्मुखी विकास को बढ़ावा देने का बेहतर तरीका नहीं हो सकता. वैसे भी विश्व व्यापार संगठन ने ऐसी सब्सिडी पर प्रतिबंध लगा रखा है. इसी तरह व्यापार पर तमाम बंदिशों के साथ आयात आधारित औद्योगिकीकरण भी बेहतर उपाय नहीं है. वाकई, मैं एक कदम आगे बढ़कर व्यापार उदारीकरण की फिर शुरुआत करने की पेशकश करूंगा, जो 2007-08 से रुका हुआ है, जब राजस्व का लक्ष्य घटने लगा था.
बहरहाल, राजन यहां एक अहम सवाल को नजरअंदाज कर रहे हैं. वह सवाल यह है कि श्रम-शक्ति की प्रचुरता वाला भारत औद्योगिक बदलाव की उस राह से कैसे बच सकता है जिस पर चलकर श्रम-शक्ति की प्रचुरता वाली हर कामयाब अर्थव्यवस्था ने उसे अपनाया है? भारत में इस वक्त काम करने वालों की करीब 50 करोड़ की फौज है और इसमें हर साल 1.2 करोड़ का इजाफा हो रहा है. अब भी खासा गरीब होने के कारण देश में पूंजी का सीमित भंडार ही है और अधिकांश श्रम-शक्ति अकुशल है.
इन हालात में हम रोजगार की बाट जोह रहे लोगों को बड़े पैमाने पर कैसे अच्छे रोजगार दे पाएंगे? आज, करीब आधी श्रम-शक्ति कृषि पर आधारित है, जिसका राष्ट्रीय सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में योगदान 15 फीसदी से कम है. इसके अलावा, 40 फीसदी से अधिक श्रम-शक्ति असंगठित क्षेत्र में लगी हुई है.
इन परिस्थितियों में क्या कोई ऐसा रास्ता है जो भारी श्रम-शक्ति की खपत वाले सिले-सिलाए कपड़ों जैसे उद्योग और निर्माण जैसे सेवा क्षेत्र से न गुजरता हो, फिर भी अगले दशक में करीब एक-तिहाई श्रम-शक्ति के लिए निजी क्षेत्र में बेहतर नौकरियों का सृजन कर सके? राजन इस रास्ते के बारे में विस्तार से नहीं बताते और मैं भी उस बारे में नहीं सोच पा रहा हूं. भारत में कई लोग ऐसा सोचते हैं कि देश उत्पादन क्षेत्र से छलांग लगाकर अमेरिका की तरह सेवा क्षेत्र की अर्थव्यवस्था वाली स्थिति में पहुंच जाएगा.
उन्हें यह एहसास नहीं है कि दशकों तक अव्वल दर्जे की ऊंची तालीम के बाद ही हम अमेरिका की तरह के काम करने वाले लोग हासिल कर सकते हैं. फिलहाल तो सेवा क्षेत्र में ज्यादा नौकरियां कम वेतन वाली और असंगठित क्षेत्र में ही हैं. 2006-07 के राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण में पता चला था कि सेवा क्षेत्र के 1.5 करोड़ उद्यमों में सबसे बड़े 626 में से 38 फीसदी सेवाएं मुहैया कराते हैं और मजे की बात देखिए कि इनमें महज 2 फीसदी श्रम-शक्ति ही लगी हुई है.
यह भी एक बड़ी गलतफहमी-सी पैदा हो गई है कि निर्यात सिर्फ तेज वृद्धि वाली विश्व अर्थव्यवस्था में ही तेजी से बढ़ सकता है. हकीकत यह है कि 1995 से 2013 के बीच जब चीन का निर्यात उछाल ले रहा था तो आर्गेनाइजेशन फॉर इकोनॉमिक को-ऑपरेशन ऐंड डेवलपमेंट (ओईसीडी) के देशों में यह महज 1.4 फीसदी सालाना की दर सेही बढ़ रहा था. सिद्धांत रूप में धीमी वैश्विक वृद्धि के दौरान निर्यात में बढ़ोतरी में अड़चन तभी पैदा होती है जब एक ही समय में एक ही सामान कई देश बना रहे हों.
हालांकि इस तरह के हालात कभी बनते नहीं. इतिहास में भारी श्रम-शक्ति आधारित उत्पादों के निर्यात में एक साथ बढ़ोतरी का लक्ष्य हासिल करने वाले विकासशील देशों की संख्या बस मुट्ठी भर ही तो रही है. 1960 और 1970 के दशक में ऐसे देश दक्षिण कोरिया, ताईवान, सिंगापुर और हांगकांग रहे हैं. फिर, इन पूर्वी एशियाई शेरों में जैसे ही वेतन में बढ़ोतरी हुई, 1980 के दशक में उनकी जगह चीन ने ले ली. और अब जब चीन में तनख्वाहें बढ़ गईं हैं तो इन उत्पादों के प्रतिस्पर्धी निर्यातकों में विएतनाम और कंबोडिया को उभरते देखा जा सकता है.
राजन का यह कहना सही है कि दुनिया में चीन जैसी दो अर्थव्यवस्थाओं की जगह नहीं बन सकती, लेकिन यह भारत के कामयाब निर्यातक बनने के मामले में सही नहीं हो सकता. आज चीन का निर्यात दुनिया के व्यापार का 12 फीसदी है और भारत का 2 फीसदी से भी कम. लेकिन, भारी श्रम-शक्ति और अपेक्षाकृत काफी कम तनख्वाहों के साथ भारत अगले पांच साल में चीन से करीब 2 फीसदी अंक क्यों नहीं झटक सकता? बस इसी से श्विश्व अर्थव्यवस्था के लिए ‘‘मेक इन इंडिया’’ अभियान को काफी सहारा मिल सकता है.
अगर हम बड़ा सपना नहीं देखेंगे तो हम दुनिया में श्रम-शक्ति आधारित उत्पादों के बाजार में पैठ नहीं बना सकते. निर्यात को लेकर राजन के निराशावाद को ध्यान में रखकर देखें तो इसमें आश्चर्य नहीं कि पुराने श्रम कानूनों में सुधारों का राजन की लंबी फेहरिस्त में कोई जिक्र नहीं है, जो कि उत्पादन क्षेत्र में हमें बढ़त दिलाने के लिए बेहद जरूरी हैं.
ऐसे में निर्यात को लेकर हमारा निराशावाद अपनी भावनाओं को तुष्ट करने का साधन ही बनता है और हम विश्व बाजार में होड़ करने की अपनी नीतिगत नाकामियों को न समझने की गलतफहमी के शिकार हो जाते हैं, और इस तथ्य को नजरअंदाज कर जाते हैं कि इसी बाजार में चीन सब कुछ हथियाता जा रहा है.
(अरविंद पानगडिय़ा अमेरिका के कोलंबिया विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर हैं)